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पिछले कुछ साल में क्या आपका ध्यान एक बात पर गया है? पहले हर कोई यह अनुमान लगाने की कोशिश करता था कि नया बजट कैसा होगा. अब बहुत कम लोग ऐसा करते हैं. इसकी वजह यह है कि 1997 के बाद सरकार ने इनकम टैक्स स्लैब को 10, 20 और 30 पर्सेंट पर स्थिर बनाए रखा है.
वैसे इसमें छोटे बदलाव होते रहे हैं. आखिर ब्यूरोक्रेसी को अपने होने की वजह भी तो साबित करनी है. लेकिन कुल मिलाकर लोगों ने इन स्लैब्स को वाजिब मान लिया है और सरकार भी मध्य वर्ग पर टैक्स का बोझ बढ़ाने से बचती आई है. टैक्स का दायरा छोटा होने का अहसास उसे भी है. इस साल बजट में डिविडेंड पर टैक्स लगाया जा सकता है, जो आम निवेशकों के हाथ में अब तक टैक्स फ्री रहा है.
बजट का पिछले 70 साल का इतिहास हमें क्या सिखाता है? वैसे तो इस दौरान आए बजट अलग-अलग रहे, लेकिन उनमें एक बात कॉमन थी. वह बात यह है कि राजनीतिक वजहों से अर्थव्यवस्था की हालत बिगड़ती रही है और हर कुछ साल बाद इस वजह से ऐसा संकट खड़ा होता रहा, जिससे बचा जा सकता था.
इसकी शुरुआत 1957 में हुई और 2017 तक यह सिलसिला लगातार चलता आया है. 70 साल के बजट को देखने से एक और बात सामने आती है कि नेताओं की मेहरबानी से इनमें सब्सिडी का जलवा रहा है.
इसके बदले कुछ भी नहीं मांगा गया, क्योंकि कृषि क्षेत्र की हालत आमतौर पर खराब रहती है. उद्योगपतियों के चंदे से राजनीति चलती है और बैंकिंग इंडस्ट्री के बड़े हिस्से पर सरकार का मालिकाना हक है. वहीं, सर्विस सेक्टर के बारे में संगठित क्षेत्र से बाहर के आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं.
सब्सिडी में समय-समय पर बदलाव होता रहा है, लेकिन यह सब्सिडी-स्विचिंग के अलावा कुछ और नहीं. इस बात को ऐसे भी कहा जा सकता है कि नेताओं ने वोट हासिल करने की खातिर 20 करोड़ लोगों को खुश करने के लिए 110 करोड़ लोगों की कमाई का इस्तेमाल किया. बजट के जरिये यह बहुत बड़ा इनकम ट्रांसफर है. हालांकि, इस इनकम ट्रांसफर का कोई आर्थिक लाभ नहीं मिला. इससे न ही एफिशिएंसी और न ही प्रॉडक्शन में नाटकीय सुधार हुआ. हालांकि, कृषि क्षेत्र में इस ट्रांसफर से सामाजिक स्थिरता बनाए रखने में जरूर मदद मिली.
2018 के बजट से हमें क्या उम्मीद करनी चाहिए? कहा जा रहा है कि प्रधानमंत्री खुद इसे सुपरवाइज कर रहे हैं. क्या अगले साल लोकसभा चुनाव की वजह से वह लोकलुभावन बजट की ओर झुकेंगे या वह वित्तीय अनुशासन बनाए रखने पर जोर देंगे, जिसके वह पक्षधर रहे हैं?
इसकी संभावना है कि वह वित्तीय अनुशासन बनाए रखने पर जोर दें. वह गीता की इस पंक्ति पर यकीन करते हैं कि हमें कर्म करना चाहिए और फल की चिंता नहीं करनी चाहिए. वह अर्थव्यवस्था को रिवाइव करने को अपना कर्म मानते हैं. खैरात बांटने में उनका यकीन नहीं है. वैसे भी इसका अधिक स्कोप नहीं है, क्योंकि सरकार के पास खर्च करने के लिए बहुत पैसा नहीं है.
मोदी सब्सिडी, ब्याज, सैलरी और पेंशन जैसी जरूरतों के अलावा दूसरी चीजों के लिए कर्ज नहीं बढ़ाना चाहेंगे.
हालांकि, वह यूनिवर्सल बेसिक इनकम का ऐलान कर सकते हैं, जिसके लिए डीबीटी एकाउंट्स के मार्फत बैंकिंग इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार है. इसी वजह से आधार को बैंक एकाउंट से लिंक करने पर जोर दिया जा रहा है. यह स्कीम कम रकम के साथ शायद इस साल पायलट बेसिस पर शुरू हो और 2018 विधानसभा और 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले इसमें शायद बढ़ोतरी की जाए.
तब तक जीएसटी भी स्टेबल हो जाएगा और सरकार की आमदनी में उससे अच्छी बढ़ोतरी होगी. अगर ऐसा होता है, तो यह बुनियादी तौर पर मनरेगा का विस्तार होगा, जो भ्रष्टाचार की वजह से फ्लॉप हो चुकी है. लेकिन क्या सरकार यूनिवर्सल बेसिक स्कीम के लिए पैसा जुटा पाएगी, यह बड़ा सवाल है. अब तक सिर्फ फिनलैंड ने पायलट बेसिस पर यह स्कीम शुरू की है.
अगर बाकी चीजों की बात करें तो बजट में करने को कुछ खास नहीं है और कई एक्सपर्ट्स इसका जिक्र कर चुके हैं. सरकार ने पिछले चार साल में जो स्ट्रक्चरल रिफॉर्म्स किए हैं, उनका पूरा असर अभी तक नहीं दिखा है. सरकार को सब्सिडी से चलने वाली अर्थव्यवस्था को एफिशिएंट इनकम वाली इकोनॉमी में बदलना चाहिए. हालांकि, इसमें वक्त लगेगा.
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(लेखक आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों पर लिखने वाले वरिष्ठ स्तंभकार हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)
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Published: 16 Jan 2018,09:27 PM IST