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दो घटनाएं, जो बिखरते परिवारों की कहानी कहती हैं

बीते कुछ दिनों की दो ऐसी घटनाएं जिन्होंने परिवार और बिखरते रिश्तों के दर्द को सामने ला दिया

डॉ. अरुण कुमार
नजरिया
Published:
प्रतीकात्मक फोटो: बूढ़े माता-पिता की अनदेखी शहरी जिंदगी का सच बन रही है
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प्रतीकात्मक फोटो: बूढ़े माता-पिता की अनदेखी शहरी जिंदगी का सच बन रही है
(द क्विंट)

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इधर दो घटनाओं ने बहुत विचलित किया. पहली घटना की खबर बिहार से मिली कि बक्सर के जिलाधिकारी मुकेश पांडेय ने दिल्ली में आत्महत्या कर ली. उन्होंने अपने सुसाइड नोट में पत्नी और माता-पिता के बीच के झगड़े को मुख्य वजह बताया है. मुकेश पांडेय 2012 बैच के भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी थे और जिलाधिकारी के रूप में उनकी पहली पोस्टिंग थी.

अभी कुछ ही महीने पहले बड़ी ही धूमधाम से उनकी शादी हुई थी. दूसरी घटना की खबर मुम्बई के सबसे पॉश इलाके लोखंडवाला से आई, जहां एक 63 वर्षीय बुजुर्ग महिला आशा साहनी अपने फ्लैट में मृत मिलीं. पुलिस के अनुसार महिला की मृत्यु कई सप्ताह पहले हो गयी थी, क्योंकि उनकी लाश पूरी तरह गली हुई थी.

महिला अपने फ्लैट में अकेली रहती थीं और उनका बेटा अमेरिका में सॉफ्टवेयर इंजीनियर है. उनके बेटे ने बताया कि अंतिम बार अप्रैल 2016 में मां से फोन पर बात हुई थी.

ये दोनों घटनाएं ऊपर से अलग-अलग भले ही दिखाई देती हों, लेकिन इनके मूल में भारतीय परिवारों में आ रही विकृतियां जिम्मेदार हैं.

पहली घटना में मुकेश पांडेय अपने परिवार को जोड़कर रखना चाहते हैं, जिसमें पत्नी के लिए भी जगह है तो बुजुर्ग माता-पिता के लिए भी. दूसरी घटना में एक इंजीनियर बेटा अपनी 63 वर्षीय मां को अकेला छोड़कर अमेरिका चला जाता है. आम मध्यवर्गीय परिवारों में यह विकृति महामारी की तरह फैलती जा रही है.

परिवार की संरचना ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ से सिकुड़ती हुई संयुक्त परिवार तक और अब न्‍यूक्‍ल‍ियर फैमिली तक पहुंच गई है. अब न्‍यूक्‍ल‍ियर फैमिली में बुजुर्गों के लिए जगह बची नहीं है.

बहुत पहले भीष्म साहनी ने 'चीफ की दावत' कहानी लिखी थी. इस कहानी में भीष्म साहनी ने बड़े ही मार्मिक ढंग से दिखाया कि बच्चे जब कामयाबी हासिल कर लेते हैं, तो सबसे पहले अपने माता-पिता से ही शर्मिंदगी महसूस करने लगते हैं. वे भूल जाते हैं कि उनकी कामयाबी के लिए उनके पिता ने कई रातें केवल पानी पीकर गुजारी हैं, तो उनकी मां ने अपने सबसे अधिक प्रिय मंगलसूत्र तक बेच दिए.

'चीफ की दावत' का मिस्टर शामनाथ अपनी बूढ़ी विधवा मां को अपने घर मे नहीं रखना चाहता, क्योंकि उसे लगता है कि इससे उसकी झूठी प्रतिष्ठा में दाग लग सकता है. आशा साहनी का इंजीनियर बेटा भी अपनी प्रतिष्ठा में दाग लगने के भय से मां को अकेला छोड़कर अमेरिका चला जाता है.

