मेंबर्स के लिए
lock close icon
Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Voices Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Opinion Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019PM रहना है लंबे वक्त तक, तो विपक्ष के नेता से लीजिए सबक 

PM रहना है लंबे वक्त तक, तो विपक्ष के नेता से लीजिए सबक 

क्या कोई प्रधानमंत्री विपक्ष का नेता बनने के बाद दोबारा प्रधानमंत्री बनकर लौटा है?

राघव बहल
नजरिया
Updated:
प्रधानमंत्री अगर विपक्ष का नेता बना तो उसकी पीएम के तौर पर वापसी के आसार नहीं
i
प्रधानमंत्री अगर विपक्ष का नेता बना तो उसकी पीएम के तौर पर वापसी के आसार नहीं
(फोटो: क्विंट हिंदी)

advertisement

मैं यूं ही कुछ राजनीतिक घटनाओं को खंगाल रहा था, तभी मेरे हाथ एक चौंकाने वाली जानकारी लग गई. भारत में 14 (वैसे अगर दो बार के कार्यकारी प्रधानमंत्री गुलजारी लाल नंदा को जोड़ें तो 15) लंबे और छोटे कार्यकाल वाले प्रधानमंत्री हुए हैं.

आज के दौर के युवाओं को जल्दी से याद दिला दूं. 1947 से अब तक जवाहरलाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, मोरारजी देसाई, चरण सिंह, राजीव गांधी, वी पी सिंह, चंद्रशेखर, नरसिम्हाराव, देवेगौड़ा, इंदर कुमार गुजराल, अटल बिहारी वाजपेयी, मनमोहन सिंह और अब नरेंद्र मोदी.

क्या कोई प्रधानमंत्री विपक्ष का नेता बनने के बाद दोबारा प्रधानमंत्री बनकर लौटा है?

सिर्फ एक शख्स ऐसा करने में कामयाब हो पाया है. इंदिरा गांधी! जिन्होंने संसद में विपक्ष की नेता के बाद दोबारा प्रधानमंत्री के तौर पर वापसी की थी. (हालांकि तकनीकी तौर पर वाजपेयी भी इसी कैटेगरी में आते हैं, क्योंकि वो 1996 में 13 दिनों के लिए प्रधानमंत्री रहे फिर विपक्ष के नेता बने फिर 1998 से 2004 तक लगातार प्रधानमंत्री रहे)

इंदिरा गांधी के बेटे राजीव भी यही कामयाबी दोहराने की स्थिति में थे, लेकिन 1991 में 10 वीं लोकसभा के चुनाव प्रचार के दौरान दो चरणों के चुनाव के बीच में उनकी हत्या कर दी गई. उनकी जगह नरसिम्हा राव ने कांग्रेस सरकार की बागडोर संभाली.
राजीव गांधी प्रधानमंत्री से विपक्ष के नेता बने, पर चुनाव के ऐन पहले उनकी हत्या हो गई(फोटो: द क्विंट)

इतना कुछ पता लगने के बाद अब मेरी उत्सुकता और बढ़ गई. मैंने ये जानने की कोशिश की कि क्या प्रधानमंत्रियों को लगातार कार्यकाल का ही मौका मिलता है और एक बार पद छोड़ने के बाद वो गुमनामी में खो जाते हैं या मृत्यु हो जाती है? क्या प्रधानमंत्री रह चुका व्यक्ति के विपक्ष में जाने के बाद दोबारा प्रधानमंत्री बनने की गुंजाइश नहीं होती? तो क्या इस मामले में भारत के हालात अलग हैं या फिर यही कायदा है? मैंने दोबारा अपना ब्राउजर और गूगल में खंगालना शुरू किया.

मैं ये देखकर हैरान रह गया कि ब्रिटेन का भी हाल भारत की तरह है. ब्रिटेन ऐसा देश है जिसकी संसदीय प्रणाली को हमने जस का तस अपनाया है. वहां भी हमारी तरह की ही परंपरा है, या इसे यूं कहें कि हमने उनकी व्यवस्था की क्लोनिंग की है.

