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जैसी कि सभी को आशंका थी, उमर खालिद (Umar Khalid) की जमानत याचिका खारिज कर दी गई. दिल्ली उच्च न्यायालय (Delhi High Court) के न्यायमूर्ति सिद्धार्थ मृदुल और न्यायमूर्ति रजनीश भटनागर ने कहा कि 9 सितंबर को दायर उनकी जमानत याचिका में "कोई मेरिट" नहीं था. मंगलवार की शाम, 18 अक्टूबर को जेल में चहलकदमी करते उमर खालिद को लाउडस्पीकर पर उन लोगों की फेहरिस्त में अपना नाम सुनाई नहीं दिया जिन्हें रात में जेल से रिहा किया जाना था.
पिछले महीने एक शुभचिंतक को लिखे पत्र में उमर खालिद ने कबूल किया था कि जब हर रात रिहाई पर्चे पर लिखे नामों का ऐलान होता है तो उसे लगता है कि एक ऐसी ही शाम उसे भी अपना नाम सुनाई देगा.
लेकिन फिलहाल ऐसा नहीं होने वाला. हां, क्या ये होने के लिए ये दिन सबसे माकूल नहीं था?
संदेश अस्पष्ट नहीं है- ऐसा कतई न करें, इंसाफ की मांग करने वालों की हिमायत न करें, वरना आपकी नियति भी वही होगी. दुनिया भर की हुकूमतों, और इतिहास के कई शासकों की तरह, यह शासन तंत्र भी ऐसी मिसाल कायम करना चाहता है.
इसके अलावा जिस तरह जीएन साईबाबा को बरी करने के फैसले को सुप्रीम कोर्ट ने रद्द किया, उसे देखते हुए बहुतों को इस बात की उम्मीद नहीं थी कि उमर खालिद को जमानत मिलेगी. साईबाबा फिजिकली वेजिटेटिव स्थिति में हैं, और मुंबई हाई कोर्ट ने उन्हें बरी कर दिया था. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उस फैसले को रद्द कर दिया.
लगभग पैंतालीस साल पहले, 1970 के दशक के अंत में राजनैतिक प्रतिशोध और सरकार की बर्बरता की पहली कहानी उसी विश्वविद्यालय में रची गई थी, जिसने उमर खालिद को झारखंड के आदिवासियों पर शोध करने के लिए डॉक्टरेट दिया है. इमरजेंसी के दौरान पूर्व और मौजूदा स्टूडेंट्स को बड़ी संख्या में गिरफ्तार किया गया था.
अपने पूर्व साथियों की राजनैतिक प्रतिबद्धताओं और दिलेरी ने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में पढ़ने वाले स्टूडेंट्स को पीढ़ी दर पीढ़ी प्रेरित किया है. इन लोगों को विश्वास हो चला था कि आसमान की तरफ एक पत्थर उछालने के लिए बस हिम्मत की ही जरूरत होती है. इसी से आसमान में सुराख हो सकता है.
लेकिन शासक कितना भी कठोर हो, मनुष्य के साहस और विरोध की शक्ति को काबू नहीं किया जा सकता.
इमरजेंसी के बाद के सालों में आनंद पटवर्धन की डॉक्यूमेंट्री फिल्म, 'प्रिजनर्स ऑफ कॉन्शियस' कैंपस और राजधानी दिल्ली में खूब दिखाई गई, वह भी हर बार तत्कालीन सरकार की इजाजत से. क्योंकि सरकार भी राजनैतिक रूप से हिम्मती फिल्मों की स्क्रीनिंग को रोकती नहीं थी, और न ही उसमें उठाए गए विषयों पर चर्चा पर पाबंदी लगाती थी. नागरिक समाज का विकास हो रहा था और वातावरण में असंतोष की बयार बह रही थी.
उमर खालिद सिर्फ इस सरकार का नहीं, अपनी अंतरात्मा का बंदी है. उसके जैसे लोग केवल वही कर सकते हैं जो उसने किया. वे उन गतिविधियों में भाग ले सकते हैं जिसका वह हिमायती है. और उसके जैसे अनगिनत हैं, कई गुमनाम हैं.
यह वास्तव में इतिहास की एक अजीब विडंबना है कि आज की सत्ताधारी पार्टी उसी पार्टी की वंशज है, जो उस समय (1977-1980) की गठबंधन सरकार का मुख्य भागीदार थी.
उमर खालिद का 'अपराध' उसकी पहचान और राजनीतिक विचारधारा दोनों हैं; पहला जिसके साथ वह पैदा हुआ और जिसे पैदाइशी निशान की तरह मिटाना नामुमकिन है- और दूसरा, जामिया नगर में जिंदगी के तजुर्बों और इस शहर के नाम पर बने विश्वविद्यालयों और जेएनयू के सहकर्मियों और शिक्षकों के जरिए हासिल हुआ.
कानूनी विशेषज्ञ अपना तर्क देंगे कि उमर खालिद के खिलाफ मामला कुछ है ही नहीं. क्योंकि यह इस विश्वास पर निर्भर करता है कि प्रथम दृष्टया उसके खिलाफ आरोपों में सच्चाई है.
मार्च के बाद से जब उमर खालिद ने कड़कड़डूमा अदालत द्वारा जमानत इनकार करने के खिलाफ अपील की, तो हाई कोर्ट ने अभियोजन पक्ष के तर्कों को ज्यादा मंजूर किया और बचाव पक्ष पर संदेह दिखाया.
हाई कोर्ट ने उमर खालिद के ‘जुमला’ शब्द पर खासी नाराजगी जताई, जिसकी राजनैतिक शुरुआत खुद केंद्रीय गृह मंत्री, अमित शाह ने की थी. इसी तरह सिर्फ वही व्यक्ति किसी भाषण में बोले गए 'क्रांतिकारी' और 'इंकलाब' जैसे शब्दों के इस्तेमाल पर ऐतराज जता सकता है जोकि राष्ट्रीय आंदोलन से पूरी तरह अलहदा रहा हो.
इस बारे में आरोप उतने ही अप्रमाणित हैं, जितने 1980 के दशक की शुरुआत में इंदिरा गांधी के आरोप थे. उस समय जब भी विपक्ष सरकार की आलोचना करता, तो वह इसमें किसी काल्पनिक 'विदेशी हाथ' की ओर इशारा करतीं. तब विपक्ष में बीजेपी के प्रतिष्ठित नेता भी शामिल थे.
यह विरोधाभास है कि प्रधानमंत्री पुराने कानूनों को खत्म करने की बात करते हैं. लेकिन औपनिवेशिक कानूनों को भी ढोए जा रहे हैं जिनके तहत विरोधियों को कालकोठरियों में बंद रखा जाता है.
समान नागरिकता आंदोलन का इतिहास जो शाहीन बाग से शुरू हुआ, और कई दूसरी जगहों तक फैला, आने वाले वर्षों में एक नया रुख लेता, अगर कोविड -19 महामारी का प्रकोप न होता.
इस आंदोलन की खासियतों पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है जिसमें कई अराजनैतिक शख्सीयतों ने मंच संभाला. बुजुर्गवार महिलाओं ने पितृसत्ता की जंजीरों को तोड़कर आंदोलन की कमान संभाली.
उमर खालिद ने झारखंड के आदिवासियों पर पीएचडी की है. वह लोकतांत्रिक और नागरिक अधिकारों के कितने ही आंदोलनों का हिस्सा रहा है. चाहे वह रोहित वेमुला की मौत के बाद का आंदोलन हो, या एफटीआईआई में स्टूडेंट्स और मारुति के मानेसर प्लांट में मजदूरों का आंदोलन हो. उमर बार-बार यह एहसास दिलाता है कि वह सिर्फ एक ‘मुसलमान नेता’ नहीं है. हां, वह मुसलमानों से जुड़े मुद्दों को उठाने में भी नहीं हिचकिचाता.
उमर खालिद इस राजनैतिक हुकूमत की आंख की किरकिरी है. क्योंकि वह न तो अपने धर्म को अपनी आस्तीन में लेकर घूमता है, और न ही अपनी पहचान छिपाने की कोशिश करता है.
छह साल से ज्यादा वक्त बीत चुके हैं, जब 2016 में जेएनयू में पॉलिटिकल एक्टिविज्म पर हमला किया गया था. तब से प्रशासन ने खुलेआम लोगों पर राजद्रोह का आरोप लगाना शुरू किया. महामारी के चलते आंदोलन भले ही आंशिक रूप से कमजोर हुआ हो, लेकिन साहस अडिग है.
विडंबना यह है कि उमर खालिद के रूप में विपक्ष को ऐसा प्रतीक मिल सकता था जो न हिंदू है, और न ही पूरी तरह से मुसलमान. फिर भी वह एक ऐसा मुसलमान है जो मुसलमानों और हिंदुओं, दोनों को परेशान करने वाले मुद्दों को उठा सकता था.
कोई नहीं जानता कि आने वाले समय में भारत को रसातल से उबारने में उमर खालिद की क्या भूमिका होगी. हां, इतना जरूर है कि अगर भारत उस बिंदु से कभी वापस लौटने की कोशिश करता है तो यह जिम्मेदारी उसके सरीखे लोगों पर ही होगी, या उन लोगों पर, जो उसकी जैसी राजनीति की वकालत करते हैं- जिसमें सबके लिए एक बराबर जगह हो.
(लेखक, NCR में रहने वाले लेखक और पत्रकार हैं. उनकी हालिया पुस्तक द डिमोलिशन एंड द वर्डिक्ट: अयोध्या एंड द प्रोजेक्ट टू रिकॉन्फिगर इंडिया है. उनकी अन्य पुस्तकों में द आरएसएस: आइकॉन्स ऑफ द इंडियन राइट और नरेंद्र मोदी: द मैन, द टाइम्स शामिल हैं. वह @NilanjanUdwin पर ट्वीट करते हैं. इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो इसका समर्थन करत है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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