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पीयूष गोयल के मन में इस हफ्ते शायद यही बात आई होगी. सबको लग रहा था कि अरुण जेटली अपना छठा बजट पेश करने जा रहे हैं, लेकिन यह जवाबदेही गोयल के जिम्मे आ गई है. वह एक तरह से जेटली के लिए सेकेंड विकेटकीपर बन गए हैं.
अंतिम विश्लेषण में यह बात मायने नहीं रखती कि बजट कौन पेश करता है. इसमें ध्यान इस पर रहता है कि बजट में क्या है.
हमें इस पर भी गौर करना चाहिए कि अगर कोई सरकार पूर्ण बजट पेश करने के बाद गिर जाए, तब भी चुनाव कराने पड़ेंगे. ऐसा 1979, 1989, 1998 और 1999 में हो चुका है, जब आम चुनाव से पहले पूर्ण बजट पेश किया गया था.
अगर इस तरह से देखें तो अंतरिम बजट को लेकर चुनाव की थ्योरी का कोई मतलब नहीं निकलता. यह विपक्ष का गढ़ा हुआ एक फिक्शन है, जो अगली सरकार बनाने की उम्मीद करता है. पूर्ण बजट के बाद सरकार गिरने की वजह से हुए आम चुनाव के मामले में आप यह तर्क दे सकते हैं कि तत्कालीन वित्त मंत्रियों को बजट पेश करते वक्त पता नहीं था कि आगे सरकार नहीं रहेगी. यह बात ठीक है, लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है. ऐसा बहुत कम हुआ है, जब नई सरकार ने खुद को पिछले बजट या लेखानुदान से पूरी तरह अलग किया हो.
प्रणब मुखर्जी ने 2009 में ऐसा ही किया था. जसवंत सिंह ने अंत्योदय योजना का ऐलान किया था, लेकिन उन्होंने नए टैक्स नहीं बढ़ाए थे. मुखर्जी ने निर्यातकों को दिए जाने वाले कर्ज पर ब्याज दरों में छूट की घोषणा की थी और रक्षा बजट बढ़ाया था. चिदंबरम ने 2014 में वन रैंक वन पेंशन का ऐलान किया था, लेकिन इनमें से किसी ने भी वित्त विधेयक या इनकम टैक्स कानून में बदलाव नहीं किए थे.
एन माधवन इन मामलों के एक्सपर्ट हैं. उन्होंने अंग्रेजी अखबार द हिंदू को बताया था, ‘कोई सरकार कभी भी विधेयक ला सकती है और किसी कानून को बदल सकती है.
इसे लागू करने के लिए बिल का सिर्फ लोकसभा से पास होना जरूरी है. लेकिन परंपरा रही है कि इनकम टैक्स कानून में पूर्ण बजट में ही बदलाव किया जाता है.’ इससे अंतरिम बजट या लेखानुदान में इनकम टैक्स कानून में बदलाव की संभावनाएं सीमित हो जाती हैं, लेकिन नए एक्सपेंडिचर की घोषणा करने पर रोक नहीं है. नई सरकार के पास इसे बदलने या खत्म करने का विकल्प होता है. कहने का मतलब यह है कि बजट के मामले में ‘सब चलता है.’
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Published: 25 Jan 2019,04:32 PM IST