ब्रिटेन में पिछले 80 साल में सिर्फ दो प्रधानमंत्री ही ऐसे हुए हैं जिन्होंने हारकर प्रधानमंत्री पद गंवाया और विपक्ष के नेता बने, लेकिन चुनाव में जीतकर दोबारा प्रधानमंत्री पद पर काबिज हुए. विन्सटन चर्चिल और हेराल्ड विल्सन. इनमें विन्सटन चर्चिल ज्यादा मशहूर हुए.

इंदिरा गांधी और विन्सटन चर्चिल में क्या समानता है?

इंदिरा गांधी की उतार-चढ़ाव वाली राजनीतिक यात्रा आमतौर पर देश के ज्यादातर लोगों को मालूम है. जब 1966 में इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री पद पर बैठाया गया था तो कांग्रेस के खांटी नेताओं की नजर में वो गूंगी गुड़िया थीं. लेकिन उन्होंने अपने तेवरों ने सबको हैरान कर दिया. वो गरीबी हटाओ से लेकर बैंकों के राष्ट्रीयकरण और राजा महाराजाओं को मिलने वाला मुआवजा खत्म करने वाली तेज तर्रार नेता बनीं और फिर पाकिस्तान के टुकड़े करके 1971 में अलग बांग्लादेश बनाकर मां दुर्गा के अवतार कहे जाने की ऊंचाई तक पहुंच गईं.

लेकिन हालात पलटे और 1975 में आपातकाल लगाने की वजह से उन्हें तानाशाह के ताने मिले. 1977 में बुरी तरह हार के बाद शाह कमीशन की जांच के दौरान देश ने उनके जुझारू तेवर भी देखे और 1980 में सत्ता में वापसी के साथ दोबारा प्रधानमंत्री पद पर काबिज हुईं.  इस तरह देश ने इंदिरा गांधी के तमाम रूप देखे.
इंदिरा गांधी ने सत्ता से विपक्ष और फिर सत्ता में धमाकेदार वापसी की (फोटो: द क्विंट)

इंदिरा गांधी की 1984 में सिख अंगरक्षकों ने गोलियों से हत्या कर दी गई. (ऑपरेशन ब्लूस्टार के बदले में) इस तरह उनका राजनीतिक अफसाना घटनाओं से भरा रहा.

सर विन्सटन लियोनार्ड स्पेंसर चर्चिल की कहानी भी बड़ी गजब है. उनका जन्म धनी और शानोशौकत वाले परिवार में हुआ था भारत के हिसाब से कहा जाए तो जमींदार परिवार में हुआ था. उनकी मां अमेरिकी थीं यानी वो आधे अमेरिकी थे. वो वाकई जंग के मैदान में उतरने वाले सैनिक थे, ब्रिटिश भारत में उन्होंने युद्ध के मैदान में हिस्सा लिया था. फिर वो युद्ध संवाददाता और लेखक भी रहे. उन्होंने बड़े राजनीतिक पद संभाले व्यापार बोर्ड के प्रेसिडेंट से गृहमंत्री तक. राजकोष(एक्सचेकर) के चांसलर के तौर पर 1925 में उन्होंने स्टलिंग को गोल्ड स्टैंडर्ड से जोड़ दिया. माना जाता है इसी वजह से बिट्रेन में मंदी आई.

चर्चिल 1930 के दशक में राजनीतिक तौर पर अलग-थलग रहे लेकिन बीच बीच में दुनिया को नाजी जर्मनी के खतरे की चेतावनी देते रहे. 1940 में चर्चिल ने धमाकेदार जीत हासिल की और ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बने और हिटलर के खिलाफ आक्रामक तरीके से युद्ध का संचालन किया.

विडम्बना देखिए जब ग्रेट ब्रिटेन युद्ध में जीत गया तो उन्हें युद्धोन्मादी करार दिया गया और वो 1945 में लेबर पार्टी के क्लेमेंट एटली से चुनाव हार गए. इसके बाद 1945-51 के बीच विपक्ष के नेता रहे लेकिन राजनीतिक कामकाज से उनका ध्यान उचाट ही रहा. बल्कि उन्होंने सारा ध्यान अपने संस्मरण लिखने में लगा दिया जिसके लिए 1953 में उन्हें साहित्य का नोबल पुरस्कार भी मिला.

