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अगर आप राजनीतिक पार्टियों का इतिहास देखें तो पाएंगे कि इन सभी के अस्तित्व की वजह कोई बहुत बड़ा अन्याय होता है. इससे फर्क नहीं पड़ता कि हम किस देश की बात कर रहे हैं. किसी भी राजनीतिक पार्टी के बनने की वजह हर जगह एक सी ही होती है.
ऐसे में मैं जब विमान में था, जहां मेरे पास करने के लिए कुछ खास नहीं था वहां मानव इतिहास में अब तक के सबसे बड़े अन्यायों के बारे में सोचने लगा. ऐसे अन्याय जो हिमालय जितने बड़े थे. चार घंटे बाद जब मेरा विमान उतरा तो मुझे अपने सवाल का जवाब मिल गया, अब तक का सबसे बड़ा अन्याय रहा है मर्दों द्वारा महिलाओं का उत्पीड़न. कुछ समय बाद मैं एक सेमिनार में गया जिसके एक सेशन में कुछ महिलाएं भी थीं, जिन्हें साफ तौर पर अन्य महिलाओं की बहुत चिंता थी. इसी वजह से वो दुनिया में होने वाली सभी घटनाओं को लिंग के आधार पर देखती थीं, यहां तक कि आसमान में मौजूद सितारों के नामकरण को देखने का उनका नजरिया भी वैसा ही था.
वो जिस तरीके से महिलाओं का बचाव कर रही थीं उससे मैं कुछ ही देर में थोड़ा खीज गया. इसलिए जब मेरी बारी आई तो मैंने उनसे पूछा कि अगर ऐसा ही है तो महिलाएं क्यों नहीं संसद, कोर्ट, सरकार और यहां तक कि फेसबुक और ट्विटर पर याचिकाएं दायर करती हैं. मैंने यह भी कहा कि महिलाओं को शादी जैसी प्रथा को भी समाप्त करवा देना चाहिए, क्योंकि जितना उत्पीड़न एक महिला का शादी के नाम पर होता है उतना कहीं नहीं हो सकता.
मेरे इन सवालों से उन्हें एक तेज झटका लगा और जब वो वापस संभली तो उन्होंने ऐसा करने से साफ मना कर दिया. जब मैंने उनसे पूछा कि आखिर क्यों नहीं, तो उसके जवाब में उन्होंने कहा कि शादी के चलते उनके जीवन की आधारभूत जरूरतें जैसे खाना, मकान और कपड़ों की समस्या हल हो जाती है. इसके बदले में ये थोड़ा सा उत्पीड़न होता क्या है?
उस कमरे में और कई ऐसे लोग थे जो इस विषय को बदलकर कुछ और बात करना चाहते थे. हालांकि उन लोगों में मेरा वो दोस्त शामिल था जो इस सेमिनार की अध्यक्षता कर रहा था और जिसने मुझे बतौर अतिथि बुलाया था, लेकिन उसे मुझे बुलाने का शायद अब पछतावा जरूर हो रहा था. इसी वजह से मैंने इस विषय को और ज्यादा नहीं खींचा.
उस दिन के बाद से मैंने कई शिक्षित विवाहित महिलाओं से यह प्रश्न किया और उन्होंने यही जवाब दिया कि शादी एक गलती थी. यहां तक कि पुरुषों ने भी यही जवाब दिया. यह जवाब देते समय सभी के चेहरों पर अलग-अलग तरह की कुटिल मुस्कान भी थी.
ऐसे में सवाल यह है दोस्तों, कि इतनी सदियों से आखिर शादी जैसा रिवाज टिका कैसे हुआ है? उससे भी बड़ा सवाल यह है कि इसे खत्म करने के लिए क्या किया जा सकता है? ऐसे में क्यों न एक ऐसी राजनीतिक पार्टी का गठन किया जाना चाहिए जो केवल लिंग के आधार पर बनाई गई हो. एक जनाना-मर्दाना राजनीतिक फाड़. इसके बनने से जो समानता समाज में आएगी वो शायद इससे पहले कभी नहीं आई हो. जाहिर है अगर आप जाति और धर्म के आधार पर पार्टियां बना सकते हैं तो लिंग के आधार पर क्यों नहीं?
मैंने यह सवाल कई पुरुषों और महिलाओं से किया. सभी ने मेरे इस सवाल को हंसी में ऐसे उड़ा दिया जैसे मैंने कोई चुटकुला सुनाया हो. लेकिन मैं इस विषय पर बहुत ही गंभीर हूं. जरा सोचिए- अगर महिलाएं खुद को पुरुषों के उत्पीड़न से बचाना चाहती हैं तो उन्हें एकजुट होकर एक राजनीतिक ताकत बनना होगा, बजाए इसके कि वो पुरुष प्रधान राजनीतिक पार्टियों की बातों में आकर अलग-अलग रहें , जिनका अधिकतर एजेंडा पुरुष प्रधान होता है. ऐसी पार्टी बनाने के कई फायदे होंगे, जिसमें से कुछ नीचे लिखे गए हैं.
1. पुरुषों द्वारा की जाने वाली प्रताड़ना पूरी तरह खत्म हो जाएगी. अगर विधानसभा में आधी महिलाएं हो जाएं तो कानून व्यवस्था का एकदम नया नजरिया देखने को मिल सकता है.
2. चुनाव के समय जाति, वर्ग और धर्म के आधार पर जो फर्जी विकल्पों के रूप में मुश्किल खड़ी होती है वो खत्म हो जाएगी. वहीं सामरिक वोटिंग भी बड़ी संख्या में खत्म हो जाएगी क्योंकि महिलाएं अधिक खुल कर वोट करेंगी.
3. एक निर्वाचन क्षेत्र की जनसांख्यिकीय संरचना भी पुरुषों की ही मदद करती है, ऐसे में अगर क्रॉस वोटिंग होती है तो उसमें भी महिलाओं को ही फायदा मिलेगा क्योंकि उन महिलाओं में बहुत ही कम होंगी जिनकी आपराधिक पृष्ठभूमि होगी. कई पुरुष भी अन्य पुरुषों को इसलिए वोट नहीं देंगे क्योंकि उन्हें पता होगा कि जो प्रत्याशी खड़ा हुआ है वो आपराधिक छवि वाला है.
4. जो राजनीतिक व्यवस्था होती है वो किसी एक व्यक्ति के सशक्तिकरण के लिए उसके पूरे समूह का सशक्तिकरण करती है. लेकिन ऐसे में जो शासन की प्रक्रिया है वो काफी जटिल हो जाती है क्योंकि फिर बहुत सारे प्रतियोगी समूह होते हैं जिसका शासन को ध्यान रखना पड़ता है. ऐसे में क्यों नहीं समाज को केवल दो हिस्सों में बांट दिया जाए, एक महिला और दूसरा अन्य.
5. जो भी सामाजिक फायदे होंगे उनका असर और अधिक व्यापक हो जाएगा क्योंकि उन्हें अलग-अलग जाति और धार्मिक समूहों तक पहुंचाने की जरूरत नहीं बचेगी. इनके अलावा मैं और भी कई फायदे गिना सकता हूं लेकिन मेरे खयाल में इतने फायदों के बाद इस विषय पर कम से कम एक चर्चा तो शुरू की ही जा सकती है.
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Published: 30 Mar 2017,04:40 PM IST