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अररिया, सिमडेगा, कांकेर, महोबा, शिवपुर, मलकानगीर जैसी सैकड़ों जगहें हैं, जहां नीति-निर्माता और मंत्री शायद ही कभी जाते हैं. ये देश के सबसे पिछड़े जिलों में शामिल हैं. ये हमारी असफल नीतियों की मिसाल हैं और इनसे गवर्नेंस पर सरकार के दावों की पोल खुल जाती है.
हमारे नीति-निर्माता ‘विकास से अछूते’ इन जगहों को कुछ साल के अंतराल पर ‘डिस्कवर’ करते रहते हैं. नीति आयोग की तीसरी गवर्निंग काउंसिल की मीटिंग में भी ऐसा ही हुआ. इसमें आयोग ने 15 साल के विजन डॉक्युमेंट पर चर्चा की, जिसमें इस पिछड़ेपन को दूर करने की जरूरत पर जोर दिया गया.
पिछड़े जिलों की कहानी 1960 से चली आ रही है. तब नरेंद्र मोदी की उम्र 10 साल थी और जवाहर लाल नेहरू देश के प्रधानमंत्री थे. 1960 की एक रिपोर्ट में पिछड़े जिलों का पहली बार जिक्र किया गया था. उसके 56 साल बाद भी 100 पिछड़े जिलों का जिक्र हो रहा है. इससे यह बात साबित हो जाती है कि हमने इस समस्या से निपटने में कितनी गंभीरता दिखाई है.
1960 की रिपोर्ट में प्रति व्यक्ति कम आय, अधिक आबादी, कम्युनिकेशन संसाधनों की कमी के आधार पर ऐसे 123 जिलों की पहचान की गई थी. इसमें से 82 पर्सेंट जिले बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश से थे. शायद बीमारू राज्यों का यह पहला संकेत था.
1996 में ईएएस सरमा कमेटी की रिपोर्ट में ‘खराब परफॉर्मर्स’ की पहचान के लिए एक प्रक्रिया तय की गई. तब ऐसे 38 जिले बिहार (तब झारखंड इससे अलग नहीं हुआ था), 19 मध्य प्रदेश (छत्तीसगढ़ भी अलग नहीं हुआ था), 17 उत्तर प्रदेश (उत्तराखंड तब राज्य के साथ था), 10 ओडिशा और 10 महाराष्ट्र के थे.
2001 में एनजे कुरियन ने इन जिलों के नेशनल पॉपुलेशन कमीशन डेटा और राज्यों के प्रदर्शन पर उनके असर की पड़ताल की. बैकवर्ड ग्रुप में तब असम, बिहार, मध्य प्रदेश, ओडिशा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल शामिल थे.
2003 में मैंने 100 पिछड़े जिलों पर एक स्टडी की, जिसमें पिछली कमेटियों की सिफारिशों और उसके बाद अपनाई गई नीतियों का विश्लेषण किया गया था. इस स्टडी को बिबेक देबरॉय और लवीश भंडारी ने संपादित किया था और इसका नाम ‘डिस्ट्रिक्ट लेवल डिप्राइवेशन इन द न्यू मिलेनियम’ था. इतनी रिपोर्ट्स और कितनी ही कमेटियों की सिफारिशों के बाद पिछड़े जिलों के मामले में बहुत कुछ नहीं बदला है.
इन जिलों के पिछड़ेपन की कोई एक वजह नहीं है. इसके ऐतिहासिक, जिले कहां स्थित हैं, वहां की आबादी और राजनीतिक कारण हैं. ये दूरदराज के इलाकों में स्थित हैं. यहां रोड और रेलवे कनेक्टिविटी खराब है. इन जिलों में या तो अक्सर सूखा पड़ता रहता है या उन्हें बाढ़ का प्रकोप झेलना पड़ता है. अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अल्पसंख्यकों की आबादी अधिक है.
पिछड़े जिलों पर बनी कमेटियों की सिफारिशों के आधार पर एंप्लॉयमेंट गारंटी स्कीम, 100 डेज एंप्लॉयमेंट स्कीम वजूद में आईं. महाराष्ट्र की एंप्लॉयमेंट एश्योरेंस स्कीम आगे चलकर पूरे देश में महात्मा गांधी नेशनल रूरल एंप्लॉयमेंट गारंटी (मनरेगा) स्कीम का आधार बनी. इन जिलों को पिछड़ेपन से बाहर निकालने के लिए औद्योगीकरण पर जोर दिया गया. इसके लिए टैक्स छूट, सस्ते लोन, सब्सिडी और डिस्ट्रिक्ट इंडस्ट्रियल सेंटर्स बनाने की बातें हुईं.
हालांकि, रोड और रेलवे कनेक्टिविटी खराब होने, बिजली की सप्लाई में समस्या, प्रशिक्षित कामकारों की कमी, बैंकिंग सुविधाओं का अभाव और पानी की कमी के चलते ये योजनाएं फ्लॉप हो गईं. ये योजनाएं इस बुनियाद पर आधारित थीं कि उद्योगों के आने के बाद दूसरी समस्याएं दूर हो जाएंगी. हालांकि, यह सोच गलत साबित हुई.
दक्षिण भारत के पिछड़े जिलों में सरकारी योजनाओं का असर उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद या ओडिशा के ढेकनाल या पश्चिम बंगाल के पुरुलिया जैसे जिलों की तुलना में बेहतर रहा.
2004 में यूपीए सरकार ने मनरेगा स्कीम शुरू की, जिसमें 100 दिनों के रोजगार की गारंटी दी गई. फरवरी 2007 में मनमोहन सिंह सरकार ने 27 राज्यों के 250 जिलों के लिए बैकवर्ड रीजन ग्रांट फंड (बीआरजीएफ) शुरू किया. हालांकि, सिर्फ नेकनीयती से ही बात नहीं बनती.
बीआरजीएफ 2007-2011 पर योजना आयोग की स्टडी के मुताबिक, ‘योजना के तहत जितना पैसा तय किया गया था, एक भी राज्य को उसका 80 पर्सेंट से अधिक भुगतान नहीं हुआ.’ इससे भी बुरी बात यह है कि जितना पैसा दिया गया, उसका एक-तिहाई ही इस्तेमाल हुआ. गरीब राज्यों में यह समस्या कहीं अधिक विकराल थी. जो पैसा राज्यों को मिला, उसका बहुत कम हिस्सा इस जिलों तक पहुंचा.
पिछले महीने प्रधानमंत्री मोदी ने एक रिव्यू मीटिंग में मंत्रियों से 100 पिछड़े जिलों पर फोकस करने को कहा. इसकी जरूरत से किसी को इनकार नहीं है, लेकिन यह काम कैसे किया जाए? पहली बात तो यह है कि ऐसे जिलों की नई लिस्ट की जरूरत नहीं है. फाइनेंशियल इनक्लूजन से लेकर शैक्षणिक पिछड़ेपन जैसे पैमानों पर ऐसे जिलों की कई लिस्ट है. पिछड़ेपन की समस्या विकेंद्रीकरण के असफल होने की वजह से खड़ी हुई है, जबकि इसके लिए संविधान में कई बार संशोधन हो चुके हैं.
इस मामले में हिमाचल प्रदेश अपवाद है. विकेंद्रीकरण और नीतियों और उन्हें लागू करने में राज्य के लोगों के सहयोग के चलते ऐसा हुआ है. दूसरे राज्य उससे बहुत कुछ सीख सकते हैं.
पिछड़े जिलों में ज्यादातर लोग खेती पर आश्रित हैं. यहां एक मॉडल कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग लॉ से पैदावार और किसानों की आमदनी बढ़ाने में मदद मिल सकती है. इन जिलों में छोटे उद्योगों को बढ़ावा दिया जा सकता है. इसके लिए लेबर लॉ इस तरह से बनाए जाने चाहिए, जिससे लोग यहां उद्योग लगाने की पहल करें. उद्योगों के आने से लोगों की आमदनी बढ़ेगी, लेकिन सरकार को ह्यूमन डिवेलपमेंट पर ध्यान देना चाहिए.
पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप के जरिये एजुकेशन और हेल्थ सेगमेंट की हालत बेहतर की जा सकती है. 100 पिछड़े जिलों को बिजलीकरण के मामले में प्राथमिकता की पहल की जा सकती है. स्टार्टअप और मुद्रा स्कीम की मदद से यहां उद्योगों को बढ़ावा दिया जा सकता है. एम्पावर्ड इकोनॉमिक जोन का एक मॉडल बनाकर इन 100 जिलों को उसका हिस्सा बनाया जा सकता है.
(शंकर अय्यर राजनीतिक-आर्थिक मामलों के जानकार हैं. इन्होंने 'एक्सिडेंटल इंडिया: ए हिस्ट्री ऑफ द नेशंस पैसेज थ्रू क्राइसिस एंड चेंज' किताब लिखी है. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)
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Published: 06 Jun 2017,09:39 AM IST