लेकिन वो फिर प्रधानमंत्री बने हालांकि स्ट्रोक की वजह से उन्होंने 1955 में पद छोड़ दिया, फिर भी 1964 तक वो सांसद बने रहे.

2019 में नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी के लिए सबक क्या है?

तो लब्बोलुआब ये है कि पिछली सदी की सिर्फ दो हस्तियां विंस्टन चर्चिल और इंदिरा गांधी ही राजनीतिक ऊबड़ खाबड़ रास्तों से होती हुई सत्ता से विपक्ष और फिर सत्ता तक पहुंच पाईं. शायद उनमें दुस्साहस, लचीलेपन, रणनीतिक व्यवहारिकता जैसे खूबियां थीं या फिर कहें कि वो किस्मत वाले थे.

क्या ये ऐसी गिनी चुनी राजनीतिक घटना है, या फिर क्या इसमें 2019 के प्रधानमंत्री पद के दावेदारों नरेंद्र मोदी या विपक्ष के नेता राहुल गांधी के लिए कोई आकाशीय संदेश छिपा है?

पिछली सदी की सिर्फ दो हस्तियां विंस्टन चर्चिल और इंदिरा गांधी ही राजनीतिक ऊबड़ खाबड़ रास्तों से होती हुई सत्ता से विपक्ष और फिर सत्ता तक पहुंच पाईं(फोटो: Simon Dawson/Bloomberg)

हां, निश्चित तौर पर आने वाले महाभारत (2019 लोकसभा चुनाव) के लिए में दोनों तरफ के योद्धाओं के लिए एक आकाशवाणी है. वो ये है कि ऐसा नेता जिसमें विपक्ष का नेता बनने के डीएनए हों, अगर वो एक बार प्रधानमंत्री बन गया तो फिर दोबारा विपक्ष का नेता नहीं बन सकता.

ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

प्रधानमंत्री को हमेशा विपक्ष के नेता की तरह क्यों रहना चाहिए, 5 वजह:

1- जैसे ही विपक्ष का नेता प्रधानमंत्री बनता है उसे नौकरशाह घेर लेते हैं. आईएएस लॉबी पूरी तरह से प्रधानमंत्री की ऐसी घेराबंदी कर लेती है कि स्वतंत्र विचार रखने वाले और प्रोफेशनल्स से उनका नाता पूरी तरह कट जाता है. वो अभेद्य सुरक्षा कवच में घिर जाता है. प्रधानमंत्री पद पर खतरा इतना ज्यादा होता है कि इतनी सुरक्षा और अलग-थलग पड़ना एक हद तक जायज है. वो रायसीना हिल के सिंहासन से बंध जाता है और औपचारिक समारोहों और परंपराओं में ऐसा घिर जाता है कि उसका ज्यादातर वक्त और ध्यान उसी में लगा रहता है.

प्रधानमंत्री ऐसे में एक्शन लेने का सही वक्त और व्यापक फीडबैक नहीं ले पाता.

2- ज्यादातर आलोचना विरोधी के हिस्से में आती है इसलिए विपक्ष के नेता के तौर पर वो आलोचकों से मेल-जोल रख पाता है. वो मुसीबत का मुकाबला करने के लिए नए आइडिया अपना सकता है. उदाहरण के तौर पर सरकारी बैंकों को मजबूत करने के लिए हाइब्रिड वित्तीय तरीकों का इस्तेमाल या अमेरिकी या चीनी कंपनियों से मुकाबले के लिए आधुनिक कॉरपोरेट ढांचे में भारतीय व्यवस्था में डिजिटल एंटरप्रेन्योर के पनपने की व्यवस्था सुनिश्चित करने जैसे आइडिया रखना.