जिलाधिकारी मुकेश पांडेय की आत्महत्या भी भारतीय परिवारों के एकल होते चले जाने का ही परिणाम है. इस घटना से अमरकांत की प्रसिद्ध कहानी 'डिप्टी कलक्टर' की याद आती है. एक आम निम्न मध्यवर्गीय माता-पिता अपने बेटे से बहुत सारी आशाएं पाल लेते हैं. वे सपने देखने लगते हैं कि उनका बेटा पढ़-लिखकर सरकारी नौकरी पा जाए, तो उनके दुख दूर हो जाएं.

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शकलदीप बाबू और जमुना अपने बेटे नारायण को लेकर सोचते हैं. शकलदीप बाबू अपनी पत्नी जमुना से मजाक में कहते हैं कि ‘मैं तो यहीं रहूंगा, बऊआ के साथ उसके सरकारी बंगले पर नहीं जाऊंगा’. जमुना जवाब देते हुए कहती है कि ‘लड़का मानेगा थोड़े, खींच ले जाएगा. हमेशा यह देखकर उसकी छाती फटती रहती है कि बाबूजी इतनी मेहनत करते हैं और वह कुछ भी मदद नहीं करता.’
अमरकांत की कहानी ‘डिप्टी कलक्टरी’ का अंश

एक आम निम्न मध्यवर्गीय माता-पिता ऐसा ही सोचते हैं, जैसा शकलदीप बाबू और जमुना सोचते हैं कि बेटा बड़ा अधिकारी हो जाएगा, तब अपने साथ अच्छे घर में सुख-सुविधा के साथ रखेगा. लेकिन जब बेटे को सरकारी नौकरी मिल जाती है, तो अपने से कहीं अधिक अच्छी आर्थिक स्थिति वाले परिवार में दहेज में बड़ी रकम लेकर उसकी शादी कर दी जाती है.

अब चूंकि ससुराल वालों ने दहेज देकर खरीद लिया है, इसलिए वे लड़के पर अपना पूरा अधिकार समझते हैं. वे लड़के के जीवन से उसके माता-पिता को निकालकर फेंक देना चाहते हैं. उसकी पत्नी भी अपने माता-पिता का पूरा साथ देती है. लड़का भी ससुराल पक्ष की चकाचौंध में अपने माता-पिता को भूलने और छोड़ने की कोशिश करने लगता है. माता-पिता भी अपना अधिकार छोड़ना नहीं चाहते, क्योंकि उनके सारे सपने बेटे से ही जुड़े हुए हैं.

अधिकारों का संघर्ष होता है, जिसमें अधिकांश मामलों में ससुराल पक्ष जीत जाता है और लड़का या तो अपने माता-पिता को घर से निकाल देता है या खुद उनसे अलग रहने लगता है. इसी कारण भारत में बुजुर्गों की स्थिति लगातार बदतर होती जा रही है.

मृत आशा साहनी का पुत्र अपनी मां को अकेली छोड़कर और पत्नी को साथ लेकर अमेरिका चला जाता है और फोन पर उसकी खबर जानने की भी कोशिश नहीं करता.

भारत के बुजुर्गों की स्थिति जानने के लिए एजवेल फाउंडेशन ने 50,000 बुजुर्गों पर एक अध्ययन किया है. अध्ययन से जो आंकड़े सामने आए, उसे देखकर किसी भी सभ्य समाज का सिर शर्म से झुक जाएगा.

अध्ययन के अनुसार, 43 फीसदी बुजुर्ग अकेलेपन के कारण मानसिक रोगों से पीड़ित हैं, तो 45 फीसदी बुजुर्गों ने कहा कि उनके परिवार के अन्य सदस्य उनकी न्यूनतम जरूरतों का भी ख्याल नहीं रखते. यह स्थिति अभी और भी भयावह हो सकती है, क्योंकि 2050 तक हमारे देश में 60 वर्ष से अधिक उम्र के बुजुर्गों की संख्या 32 करोड़ तक होने की संभावना है. फिलहाल यह संख्या लगभग 10 करोड़ है. जिलाधिकारी मुकेश पांडेय जैसे लोग सामंजस्य बिठाने की कोशिश करते हैं और असफल होने की स्थिति में आत्महत्या तक कर लेते हैं.

(लेखक दिल्‍ली यूनिवर्सिटी के रानी लक्ष्‍मीबाई कॉलेज में असिस्‍टेंट प्रोफेसर हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)

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