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कहते हैं सभी अच्छी चीजों का एक-न-एक दिन अंत होता ही है. इसी तरह शनिवार 3 मार्च को प्रधानमंत्री मोदी के बहुचर्चित मुहावरे या जुमले “अच्छे दिन” के अंत की शुरुआत हो गई है. त्रिपुरा में बीजेपी की जबरदस्त जीत ने प्रधानमंत्री को चुनावी राजनीति में निर्णायक जीत तो दे दी पर उससे आगे का रास्ता आसान नहीं. हालांकि प्राइम टाइम टीवी न्यूज चैनलों पर इसके विपरीत मोदी के पक्ष में बड़े-बड़े कसीदे पढ़े जा रहे हैं पर वे नहीं समझ पा रहे हैं कि आने वाले दिनों में यह “अच्छे दिन” इतिहास के पन्नों में सिमट कर रह जाएंगे.
यूं देखा जाए तो इस बड़ी जीत के उत्सव में मेरी बातें हास्यास्पद मालूम हो सकती हैं. टीवी न्यूज चैनल आज मई 2014 के उस दौर की याद दिला रहे थे जब देश के चार बटे पांचवे हिस्से में फैले युवा वोटर मोदी मास्क लगाए या भगवा रंग में रंगे हुए सपनों की नई उड़ान में झूम रहे थे. पर आज वही हिस्सा खामोशी से शांतिपूर्ण विद्रोह करता दिख रहा है और इसी समय देश के पूर्वोत्तर सीमा पर स्थित एक बहुत छोटा राज्य त्रिपुरा उसी भगवा सपने को जीने की कोशिश में एक नई जीत का जश्न मना रहा है.
“अच्छे दिन” की उम्मीद में शनिवार को अगरतला की सड़कों पर युवा वोटर ढोल-बाजे के साथ झूमते नजर आ रहे थे. एक ओर मुख्यमंत्री माणिक सरकार और लेफ्ट को यथास्थितिवादी मानते हुए बाहर का रास्ता दिखा दिया गया. वहीं आमूल-चूल बदलाव की उम्मीद में वोटर, प्रधानमंत्री मोदी और बीजेपी का जोरदार स्वागत कर रहा है. नई उम्मीद, नई उमंग के रेले में आज वाम दलों का एक और गढ़ ढह गया. इसमें दो राय नहीं कि दशकों तक अपराजेय लेफ्ट के गढ़ त्रिपुरा में बीजेपी की यह जीत एक बड़ी राजनैतिक सफलता है. इसलिए किसी को इस बात का भी ऐतराज नहीं होना चाहिए कि मोदी और बीजेपी के लिए यह एक जश्न का समय है.
अगर आपको याद हो तो सिर्फ साल भर पहले मोदी-शाह और बीजेपी ने अपनी राजनीति और बूथ मैनेजमेंट स्किल के बल पर यूपी को शानदार अंदाज में फतह किया था. तब नोटबंदी के रूप में मोदी की एक साहसी बाजी ने उसमें बड़ी भूमिका अदा की थी. अमीरों के खिलाफ एक बड़े अभियान के रूप में आम लोगों ने इसे बेहद पसंद किया और तमाम दिक्कतों के बावजूद भरपूर समर्थन भी दिया. तमाम राजनीतिक पंडितों व मोदी भक्तों की नजर में मोदी और बीजेपी का कोई और राजनीतिक विकल्प नहीं बचा था. इन सब के बीच यह बात पूरी तरह से दरकिनार कर दी गई कि यूपी में दर्ज जीत हिंदी हार्टलैंड पर मोदी की लोकप्रियता की सबसे ऊंची सीढ़ी है. वे यहां इस बात को भूल गए कि उससे आगे जाने के लिए कोई सीढ़ी नहीं, और यहां से नीचे की ही यात्रा शुरू होती है.
क्या त्रिपुरा में बीजेपी की शानदार जीत देश के अंतिम अजेय हिस्से पर जीत का क्लाइमेक्स नहीं है? शायद ही ऐसा कोई क्षेत्र बचा है जिस पर प्रधानमंत्री अपना अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा दौड़ा सकें. अब उन्हें अपने पुराने क्षेत्रों में ही घोड़े छोड़ने होंगे और उन्हें अब अपने ही द्वारा दर्ज रिकॉर्ड से मुकाबला करना होगा. दुर्भाग्य से यह क्षेत्र अब उनके लिए बेहद दुर्गम हो गए हैं क्योंकि यहां वोटरों की पुरानी उम्मीदें ही नहीं पूरी हुई है. अब मोदी के सामने उनकी मांग-ही-मांग है, सवाल ही सवाल है और उनसे आगे विरोधियों की एक बड़ी फौज उनपर आक्रमण करने के लिए तैयार बैठी है.
प्रधानमंत्री मोदी अच्छी तरह जानते हैं कि प. बंगाल, उड़ीसा और तमिलनाडु की अपेक्षा त्रिपुरा एक बहुत छोटा राज्य है. उधर, जहां तमिलनाडु की राजनीति एकदम अलग है वहीँ प. बंगाल और उड़ीसा का क्षेत्र त्रिपुरा से बहुत अन्तर नहीं रखता. इन राज्यों में अमूल-चूल बदलावों के नारों के बूते वे अपने विपक्षियों को हरा सकने की ताकत रखते हैं, पर अपने तमाम प्रयासों के बावजूद गए चार सालों में बीजेपी और वे अबतक वहां ज्यादा-कुछ करने में सफल नहीं रहे हैं. इसलिए त्रिपुरा की शानदार जीत 2019 के उनके अभियान में ज्यादा योगदान करने में समर्थ नहीं दिखती.
त्रिपुरा के इस चुनाव में साझेदार बीजेपी और त्रिपुरा की आईपीएफटी (इंडीजीनियस पीपल फ्रंट ऑफ त्रिपुरा) एकदम धुर विरोधी दल हैं. एक ओर जहां बीजेपी भारत को एक राष्ट्रीय इकाई के रूप में देखती है वहीं आईपीएफटी आदिवासियों के लिए एक स्वायत्त राज्य की आकांक्षा से उत्पन्न दल है. जम्मू-कश्मीर और दार्जीलिंग में धुर-विरोधी विचारधाराओं व दलों पीडीपी और गोरखा से समझौता कर मझधार में फंसी बीजेपी ने एक और बड़ी राजनैतिक क्षति की ओर कदम बढ़ाया है. मूलतः सिर्फ तात्कालिक जीत के लिए किए गए इन अव्यावहारिक समझौतों के कारण बीजेपी 2019 के चुनाव में एक बड़े नुकसान की ओर बढ़ रही है.
अनेक कारणों से पूर्वोत्तर के क्षेत्रीय दलों की राजनीति बहुत व्यवहारवादी है और देश के अन्य भागों को भ्रमित करती है. वे लोग प्रायः केंद्र में शासित दलों के पक्ष में होते हैं. इसलिए वहां के राजनैतिक दलों की राजनीति पर भरोसा नहीं किया जा सकता. केंद्र में सत्ता बदलते ही वहां के विधायक दल बदलने में देर नहीं करते. पूर्वोत्तर की भाषा में इसे व्यवहारवादी रणनीति माना जाता है. हाल के वर्षों में केंद्र में शासन करने वाला दल भी इन्हें अपने साथ लेने में देर नहीं करता. इस तरह देखें तो आज की जीत ऊपर से बहुत मजबूत दिख रही है पर भविष्य में ये बहुत विनाशकारी भी साबित हो सकती है.
जनतांत्रिक राजनीति संख्या बल व बहुमत का खेल है. इसलिए यह नहीं भूलना चाहिए कि संख्या बल में थोड़े उल्टफेर से सारा गणित उल्टा पड़ सकता है.
जरा कुछ आंकड़ों पर गौर करें:
50 लाख या एक करोड़? देखें इनमें कौन बड़ा है? 11 मार्च को होने वाले यूपी के फूलपुर और बिहार के अररिया संसदीय सीटों सहित कुछ अन्य विधानसभा उपचुनावों के नतीजों का इंतजार करें. सब समझ में आ जाएगा. इसलिए यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं कि आम लोगों के लिए “अच्छे दिन” का जुमला “आशाओं की लाश” मात्र है. प्रधानमंत्री के सामने आज सबसे बड़ी चुनौती बीजेपी के खेमे से गायब वोटरों के लिए एक नए जुमले (मुहावरे) की तलाश है. ऐसे में उत्सव के लिए थोड़ा इंतजार लाजिमी ही होगा!
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