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योगी आदित्यनाथ की ताजपोशी एक राजनीतिक पार्टी की तरफ से उठाया गया एक सामान्य कदम हो सकता है. एक ऐसा कदम जो पूरी तरह संवैधानिक भी कहा जाएगा. बीजेपी को यूपी में 312 सीटें मिली हैं. उन्हें अपनी पसंद का मुख्यमंत्री चुनने का पूरा हक है, फिर भी योगी के नाम पर हंगामा है.
हंगामा ऐसा कि इसे सेकुलरवाद की मौत तक कहा जा रहा है. ये भी कहा जा रहा है कि ये कदम खुद मोदी के लिए खतरनाक होगा. योगी आने वाले दिनों में मोदी से बडे हिंदुत्व के नायक हो सकते हैं. प्रधानमंत्री पद के दावेदार भी. ये भी कहा जा रहा है कि योगी के बहाने आरएसएस ने अपना असली चेहरा दिखा दिया है. और ये भी कि आरएसएस ने अभी से मोदी का तोड़ और उत्तराधिकारी खोज लिया है.
मोदी अपनी राजनीतिक समझ की वजह से भले ही उतना खुलकर अल्पसंख्यक विरोधी बात न करें, लेकिन योगी को ऐसा कोई परहेज नहीं है.
वो 2014 में बीजेपी की सरकार बनने से पहले से ही खुलेआम बोलते रहे हैं. इस चुनाव में भी उन्होंने अपनी जुबान को लगाम नहीं दिया. लेकिन भारतीय संविधान, सेकुलरवाद और सांप्रदायिकता की बहस में एक बात कहीं खो गई है कि योगी का गद्दीनशीं होना उस बड़े खतरे की आहट है, जो हमें हौले से कहती है कि अगर ये कदम अभी नहीं रुके, तो भारत के पाकिस्तान बनने का खतरा है.
आज ये बात मौजूदा पीढ़ी को हैरान कर सकती है कि इस्लाम के नाम पर बने पाकिस्तान की पहली पीढ़ी की लीडरशिप को इस बात का पूरा अंदेशा था कि धर्म या मजहब की राजनीति पाकिस्तान को गलत रास्ते पर ले जा सकती है. पाकिस्तान के जनक मोहम्मद अली जिन्ना ने पाकिस्तान के आजाद होने के बाद 11 अगस्त 1947 को संविधान सभा में दिए अपने भाषण में जो कहा, वो आज अजूबा लग सकता है.
ये बात उस पाकिस्तान में कही गई थी, जहां आज अल्पसंख्यक हिंदुओं और इसाइयों को मारा जा रहा है. जहां मुसलमानों में भी शिया और अहमदिया समुदाय के लोगों पर चुन-चुनकर आतंकवादी हमले हो रहे हैं. सैकड़ों की संख्या में जानें जा रही हैं. वहां जिन्ना ये कह रहे थे कि हिंदू और मुसलमान, दोनों को बराबर का दर्जा होगा और राजनीतिक मामलों में मुसलमान, मुसलमान नहीं रहेगा और मजहब निजी चीज होगी. आज मजहब पाकिस्तान में सब कुछ तय करता है. राजनीति इस्लाम के हाथों मजबूर है.
जिन्ना के पाकिस्तान में पंजाब के गवर्नर को उन्हीं का बॉडीगार्ड गोली मार देता है. इस कातिल को जब अदालत में पेश किया जाता है, तो पढ़े-लिखे वकील उस पर फूलों की बरसात करते हैं.
जिन्ना की जल्द मौत हो गयी थी. उनके बाद पाकिस्तान आंदोलन से जुड़े और उनके उत्तराधिकारी रहे लियाकत अली खान ने भी जिन्ना की बात को आगे बढ़ाते हुए सेकुलर पाकिस्तान की वकालत की. धर्म को राजनीति से दूर रखने की कोशिश की. लियाकत अली भी ज्यादा जीवित नहीं रहे. इन दोनों नेताओं की मौत के बाद मजहब और राजनीति की जद्दोजहद तेज हुई.
1953 में अहमदिया समुदाय को इस्लाम से बेदखल करने के आंदोलन ने उफान पकड़ा, पर तब के हुक्मरानों ने उसे दबा दिया. कट्टरपंथी नेता सैयद मौदूदी को गिरफ्तार कर फांसी की सजा का फरमान सुनाया गया. जिन्ना, लियाकत अली और लियाकत के बाद गवर्नर जनरल बने इसकंदर मिर्जा की नजर में इस्लाम मजहब से अधिक 'पहचान' या फिर कहें 'अस्मिता' का पर्याय था. मौदूदी के हिसाब से मुसलमान तरक्की तब करेगा, जब शासन शरिया के बताये रास्ते पर चलेगा.
पाकिस्तान में शुरू से ही इस्लाम के हिसाब से सरकार चलाने का दबाव था. कट्टरपंथियों की जमात का सेकुलर स्टेट में कोई यकीन नहीं था. वो पाकिस्तान को 'इस्लामिक स्टेट' बनाना चाहते थे. इसकंदर मिर्जा ने इसलिए पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नजीमुद्दीन और पंजाब के मुख्यमंत्री को बर्खास्त कर दिया था कि वो लोग अहमदिया विरोधी आंदोलन के समय मजहबी तत्वों के साथ कड़ाई से पेश नहीं आ पाये थे.
दिलचस्प बात ये है कि जिस पाकिस्तान में आज इस्लाम के नाम पर कत्लेआम मचा है, वहां अहमदिया विरोधी आंदोलन की जांच के लिए बनाये गये जस्टिस मुनीर कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में लिखा, "इस्लाम की कोई पुख्ता परिभाषा नहीं है. इस्लामिक संविधान का तो कोई मतलब ही नहीं है और मजहबी जानकार संविधान निर्माण की प्रक्रिया से दूर ही रहें, तो अच्छा है."
क्या आज के पाकिस्तान में कोई ये सोच सकता है कि कोई ये कहने की हिम्मत करे कि इस्लाम की कोई पुख्ता परिभाषा नहीं है? ऐसे शख्स को फौरन ईशनिंदा के आरोप में फांसी की सजा सुनाई जा सकती है. पर बाद के वर्षों में पाकिस्तान के राजनीतिज्ञों ने अपनी राजनीति को चमकाने और सत्ता में बने रहने के लिये जितना मजहब को स्पेस दिया, धर्म उतना ही हावी होता गया और मजहबी कट्टरपंथ ने आतंकवाद का रूप अख्तियार कर लिया. यही बाद में पाकिस्तान के टूटने की एक वजह भी बना और आतंकवाद का गढ़ भी पाकिस्तान बना.
भुट्टो आधुनिक था, पर सत्ता के लालच ने उसे कट्टपंथी मजहबियों की मदद लेने के लिए मजबूर कर दिया. भुट्टो ने इस्लाम को 'स्टेट रिलिजन' का दर्जा दिया, अहमदिया को इस्लाम से बेदखल किया, अल्पसंख्यकों को दोयम दर्जे का नागरिक भी बनाया. इसके बाद कट्टरपंथ ने फिर मुड़कर नहीं देखा.
जिया ने सेना का इस्लामीकरण किया, और पाकिस्तानी आतंकवाद की नींव डाली. आज पाकिस्तान में जिन्ना होते, तो यकीन नहीं कर पाते कि ये वही पाकिस्तान है, जहां उन्होंने कहा था कि मजहब एक निजी चीज है.
भारत में संविधान निर्माताओं ने काफी सोच-समझकर एक सेकुलर राष्ट्र की कल्पना की थी. धर्म को राजनीति से अलग रखा. यहां तक जब सोमनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार के मौके पर राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद जाना चाहते थे, तब ये बहस हुई थी कि क्या राष्ट्राध्यक्ष को किसी सार्वजनिक धार्मिक काम में हिस्सा लेना चाहिये या नहीं.
ये कल्पना धर्म के नाम पर दूसरे धर्म का निषेध करती है, दूसरे धर्मों की धार्मिक स्वतंत्रता को सीमित करती है. जब तक पाकिस्तान ने राजनीति में धर्म की दखलंदाजी नहीं होने दी, वो लोकतांत्रिक बना रहा, पर जैसे-जैसे धर्म राजनीति पर हावी होती गयी, पाकिस्तान के बिखराव और बदहाली का दौर शुरू हो गया.
मोदी को 2014 में वोट विकास का सपना दिखाने के नाम पर मिला था, हिंदू राष्ट्र के निर्माण के लिए नहीं. प्रधानमंत्री बनने के बाद भी वो विकास की ही बात करते रहे. हालांकि उनके रहते संघ परिवार ने हिंदुत्व के एजेंडे को खूब बढ़ाया और धर्म विशेष को इसका खामियाजा भी भुगतना पड़ा. पर एक मंदिर के महंत को एक राज्य की राजनीति की बागडोर देने का अर्थ है विकास के मुखौटे को नोचकर फेंक देना.
पाकिस्तान ने 1956 में जो गलती की, उसकी भरपाई आज तक वो कर रहा है. बीजेपी के इस कदम का खामियाजा आने वाला हिंदुस्तान उठा सकता है, क्योंकि धार्मिक कट्टरता एक बार जगह बना ले, तो फिर वो कट्टर से कट्टर होती जाती है, लोकतंत्र को खत्म कर देती है.
हम शायद पाकिस्तान से सबक लेने की जगह पाकिस्तान बनना चाहते हैं. ये चाहत खतरनाक है.
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(लेखक आम आदमी पार्टी के प्रवक्ता हैं. इस आलेख में प्रकाशित विचार उनके अपने हैं. आलेख के विचारों में क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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Published: 29 Mar 2017,12:04 PM IST