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अपने अंगों को देह के दायरे में समेटे रखना क्या इतना मुश्किल काम है. किसी के काम में टांग न अड़ाना, या नाक ना घुसाना. पर महामारी और महीने के क्वारंटाइन के बाद जी ऊब गया है. अंगड़ाई लेने की इच्छा है- नसे फड़फड़ा रही हैं. दिल तेजी से धड़क रहा है. अड्रेनलिन जैसे हारमोन ने तूफान मचाया हुआ है.
चलो, इंटरनेट खंगालते हैं, और जिस किसी को जिंदगी का पाठ पढ़ाना शुरू करते हैं. कुछ लोग बिना पलकें झपकाए, अपनी प्रतिभा का उपयोग कर रहे हैं. मिसाल देखिए. टीना डाबी और अतहर खान की शादी में सबकी दिलचस्पी बढ़ गई है. हाल में इस कपल ने, जिसने 2018 में शादी रचाई थी, तलाक के लिए अर्जी दी है. इसके बाद हर किसी ने इस बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना बनना शुरू कर दिया. इस नए घटनाक्रम पर अपनी राय देनी शुरू कर दी- उन्होंने भी, जिनका इस शादी से दूर-दूर तक कोई ताल्लुक नहीं है.
सबसे पहली बात तो यह है कि टीना डाबी और अतहर खान किसी के कर्जदार नहीं. उन पर उपदेश बरसाने की किसी को जरूरत नहीं है. हां, जब दो धर्मों के दो लोग शादी करते हैं तो उनके लिए काफी मुश्किल होता है. फिर भी यह उनकी जिम्मेदारी नहीं कि वे दूसरों के लिए मिसाल कायम करें. यह साबित करें कि शादी हमेशा कामयाब होनी चाहिए. बिल्कुल, शादी को कामयाब बनाना, कोई बहुत बड़ी उपलब्धि नहीं है. इसलिए यह मत बताइए कि क्या किया जाना चाहिए और क्या नहीं. मैं बिन मांगे एक राय देना चाहती हूं. शादी एक व्यक्तिनिष्ठ अनुभव है, दो लोगों के बीच का रिश्ता, जिसे लोग खुद चुनते हैं. हमें किनारे बैठकर, उस पर अपनी राय नहीं देनी चाहिए.
इसलिए शादियां- भले ही दो धर्मों के लोगों के बीच हों या एक ही धर्म के दो लोगों के बीच, आदर्श और खुशहाल संबंध की मिसाल नहीं मानी जानी चाहिए. उनका भविष्य जो भी हो, दुनिया को उन्हें स्वीकार करना चाहिए. पर यह हमारी तमन्ना ही तो है. हाल ही में ज्वेलरी ब्रांड तनिष्क ने अपने एक एड को बंद कर दिया है, जिसमें एक शादीशुदा औरत खुश दिखाई दे रही थी.
हैरानी की बात है ना. और वह भी एक इंटरफेथ शादी वाली औरत.
डिंग, डिंग, डिंग. अब यह तो हर किस्म की शादियों को स्वीकार करने जैसी बात हो गई
चलिए, मान लीजिए कि डाबी और खान तलाक की अर्जी नहीं देते? तो क्या लोग उन्हें ऐसे ही छोड़ देते? क्या उन्हें ‘लव जिहाद’ के आरोपों का बार-बार जवाब नहीं देना पड़ता? क्या उन्हें बार-बार इस बात का भरोसा नहीं दिलाना पड़ता कि उनके बीच सब कुछ सही चल रहा है? मैं इसे ऐसे ही छोड़ती हूं. दूसरी खास बात यह है कि हम शब्दों के मायनों को भूल जाते हैं. जब हम यह कहते हैं कि हम इंटरफेथ संबंधों को ‘मंजूर’ करने वाले ‘सहनशील’ देश के बाशिंदे हैं, तो क्या हमें ‘सहनशील’ होने के लिए कोई अतिरिक्त अंक मिलते हैं. हमें ऐसी क्रियाओं और विशेषणों का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए जोकि पावर बैलेंस को दर्शाते हैं. किसी भी रिश्ते को, जो परस्पर सहमति से कायम किया जाता है, किसी की मंजूरी की जरूरत नहीं होती. इसलिए शांत हो जाइए.
हां, चलते-चलते, एक बात. क्या ट्विटर पर अपनी टिप्पणियां पोस्ट करने से पहले हम एक से दस तक गिनती नहीं कर सकते? इससे अड्रेनलिन का उफान शांत हो जाएगा. भई, यह साल 2020 है और हम इस आधुनिक समय में लकीर के फकीर नहीं हो सकते.
हमें फैसले सुनाने से बाज आना चाहिए. हर बीतते दिन के साथ, रोजमर्रा की जिंदगी में हमारे भीतर सहिष्णुता दम तोड़ रही है. मानवीयता के इर्द-गिर्द गूंजने वाले स्वर के प्रति हम बेपरवाह हो रहे हैं. हम वस्तुनिष्ठ नहीं, व्यक्तिनिष्ठ अनुभवों से संपन्न हैं. तो क्यों न हम, सामाजिक रिश्तों के लड़खड़ाने पर निष्कर्ष निकालने की बजाय, कुछ देर विचार करें. कम से कम, स्पष्टीकरण आने तक तो!
थोड़ा, सहनशील बनिए और सोचिए.
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