इन तमाम बातों से विपक्ष के नेता को सरकार पर हमला करने और उसकी आलोचना करने का मसाला मिलता है. वो प्रधानमंत्री की तुलना में संपादकीय और आलोचनाएं सीधे पढ़ता है. जबकि प्रधानमंत्री तक अफसर ये तमाम जानकारी संक्षिप्त रूप से बनाकर देते हैं. 

3- विपक्ष का नेता आमतौर पर कमर्शियल एयरलाइंस से यात्रा करता है, उसका काफिला सामान्य ट्रैफिक से गुजरता है, वो ट्रैफिक जाम का सामना भी करता है, उसकी नजर सड़कों में लोगों की परेशानी और झुंझलाहट पर भी पड़ती है. वो एक वास्तविक दुनिया में रहता है, जहां सबकुछ परफेक्ट नहीं है. जबकि प्रधानमंत्री का हाल उलट है. वो ऐसी दुनिया में रहता है जहां सब कुछ व्यवस्थित है सड़कें एकदम खाली हैं, आम लोगों से कोई वास्ता नहीं है. प्रधानमंत्री हकीकत से दूर हो जाता है.

4- विपक्ष का नेता एक तरह से तमाम नेताओं और कार्यकर्ताओं का दोस्त होता है. वो ऐसा जनरल होता है जिसका सैनिकों से मजबूत रिश्ता होता है क्योंकि लड़ाई में उसे उनकी जरूरत होती है. लेकिन प्रधानमंत्री का मामला अलग है वो सुरक्षा घेरे में रहता है और सब कुछ दूर से कंट्रोल करता है. उनके पास ना तो सहयोगी पहुंच पाते और ना ही सामान्य कार्यकर्ता. इसके ज्यादा बुरी बात ये होती है जब तक कोई हार करारा झटका ना दे तब तक प्रधानमंत्री को यही लगता है कि राज सत्ता पर उसका हमेशा के लिए अधिकार है.

आखिरी में विपक्ष के नेता के पास हमेशा नकदी और संसाधनों की कमी होती है. उसके पास सरकारी ताकत नहीं होती. उसके पास अपने साथियों को ज्यादा अधिकार देने और साधनों का कंजूसी से इस्तेमाल करने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता. 

लेकिन प्रधानमंत्री एक तरह से भरा हुआ जलाशय है तो वो छोटी राजनीतिक लड़ाई में भी तटबंध तोड़ सकता है. किसी भी तरह की चुनौती या आलोचना के लिए उसका जवाब प्रतिशोध या बदले की कार्रवाई भी हो सकती है. वो सत्ता की वजह से मिले गुप्त राज का इस्तेमाल कर सकता है, संचार व्यवस्था का उपयोग कर सकता है, कमजोर को घुटनों के बल चलने को मजबूर कर सकता है.

ये नुकसानदेह आदतें हैं. कई बार मिल बैठकर समझौता और चर्चा के बजाए वो धमकाकर झुकाने पर यकीन करने लगता है. ऐसे में वो लचीला होने के बजाए अहंकारी और अड़ियल हो जाता है.

ऐसे में वो झुकने या विनम्र होने की बजाए विन्सटन चर्चिल या इंदिरा गांधी की याद दिलाने लगते हैं.

लेकिन जो प्रधानमंत्री विपक्ष के नेता के तौर पर अपने दिनों को याद रखता है वो प्रधानमंत्री के तौर पर अपनी स्थिति बरकरार रखने में कामयाब हो जाता है – संसदीय लोकतंत्र के सर्वोच्च पद की यही तो खास बात है.

ये भी पढ़ें- राहुल गांधी, सीताराम केसरी की 20 साल पुरानी गलती से क्या सीखें

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

अनलॉक करने के लिए मेंबर बनें
  • साइट पर सभी पेड कंटेंट का एक्सेस
  • क्विंट पर बिना ऐड के सबकुछ पढ़ें
  • स्पेशल प्रोजेक्ट का सबसे पहला प्रीव्यू
आगे बढ़ें

Published: 26 Feb 2018,06:32 PM IST

ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT