मेंबर्स के लिए
lock close icon
Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Voices Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Opinion Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019रोजगार के आंकड़े बस्ते में बंद, मनचाहा पब्लिश, अब कैसे करें भरोसा?

रोजगार के आंकड़े बस्ते में बंद, मनचाहा पब्लिश, अब कैसे करें भरोसा?

कड़वी सच्चाई की फेहरिस्त में इसके कई नमूने हैं

मयंक मिश्रा
नजरिया
Published:
नोटबंदी के कुछ महीने बाद, यानी साल 2017-18 में बेरोजगारी दर 6.1 थी.
i
नोटबंदी के कुछ महीने बाद, यानी साल 2017-18 में बेरोजगारी दर 6.1 थी.
(फोटो: The Quint)

advertisement

नोटबंदी की वजह से नौकरियां गईं, तो रिपोर्ट पर ताला. विरोध में राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग के दो अधिकारी इस्तीफा दे देते हैं. लेकिन इस्तीफे की किसे परवाह है? राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग एक स्‍वायत्त संस्था है, जिसका काम सरकार के आंकड़ों का निरीक्षण करना और प्रकाशित करना है. आयोग की हरी झंडी के बाद किसी और की मंजूरी की जरूरत नहीं होती है.

NSSO की बेरोजगारी वाली रिपोर्ट आनी अभी बाकी है. लेकिन सारे आंकड़े बिजनेस स्टैंडर्ड की एक रिपोर्ट में प्रकाशित हो गई. रिपोर्ट के मुताबिक, नोटबंदी के कुछ महीने बाद, यानी साल 2017-18 में बेरोजगारी दर 6.1 थी. पिछले 45 वर्षों के इतिहास में इतनी ज्‍यादा बेराजगारी दर कभी नहीं रही.

बेरोजगारी दर में इतनी बड़ी उछाल के पीछे जरूर नोटबंदी ही विलेन होगा. या कह सकते हैं कि एक 'बड़ा विलेन' जरूर होगा. लेकिन सरकार ने इस रिपोर्ट को सार्वजनिक करने पर रोक लगा दी. कई दलीलें दी गईं- आंकड़ा कंप्लीट नहीं है, कुछ और तिमाही के आंकड़े आने के बाद ही इसका मतलब निकाला जा सकता है...

NSSO की बेरोजगारी वाली रिपोर्ट आनी अभी बाकी है. (फोटो  रिदम सेठ / द क्विंट)

'बिजनेस स्टैंडर्ड' रिपोर्ट की कुछ बड़ी बातें ये हैं:

  1. 15-29 उम्र वर्ग के ग्रामीण युवकों में बेरोजगारी दर 2011-12 में 5 फीसदी थी, जो 2017-18 में छलांग मारकर 17 फीसदी तक पहुंच गई. क्या ये आंकड़ा चीखकर नहीं कह रहा है कि गांवों में हालात अच्छे नहीं हैं, जबकि साल 2022 तक खेती से होने वाली आमदनी दोगुना करने का वादा किया जा रहा है?
  2. इसी आयु वर्ग के शहरी युवाओं की बात करें, तो बेरोजगारी दर साल 2011-12 में 8 फीसदी की तुलना में 2017-18 में उछलकर करीब 19 फीसदी तक पहुंच गई. क्या ये आंकड़ा नहीं बताता है कि 'मेक इन इंडिया' का वादा महज एक जुमला था? मेक इन इंडिया के सहारे नई नौकरियों की बात हम कब से सुनते आ रहे हैं.
  3. सबसे बुरी हालत है श्रम बल भागीदारी दर, यानी Labour Force Participation Rate (LFPR) की, जो बताती है कि कितने लोग नौकरी मांगने बाजार में आ रहे हैं. साल 2011-12 में करीब 40 फीसदी की तुलना में ये दर वर्ष 2017-18 में 36 फीसदी तक गिर गया. विकसित देशों में LFPR की दर 60 फीसदी के करीब होती है. बीते समय में अपने देश में भी ये दर 40-45 फीसदी के बीच रही है. मतलब नौकरियां नहीं मिल रही हैं और लोगों को नौकरी मिलने की उम्मीद भी कम ही है.
  4. बिजनेस स्टैंडर्ड की रिपोर्ट में ये भी बताया गया है कि साल 2011-12 की तुलना में अब कम ही लोग रोजगार तलाश रहे हैं. रोजगार तलाशने वालों में भी करीब 20 फीसदी युवाओं को रोजगार नहीं मिलता! क्या ये बताने के लिए कुछ और सबूत चाहिए कि नौकरी का बाजार ठप पड़ गया है?

आंकड़ों का ‘प्रबंधन’?

कड़वी सच्चाई की फेहरिस्त में ये इकलौती रिपोर्ट नहीं है. कई और नमूने हैं:

  1. 'बिजनेस स्टैंडर्ड' की ही एक और रिपोर्ट के मुताबिक, DIPP ने पिछले साल जून से FDI के आंकड़े प्रकाशित नहीं किए हैं, जबकि रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया नियमित रूप से आंकड़े उपलब्ध करा रहा है. पहले हर तीन महीने पर ये आंकड़े प्रकाशित होते थे. क्या इसका अर्थ ये है कि FDI में गिरावट आई है और सरकार को नियमित रूप से आंकड़े प्रकाशित करना सही नहीं लग रहा है? तेज रफ्तार से विकसित होती अर्थव्यवस्था और विकास की सीढ़ियों पर छलांग जैसे दावों का क्या हुआ?
  2. साल 2016-17 के लिए सालाना रोजगारी-बेरोजगारी सर्वेक्षण पर लेबर ब्यूरो की रिपोर्ट प्रकाशित होनी अभी बाकी है. ये कहा गया है कि अनुमानित बेरोजगारों की संख्या का अनुमान लगाने के लिए अब एक नए मानक का इस्तेमाल किया जाएगा. नया वादा जब पूरा होगा, तब होगा, फिलहाल इसी बहाने बरसों से चल रही परंपरा को आराम से कूड़ेदान में डाल दिया गया है.
  3. उधर नोटबंदी पर फाइनल रिपोर्ट का इंतजार अब भी है.
  4. CAG की ताजा रिपोर्ट में बताया गया है कि हमारा कर्ज स्तर हाल में जारी सालाना बजट के अनुमान से काफी अधिक है. मतलब ब्याज का बोझ पहले की तुलना में काफी बढ़ा है.
ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT
क्या इससे अधिक सबूतों की आवश्यकता है कि हाल के सालों में आंकड़ों का गोलमाल हुआ है?इससे बड़ा नुकसान होता है. कुछ नुकसानों पर नजर डालते हैं:
  1. बिना सही आंकड़ों के सरकारी योजनाएं अंधेरे में तीर चलाने जैसी होती हैं. जिनको फायदा पहुंचाने की कोशिश होती है, वो मकसद हासिल नहीं होता. हां, हेडलाइन मैनेज तो हो ही जाता है.
  2. ये उस फीडबैक को नजरंदाज करता है, जो संकटकालीन स्थिति में सही एक्शन की सलाह देता है. यही वजह है कि सरकार को गांवों में चल रहे संकट का अहसास नहीं हुआ है.
  3. गलत आंकड़ों का अर्थ है राजस्व का अनुमान लगाने में गड़बड़ी. हम जीएसटी से होने वाली टैक्स वसूली देख ही चुके हैं. जीएसटी लागू हुए महीनों हो गए, लेकिन सरकार को अब भी पता नहीं है कि वसूली का कौन-सा टारगेट रखा जाए.
  4. सबसे बड़ी बात- डेटा मैनेजमेंट का सबसे बड़ा नुकसान होता है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार हमारे आंकड़ों को शक की नजर से देखने लगता है.

निवेशक समुदाय को हमारे आंकड़ों पर भरोसा नहीं

असली आंकड़े की बजाय 'हेडलाइन मैनेजमेंट' पर जोर होने की वजह से निवेशकों का हमारे आंकड़ों पर से कब का भरोसा उठ गया है. क्या यही वजह है कि सबसे तेजी से विकास करने वाली अर्थव्यवस्था के तमगे के बावजूद निवेशकों की दिलचस्पी हमारे बाजार में कम हो रही है? निवेशक उदासीन हैं. इसके कुछ नमूने देखिए:

  1. विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों ने सिर्फ साल 2018 में एक लाख करोड़ रुपये भारतीय बाजार से निकाले. ये पिछले 10 वर्षों में सबसे ज्यादा है. ऐसा क्यों हुआ?
  2. नेट FDI 2015 से लगातार कम हो रहे हैं. विदेशी निवेशकों ने क्यों मुंह मोड़ लिया?
  3. CMIE के ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, दिसम्बर 2018 में खत्म हुई तिमाही में पिछले एक दशक में सबसे कम निवेश हुआ है.

अब तक आंकड़ों को मैनेज करने की बीमारी लोकतंत्र को छू नहीं पाई थी. शिकागो यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर लुई आर मार्टिनेज की एक स्टडी के मुताबिक, डाटा मैनेज करके विकास दर को 15 से 30 परसेंट तक ज्यादा दिखाना चीन, रूस और दूसरे तानाशाही देशों में आम रहा है. लोकतंत्र की खासियत है कि वहां मौजूद मजबूत संस्थाएं इस तरह का मैनेजमेंट होने नहीं देती हैं.

इस स्टडी को देखकर हमें तय करना है कि डाटा मैनेजमेंट का अपने यहां बढ़ते चलन का मतलब संस्थाओं की कमजोरी तो नहीं है? या फिर लोकतंत्र के पुर्जे अब ढीले हो रहे हैं?

इस आर्टिकल को English में पढ़ने के लिए यहां क्‍ल‍िक करें :

Junk Nasty Jobs Report, Publish Rosy Ones: How to Trust Our Data?

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

अनलॉक करने के लिए मेंबर बनें
  • साइट पर सभी पेड कंटेंट का एक्सेस
  • क्विंट पर बिना ऐड के सबकुछ पढ़ें
  • स्पेशल प्रोजेक्ट का सबसे पहला प्रीव्यू
आगे बढ़ें

Published: undefined

ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT