Some of the elements in this story are not compatible with AMP. To view the complete story, please click here
मेंबर्स के लिए
lock close icon
Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Voices Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Opinion Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019अटल-आडवाणी-जोशी की तैयार की जमीन दूसरों को दे रहे हैं मोदी व शाह? 

अटल-आडवाणी-जोशी की तैयार की जमीन दूसरों को दे रहे हैं मोदी व शाह? 

लोकसभा चुनाव की जीत ने अमित शाह पर ये दबाव बहुत बढ़ा दिया है कि वो हर हाल में यूपी में बीजेपी की सरकार बनवा पाएं.

हर्षवर्धन त्रिपाठी
नजरिया
Updated:
(फाइल फोटो: AP)
i
(फाइल फोटो: AP)
null

advertisement

अमित शाह हर हाल में उत्तर प्रदेश जीतना चाहते हैं. मूल वजह ये कि अमित शाह जानते हैं कि चुनाव जीतकर ही सब सम्भव है.

गुजरात में अमित शाह ने चमत्कारिक जीत का जो मंत्र जाना था, उसे वो 2014 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में दोहरा चुके हैं. लेकिन उसी लोकसभा चुनाव की चमत्कारिक जीत ने अब अमित शाह के ऊपर ये दबाव बहुत बढ़ा दिया है कि वो हर हाल में यूपी में बीजेपी की सरकार बनवा पाएं. अच्छे प्रदर्शन के लिए दबाव कारगर होता है. लेकिन कई बार अपेक्षित परिणाम पाने के दबाव में ऐसे उल्टे काम हो जाते हैं, जिसका पता बहुत बाद में चलता है.

यूपी में बीजेपी अमित शाह की अगुवाई में कुछ ऐसे ही काम कर रही है. बीजेपी की 2 सूची आ चुकी है. 299 सीटों के प्रत्याशियों की सूची पर नजर डालने से दूसरी पार्टियों की तरह बेटा-बेटी को प्रत्याशी बनाना साफ दिख रहा है. साथ ही ये भी कि बाहरी-भीतरी, अब वाली बीजेपी में फर्क नहीं डालता. लेकिन एक बात जो नहीं दिख रही, वो ये कि यूपी में 2017 का विधानसभा चुनाव इसलिए भी याद रखा जाएगा कि बीजेपी ने अपनी कई परम्परागत सीटें भी जिताऊ के नाम पर दूसरे बाहरियों दे दीं.

प्रदेश में अटल-आडवाणी-जोशी की तैयार की गई शहरी जिताऊ सीटों पर अब नरेंद्र मोदी-अमित शाह-सुनील बंसल वाली बीजेपी दूसरे दलों से आए प्रत्याशियों को उपहार के तौर पर दे रही है.

क्विंट हिंदी पोल: आप भी वोट दीजिए

इलाहाबाद की शहर उत्तरी सीट से बीजेपी ने हर्षवर्धन बाजपेयी को उम्मीदवार बनाया है. 2012 में हर्षवर्धन बाजपेयी इसी सीट से बीएसपी से उम्मीदवार थे और दूसरे स्थान पर रहे थे. ये सीट अभी कांग्रेस के खाते में है. अनुग्रह नारायण सिंह लगातार दूसरी बार इस सीट से चुने गए. हर्षवर्धन बाजपेयी के पारिवारिक आधार के भरोसे बीजेपी के सभी कार्यकर्ताओं को दरकिनार करके टिकट दिया गया.

वो पारिवारिक आधार ये है कि 1962 से 1974 तक हर्षवर्धन बाजपेयी की दादी राजेन्द्री कुमारी बाजपेयी यहां से चुनी जाती रहीं. 1977 में देशभर के साथ शहर उत्तरी सीट ने भी नतीजे दिए. लेकिन 1980 में फिर से इस सीट को हर्षवर्धन बाजपेयी के पिता अशोक कुमार बाजपेयी ने जीत लिया. इस लिहाज से देखने पर लगता है कि बीजेपी नेतृत्व ने बहुत शानदार फैसला लिया है बीएसपी से बीजेपी में आए हर्षवर्धन बाजपेयी को टिकट देकर.

कांग्रेस के अनुग्रह नारायण सिंह से आसानी से बाजपेयी के पारिवारिक मजबूत आधार और बीजेपी के आधार के भरोसे बीजेपी ये सीट फिर से झटक सकती है. लेकिन इस सीट को और ठीक से समझने के लिए 1991 के बाद की कहानी सुननी जरूरी है.

1991 में यहां से पहली बार बीजेपी का खाता खुला और इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रोफेसर नरेंद्र सिंह गौर को शहर उत्तरी की जनता ने चुन लिया. ये राममंदिर आंदोलन का दौर था. मंडल पर कमंडल की जीत हो चुकी थी. डॉक्टर गौर ने अभी के विधायक अनुग्रह नारायण सिंह को ही हराया था. इसके बाद 1993, 1996, 2002 में भी डॉक्टर गौर ही जीतते रहे.

