advertisement
कुछ साल पहले तक गिने-चुने भारतीय आत्मकथा लिखते थे. तब इसे ‘अश्लील’ काम माना जाता था. उसके बाद देश में अमेरिका और ब्रिटेन के बड़े पब्लिशर्स आए. वो जिन लोगों को ‘इंपोर्टेंट’ मानते थे, उन्होंने उनसे लिखवाने के लिए मोटा एडवांस देना शुरू किया. धीरे-धीरे बाजार में आत्मकथाओं की संख्या बढ़ने लगी.
अब तो इसकी बाढ़ आ गई है. इसी के साथ बड़ी संख्या में ऑफिशियल हिस्ट्री लिखवाने के एग्रीमेंट भी हुए. चाहे पॉलिटिकल पार्टियां हों या आरबीआई जैसे संस्थान या प्राइवेट कंपनी या सिर्फ नमक बनाने वाली कोई आधिकारिक एजेंसी, सब अपनी कहानी बताने को बेताब हैं.
यह अच्छी बात है, जिसे लेकर काफी समय से हिकारत का भाव बना हुआ था. हो सकता है कि ऑफिशियल स्टोरी न बताने के अपने कुछ फायदे होते हों, लेकिन इससे आने वाली पीढ़ियों को यह पता नहीं चल पाता कि किसी घटना की सच्चाई क्या थी. मिसाल के लिए, जब तक उर्जित पटेल अपनी आत्मकथा नहीं लिखते, तब तक हमें पता नहीं चलेगा कि उस समय क्या हुआ था, जब उनसे 500 और 1,000 रुपये के नोटों को अमान्य घोषित करने के बारे में पूछा गया था.
मैंने आरबीआई की ऑफिशियल हिस्ट्री के वॉल्यूम 3 और 4 में मदद की है, इसलिए मैं भरोसे के साथ आपको बता सकता हूं कि रियल स्टोरी तो ऑफिशियल वर्जन में कहीं खो जाती है.
मिसाल के लिए, एक पूर्व राजस्व सचिव ने एक बार मुझे बताया था कि पाकिस्तान के साथ संपत्ति के बंटवारे की फाइल उन्हें अपने रूम के कॉरिडोर में मिली थी. मैं यह भी जानता हूं कि आरबीआई ने जब डीवैल्यूएशन (अवमूल्यन यानी रुपये की वैल्यू कम करना) के आदेश वाली चिट्ठी ढूंढने की कोशिश की, तो वह वित्त मंत्रालय में अंडर सेक्रेटरी के कमरे की आलमारी के ऊपरी खाने में मिली.
मुझे लगता है कि एक तरह से हम अब भी मौखिक परंपरा में विश्वास रखते हैं, जिसमें समय के साथ सच बदलने का जोखिम होता है. 25 साल में ज्यादातर ऐतिहासिक घटनाएं मिथक लगने लगती हैं. अरुण शौरी ने इतिहास और इतिहासकारों पर लिखी किताब में इस बात को बखूबी पेश किया है.
एक और समस्या होती है, जब लोगों को एक तरफ ऑफिशियल हिस्ट्री या ऑफिशियल बायोग्राफी और दूसरी तरफ संस्मरण में लिखी गई बातों के बीच संतुलन बनाना होता है. किस वर्जन पर भरोसा किया जाए? 1983 की एक घटना ऐसी ही है, जब मनमोहन सिंह आरबीआई गवर्नर थे और प्रणब मुखर्जी वित्त मंत्री.
यहां मैं खुर्शीद कसूरी की बायोग्राफी के बारे में एक जोक का जिक्र करना चाहूंगा. जोक यह था कि इसमें पाकिस्तान की ‘बेकसूरी’ साबित करने की कोशिश की गई थी. दरअसल, यह ऑफिशियल वर्जन था, जिसे संस्मरण के तौर पर पेश किया गया था. इसलिए यह संस्मरण और ऑफिशियल हिस्ट्री, दोनों ही लिहाज से किसी काम का नहीं रहा.
जब मैं आरबीआई के इतिहास के वॉल्यूम 4 में मदद कर रहा था, तब एडवाइजरी कमेटी के चेयरमैन विमल जालान थे. उन्होंने ‘फतवा’ दिया कि सिर्फ तथ्यों की जानकारी दी जाए और उनकी वजह न बताई जाए. मैं विरोध में प्रोजेक्ट से अलग हो गया. उसकी वजह यह थी कि इस वॉल्यूम के केंद्र में 1991 का भुगतान संकट था और उससे एक साल पहले जालान साहब वित्त सचिव थे. मुझे ऐसा लगा कि वह आरबीआई के इतिहास को उसके एनुअल रिपोर्ट की तरह पेश करना चाहते थे. वह यह नहीं बताना चाहते थे कि यह संकट किस वजह से खड़ा हुआ था.
जब जयराम रमेश ने इस क्राइसिस का अपना वर्जन पेश किया, तब मेरे मन में एक आशंका पैदा हुई. क्या वाकई उस संकट से बचाने में रमेश की वह भूमिका थी, जिसका वह दावा कर रहे थे? मुझे किसकी बात पर ऐतबार करना चाहिए, आरबीआई या वित्त सचिव और दूसरों की बात पर, जो वाहवाही लूटने की कोशिश कर रहे थे.
ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है. मौलाना आजाद के ‘इंडिया विन्स फ्रीडम’ से लेकर ‘माउंटबेटन की डायरीज’, वीपी मेनन के संस्मरण से लेकर एलनन कैंपबेल-जॉनसन की माउंटबेटन के प्रेस सेक्रेटरी रहने के दौरान की डायरी, बीएन टंडन की इमरजेंसी डायरीज से लेकर पीएमओ के बारे में टीवी राजेश्वर के संस्मरण तक और न जाने क्या-क्या.
किसी घटना की सही तस्वीर लोगों तक पहुंचाने के लिए क्या किया जाना चाहिए? इसका सबसे आसान तरीका 10 साल में फाइलों को रिलीज करके उसके एडिटेड वर्जन लाने का है. ब्रिटिश सरकार ने सत्ता सौंपते वक्त यही किया था. इसका पहला वॉल्यूम 1960 के दशक के अंत में आया था. ऐसे कुल 12 वॉल्यूम हैं. इनसे हमें 1942 से 1947 के बीच जो भी हुआ, उसकी मुकम्मल तस्वीर का पता चलता है. गृह, विदेश और वित्त मंत्रालय की फाइलों के साथ ऐसा ही किया जाना चाहिए, जिन्हें हासिल करना बहुत मुश्किल है.
(लेखक आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों पर लिखने वाले वरिष्ठ स्तंभकार हैं. इस आलेख में प्रकाशित विचार उनके अपने हैं. आलेख के विचारों में क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)