advertisement
तुर्की की राजधानी अंकारा में भारतीय दूतावास सिन्ना कैडेसी या ‘जिन्ना रोड’ पर है- ये महज एक संयोग नहीं है, जैसा कि तुर्की के साथ कभी होता भी नहीं है.
याद रखें कि तुर्की दुनिया का इकलौता देश (सऊदी अरब या चीन भी नहीं) था जिसने ग्लोबल टेरर निगरानी एजेंसी, फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स (FATF) द्वारा पाकिस्तान को ‘ग्रे लिस्ट’ में रखने का विरोध किया था.
तुर्की (Türkiye) के राष्ट्रपति रजब तय्यब एर्दोगान संयुक्त राष्ट्र महासभा में बार-बार कश्मीर और फिलिस्तीन का मुद्दा उठाने वाले इकलौते नेता (पाकिस्तानियों के अलावा) हैं.
मुस्तफा कमाल अतातुर्क के दौर के बाद ‘पाशा’ (मुस्तफा कमाल अतातुर्क- जिन्हें तुर्कों के पिता की उपाधि दी गई थी) की शान को कायम रखने के लिए जूझ रहा तुर्की, एक झगड़ालू, असुरक्षित और अशांति से भरे देश की पहचान हासिल करने की तरफ बढ़ने लगा था.
विडंबना ये है कि तुर्की और पाकिस्तान, दोनों ऐसे देश बन चुके हैं जिन्हें उनके निर्माताओं को भी आज पहचानना मुश्किल होगा, और जिनकी खुली और बेहूदा मजहबपरस्ती उनकी खुद की संवेदनाओं के खिलाफ है.
ठीक वैसे ही जैसे मोहम्मद अली जिन्ना या कायदे-आजम (राष्ट्रपिता) को निश्चित रूप से लंबे नाम के साथ अंदर से बीमार हो चुके देश को कुबूल करने में बहुत मुश्किल होगी, जो संविधान सभा में दी उनकी तकरीर में बिल्कुल फिट नहीं बैठता है (“...आप आजाद हैं अपनी इबादगाहों में जाने के लिए…”). देश का नाम अकेले लफ्ज ‘पाकिस्तान’ से बदलकर ‘इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ पाकिस्तान’ किया जा चुका है. इस बात का तो जिक्र ही न कीजिए कि इसके पास आधे से भी कम (मतलब बांग्लादेश) जमीन और लोग बचे हैं, जिसके बारे जिन्ना को पता था कि ऐसा होगा.
दोनों देश विश्व मंच पर अपने शुरुआती नाटकीय आगमन के बाद नाकाम रहे हैं, लेकिन जैसा कि पाकिस्तान गंभीर समस्याओं और नाकामियों के साथ अस्तित्व के गंभीर संकट से जूझ रहा है– तुर्की के पास अपेक्षाकृत फल-फूल रही अर्थव्यवस्था, राजनीति में रुतबा, ‘आवाज’ और वैश्विक व्यवस्था पर असर है जो अभी भी सरदार है. और इस वजह से तुर्की एक बेमजा सड़ी हुई डिश है जो उसके खौफनाक रजब तय्यब एर्दोगान द्वारा लगातार परोसी जा रही है.
एर्दोगान दोनों तरफ चलने की नापाक कला का सहारा लेते हैं– एक नाटो ‘सहयोगी’ (इंसर्लिक एयर बेस में परमाणु हथियार बेस सहित) देश के रूप में एर्दोगान नियमित रूप से ‘पश्चिम’ के साथ हैं और भले ही रूस-यूक्रेन युद्ध के साथ शीत युद्ध लौट आया है, S-400 मिसाइल सिस्टम जैसे मारक रूसी हथियार खरीदने से भी गुरेज नहीं करते हैं.
तुर्की रूस के खिलाफ पाबंदियों में शामिल नहीं होने वाला इकलौता नाटो (NATO) देश है– इसके पीछे नैतिकता, विचारधारा या सही-गलत की भावना नहीं थी, बल्कि तुर्की के मनमर्जी एर्दोगान की पुराने जमाने की खालिस राजनीति थी.
ये एक अतिवादी रुख है जिसे सऊदी अरब, जॉर्डन, संयुक्त अरब अमीरात, कुवैत जैसे दूसरे इस्लामी देशों तक ने नहीं अपनाया है, जो मौजूदा तनाव के लिए इजरायल को जिम्मेदार तो ठहरा रहे हैं, लेकिन निश्चित रूप से हमास को क्लीन चिट नहीं दे रहे हैं.
लेकिन चालाक एर्दोगान सोच-समझकर और जानबूझकर ऐसा कर रहे हैं, यह जानते हुए कि इससे उम्माह (इस्लामी संसार) में उनकी खुद की छवि को फायदा होगा– यह योजना उन्होंने उम्माह के भीतर सऊदी अरब जैसे प्रतिद्वंद्वी से नेतृत्व छीनने और हड़पने के लिए बनाई है.
ऐसा करते हुए एर्दोगान ने सऊदी अरब के प्रभाव को कम करने के लिए शिया ईरान और वैसे ही झक्की कतर के शेख के शासन के खिलाफ एक साझा मोर्चा बनाने के लिए सांप्रदायिक खाई को पाट दिया है. इस मकसद में हमास, हिजबुल्लाह या यहां तक कि निर्विवाद रूप से आतंक की ‘नर्सरी’ पाकिस्तान जैसे अस्थिर देश में आतंकवादी गुटों का समर्थन करने का कोई भी ‘अलग’ कारण अति महत्वाकांक्षी रजब एर्दोगान के लिए सामान्य बात है.
ये सबको मालूम है कि हमास सलाफी-वहाबी मुस्लिम ब्रदरहुड की एक शाखा है. मुस्लिम ब्रदरहुड को अल कायदा, हमास जैसे आतंकवादी समूहों को फाइनेंस करने के लिए जाना जाता है. इसने ‘अरब स्प्रिंग’ के रूप में श्रृंखलाबद्ध अशांति फैलाई थी और इसके नतीजे में इसे इजिप्ट, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन वगैरह देशों में एक आतंकवादी संगठन के तौर पर प्रतिबंधित कर दिया गया है, लेकिन तुर्की ने ऐसा नहीं किया, जो इसके मकसद और बुनियादी ढांचे का समर्थन करना और इसे कानूनी मान्यता देना जारी रखे हुए है.
कुछ और लोगों की तरह रजब तय्यब एर्दोगान घरेलू और विश्व स्तर पर ध्रुवीकरण और नौटंकी की कला में महारत हासिल है.
NATO और OIC (इस्लामिक देशों का संगठन) में एक ट्रोजन हॉर्स (काठ का विशाल घोड़ा जिसमें छिप कर यूनानी सैनिक ट्रॉय में घुसे थे) से लेकर चालाकी और छल के मेल के साथ तैयार की चुनावी अपील बुरी तरह सिकुड़ती अर्थव्यवस्था, तुर्की की डूबती करंसी लीरा, और कुर्दों के साथ तनाव के बावजूद अविश्वसनीय रूप से उन्हें बचा लेती है.
निरंकुश एर्दोगान सिर्फ अपनी ‘आवाज’ और पर्सनालिटी को बड़ा करने के लिए किसी शख्स के खिलाफ, जब वह अपने सबसे कमजोर या सबसे नाजुक लम्हे में होता है, नैरेटिव बनाने उसे बदनाम करने और भड़काने के खेल में महारत हासिल कर चुके हैं.
इस तरह की संदिग्ध और कूटनीतिक चालों से एर्दोगान को वैश्विक संघर्षों, जैसे कि हमास, हिजबुल्लाह, पाकिस्तान जैसे दुष्टों या यहां तक कि व्लादिमीर पुतिन जैसों से सौदेबाजी या दखलअंदाजी का अधिकार मिलता है, हालांकि इसका इस्तेमाल शायद ही कभी किसी अच्छे मकसद के लिए किया जाता है.
अतातुर्क उस देश की किस्मत को लेकर अपनी कब्र में सोच रहे होंगे जिसने कभी उम्माह के साथ-साथ विश्व मंच पर इतने ढेर सारे विचारों और संभावनाओं को प्रेरित और नेतृत्व किया था.
अतातुर्क के सबसे मशहूर उद्धरणों में से एक है, “अगर आप किसी दिन खुद को बेबस पाएं, तो बचाने वाले के आने का इंतजार न करें, खुद का बचाव करने वाला बन जाएं." यह तुर्कों के लिए हमेशा एक खरा और प्रासंगिक संदेश है कि एर्दोगान को हटाने के लिए अपने अतातुर्क या पाशा की बात पर ध्यान दें– तब तक बाकी दुनिया को एर्दोगान नाम के शख्स और उसके नए बनाए तुर्की की टुच्ची, पुरातनपंथी और टांग खींचने वाली राजनीति को बर्दाश्त करना होगा.!
(लेखक अंडमान और निकोबार द्वीप समूह और पुडुचेरी के पूर्व उपराज्यपाल हैं. यह लेखक के निजी विचार हैं. द क्विंट न तो इसका समर्थन करता है न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)
Published: undefined