जरा इन सीटों की अहमियत देखिए

इस सीट के बारे में कहा जाता रहा कि अगर यहां से किसी को भी कमल निशान के साथ खड़ा कर दिया जाए, तो वो जीत जाएगा. 2007 में डॉक्टर गौर हारे और उसके बाद 2012 में बीजेपी ने इलाहाबाद की बारा सीट से 2 बार विधायक रहे उदयभान करवरिया पर दांव लगाया, लेकिन फिर से हार मिली. उदयभान करवरिया और हर्षवर्धन बाजपेयी के बीच करीब डेढ़ हजार मतों का फासला था और उस लड़ाई का फायदा कांग्रेस के अनुग्रह नारायण सिंह को मिला.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व सरसंघचालक प्रोफेसर राजेन्द्र सिंह, राममंदिर आंदोलन के अगुवा नेता विहिप के अशोक सिंघल और बीजेपी के शीर्ष नेता इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉक्टर मुरली मनोहर जोशी की तिकड़ी ने इलाहाबाद को बीजेपी का मजबूत किला बना दिया था और आज उस मजबूत किले को जीतने के लिए बीजेपी एक बाहरी के सहारे है.

ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT
शहर उत्तरी ब्राह्मण बहुल सीट है, तो इससे सटी दूसरी सीट है शहर दक्षिणी, जो कि बनिया बहुल है. यही ब्राह्मण-बनिया है, जो बीजेपी का मूल आधार है.

शहर दक्षिणी से भारतीय जनसंघ का खाता पहली बार 1969 में ही खुल गया था. रामगोपाल संड विधायक चुने गए थे. उसके बाद 1989 में केशरी नाथ त्रिपाठी ने फिर से बीजेपी के लिए ये सीट जीती. 89 के बाद 91, 93, 96 और 2002 में भी केशरी नाथ त्रिपाठी इस सीट पर कमल खिलाते रहे. 2007 में बीएसपी के नंद गोपाल गुप्ता नंदी ने केशरी नाथ को हरा दिया और अब वही नंद गोपाल गुप्ता नंदी बीजेपी के टिकट पर दक्षिणी से उम्मीदवार हैं. केशरी नाथ त्रिपाठी पश्चिम बंगाल के राज्यपाल हैं और वो नंदी को टिकट देने के पूरी तरह से खिलाफ थे. लेकिन उनकी नहीं सुनी गई.

इलाहाबाद की लोकसभा सीट से लगातार तीन बार डॉक्टर मुरली मनोहर जोशी चुनाव जीते. इलाहाबाद की शहर उत्तरी और दक्षिणी की ये कहानी थोड़ी लम्बी भले हो गई. लेकिन यूपी की शहरी सीटों पर बीजेपी की पकड़ बताने के लिए ये कहानी जरूरी है. ये वो शहरी सीटें हैं, जहां आम मध्य वर्ग, हिन्दुत्व से जुड़ा मतदाता बिना सोचे लगातार करीब 3 दशकों से मत देता रहा है. यही वजह है कि 14 वर्षों से भले ही बीजेपी यूपी में सरकार बनाने से बहुत दूर है, पर महानगरों की विधानसभा सीटों पर उसकी प्रभावी उपस्थिति बनी रही.

लेकिन अमित शाह के कुछ भी करके जीतने के मंत्र के प्रभाव से बीजेपी का अपना प्रभाव गायब होता दिख रहा है. लखनऊ लोकसभा सीट पर अटल बिहारी वाजपेयी के सांसद बनने के बाद ये सीट बीजेपी का सबसे मजबूत किला रहा. 1991 से 2009 तक अटल बिहारी वाजपेयी और उसके बाद लालजी टंडन और राजनाथ सिंह इसी सीट से कमल निशान पर लोकसभा पहुंचे. इसी लोकसभा की 2 महत्वपूर्ण सीटों लखनऊ कैंट और लखनऊ मध्य पर बीजेपी ने कांग्रेस से आई रीता बहुगुणा जोशी और बीएसपी से आए ब्रजेश पाठक को उम्मीदवार बनाया है.

ये सही है कि जिताऊ प्रत्याशी खोज लेना राजनीति की सबसे बड़ी चुनौती होती है, जिसे अमित शाह बखूबी पार कर जा रहे हैं. लेकिन ये सवाल तो आने वाले समय में उठेगा कि जिताऊ खोजने के चक्कर में अपनों के जरिये जीती जा सकने वाली सीटें भी दूसरों को दे देना कौन-सी राजनीतिक समझदारी है.

लखनऊ और इलाहाबाद बड़े उदाहरण हैं. ऐसी करीब 50 सीटें हैं, जो बीजेपी अपने प्रत्याशियों के भरोसे जीत सकती थी. लेकिन उसने जिताऊ के नाम पर बाहरी पर दांव लगाया. मोटा-मोटा हर जिले की करीब एक ऐसी सीट जिताऊ के चक्कर में बीजेपी ने दूसरों को दे दी है. इन बाहरियों के आने से बीजेपी कार्यकर्ताओं की नाराजगी भी साफ देखने को मिल रही है.

(हर्षवर्धन त्रिपाठी वरिष्‍ठ पत्रकार और जाने-माने हिंदी ब्लॉगर हैं. इस आलेख में प्रकाशित विचार लेखक के हैं. आलेख के विचारों में क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

अनलॉक करने के लिए मेंबर बनें
  • साइट पर सभी पेड कंटेंट का एक्सेस
  • क्विंट पर बिना ऐड के सबकुछ पढ़ें
  • स्पेशल प्रोजेक्ट का सबसे पहला प्रीव्यू
आगे बढ़ें

Published: 25 Jan 2017,03:34 PM IST

Read More
ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT