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पेरिस पर हुए खतरनाक हमलों को देखते हुए, यूरोप और अमेरिका में भी डर बढ़ रहा है, और वहां के लोग बॉर्डर को बंद कर देने और किसी भी रिफ्यूजी को न आने देने की मांग कर रहे हैं.
इस्लामिक स्टेट यही तो चाहता था.
इस तरह के आतंकवादी संगठन, देशों और समुदायों के बीच की राजनीतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक-आर्थिक दुश्मनी पर फलते-फूलते हैं. मुस्लिम समुदाय पर इस तरह पलटवार करने और शरणार्थियों को अस्वीकार करने से इस आतंकवादी संगठन को पूरी की पूरी एक पीढ़ी को ‘पश्चिमी ताकतों’ के खिलाफ खड़ा करने में मदद मिलेगी.
शुक्रवार को हुए हमले से इस बात का खतरा बढ़ गया है कि विदेशी लड़ाके वापस आएंगे, ऐसी प्रतिक्रिया समुदायों के बीच दूरी बढ़ाएगी और कुछ समय बाद हम पाएंगे कि समाज में कट्टरता हावी हो चुकी है.
यदि इसी पैसे और संसाधनों को कट्टरता खत्म करने के लिए लगाया जाए तो नतीजा कहीं बेहतर आ सकता है.
इसके लिए सरकारों को ऐसे कार्यक्रम चलाने होंगे, जो कट्टरता को खत्म करने और उसे लोगों पर हावी होने से रोकने का काम करें.
दूसरे शब्दों में कहा जाए तो किसी आतंकवादी को हमला करने से रोकने के बजाय कुछ ऐसा किया जाए कि कोई आतंकवादी ही न बने.
ऐसा करने के लिए एक संयुक्त मोर्चे और मानवतावादी मूल्यों को बरकरार रखना होगा. अगर हम ऐसा कर सके तो धीरे-धीरे ही सही, पर मासूम बच्चे आतंक के सौदागरों के चंगुल में फंसने से बच जाएंगे और उन्हें भर्ती करने के लिए नए लोग ही नहीं मिलेंगे.
कैसी होनी चाहिए नीति?
ब्रिटेन में कट्टरता को कम करने के लिए सरकार ने एक ऐसा प्रोग्राम चलाया है, जिसके अंतर्गत ऐसे लोगों की पहचान की जाती है जो कट्टर ताकतों के प्रभाव में आ सकते हैं, और फिर इस प्रोग्राम के अंतर्गत उन्हें लगातार ऐसी शिक्षा दी जाती है कि वे अतिवाद से मुंह मोड़ लें.
इन गर्मियों में रोज औसतन आठ लोगों को इस प्रोग्राम के लिए रेफर किया गया था. इससे यह तो साफ है कि सरकारें बढ़ते अतिवाद को लेकर कितनी चिंतित हैं.
पर हालिया महीनों में यह प्रोग्राम भी जांच के दायरे में आ गया था क्योंकि इस प्रोग्राम में हिस्सा लेने वाला एक किशोर ऑस्ट्रेलिया में ऐंजाक डे परेड पर आतंकवादी हमले के लिए उकसाने का दोषी पाया गया था. इस बात के पता चलने के बाद इसकी प्रभावशीलता पर सवाल पैदा हो गया था.
हालांकि फिर भी कट्टरता की रोकथाम वाले उपाय प्रभावी हो सकते हैं. वर्ष 2013 के अंत में पब्लिश हुए एक पेपर के मुताबिक, फिल्मों और ग्रुप ऐक्टिविटिज के जरिए एक रिसर्च में भाग लेने वाले व्यक्तियों के लिए नीति और नैतिकता पर 16 घंटे का कोर्स चलाया गया.
इस कोर्स की समाप्ति पर पाया गया कि इसमें भाग लेने वाले लोगों ने तमाम मानवीय मूल्यों को लेकर सहानुभूति जताई, और अपने विवादों को हिंसा की बजाय सहयोग और समझौते के जरिए खत्म करने को अपना समर्थन दिया.
फ्रांस पर हमले की संभावना इसलिए भी ज्यादा रही है क्योंकि यह कड़ी आतंक-विरोधी नीतियों का समर्थन करता है. यह उन कुछ यूरोपिय देशों में से एक है, जिन्होंने 2004 और 2005 में हुए मैड्रिड और लंदन धमाकों के बाद अतिवाद और कट्टरता को खत्म करने के लिए नर्म रुख नहीं अपनाया. इसके अलावा फ्रांस की जेलों में भी कट्टरता की समस्या है.
कट्टरता बहुत सारी वजहों से पनपती है. दुनिया से अलग-थलग होना, खुद को पीड़ित समझना या एक-दूसरे से जुड़ाव की जरूरत महसूस करना जिससे जेलों में गैंग कल्चर जन्म लेता है.
इसे खत्म करने के लिए कट्टर ताकतों के प्रभाव को सीमित करना चाहिए और धर्म के असली स्वरूप को प्रभावशाली धार्मिक नेताओं के जरिए ऐसे लोगों के सामने लाना चाहिए.
दुर्भाग्य की बात यह है कि फ्रांस में धर्मनिरपेक्षता को इतना महत्व दिया जाता है कि कई बार कैदियों के धर्म के बारे में कोई जानकारी नहीं रखी जाती.
ऐसे में कट्टरता की पहचान करनी मुश्किल हो जाती है, और फिर इसको खत्म करने के लिए प्रभावशाली प्रोग्राम चलाने में दिक्कत आती है.
यूरोप को अब दीर्घकालीन प्रभावों के बारे में सोचना होगा. उन्हें इस सच्चाई को स्वीकार करना होगा कि आतंवाद-विरोधी कार्यक्रमों का सीधा असर अतिवाद को खत्म करने वाले कार्यक्रमों पर पड़ता है, जो कि अंतत: आतंकवाद की जड़ों को कमजोर कर सकता है.
हमें कड़ी प्रतिक्रियाओं से बचना चाहिए, नहीं तो आतंकियों की ‘हमारे’ और ’उनके’ वाली थ्योरी को बल मिलेगा, और पहले से ही बंटे हुए समुदायों में पहचान की राजनीति एक नए स्तर को छूने लगेगी.
(लेखिका निकिता मलिक और श्रेया दास चरमपंथ के खिलाफ काम करनेवाली थिंकटैंक क्विलियम फाउंडेशन के लिए काम करती हैं.)
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Published: 19 Nov 2015,05:10 PM IST