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उत्तर प्रदेश में कानून की मदद से आजादी की हवा को बांधने की कोशिश की जा रही है. इस बार कुख्यात उत्तर प्रदेश विशेष सुरक्षा बल एक्ट, 2020 के जरिए. दरअसल दिसंबर 2019 में बिना किसी याचिकाकर्ता के, इलाहाबाद हाईकोर्ट की डिविजन बेंच ने खुद ही अदालत में गोलीबारी की घटनाओं पर संज्ञान लिया. जिला अदालतों और निचली अदालतों में गोलीबारी एक आम बात हो गई है.
तब अदालत ने यह निर्देश दिया कि एडवोकेट्स के रिकॉर्ड्स, आईडी कार्ड, सीसीटीवी कैमरा, वादियों के प्रवेश के रिकॉर्ड रखे जाएं और एक ऐसा ‘विशेष प्रशिक्षित बल’ बनाया जाए, जो उत्तर प्रदेश की जिला अदालतों में सुरक्षा कायम करे. यह बल मौजूदा सीआरपीएफ के अतिरिक्त होगा.
अब योगी सरकार ने उत्तर प्रदेश विशेष सुरक्षा बल एक्ट, 2020 के जरिए एक ऐसी इलीट फोर्स तैयार की है जोकि केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल (सीआईएसएफ) और केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) की तरह काम करेगी.
यूपीएसएसएफ का कोई मेंबर, भले ही किसी भी रैंक का हो, वॉरन्ट या मेजिस्ट्रेट के आदेश के बिना किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकता है, उसे हिरासत में ले सकता है, किसी भी व्यक्ति या परिसर की तलाशी ले सकता है. उस मौके पर वह अधिकारी ही इस बात का फैसला करेगा कि वह गिरफ्तारी, हिरासत या तलाशी कितनी जरूरी है.
फिलहाल केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल के मेंबर्स के पास यह अधिकार है कि वे वॉरन्ट या मेजिस्ट्रेट के आदेश के बिना किसी की तलाशी, जब्ती, गिरफ्तारी या उसे हिरासत में ले सकते हैं. यह फोर्स 1968 से केंद्र सरकार के मातहत काम कर रही है. लेकिन यूपीएसएसएफ से यह कुछ अलग है. योगी सरकार ने इस कानून में कुछ अजीबो गरीब प्रावधान किए हैं जिसकी वजह से यह कानून अपने मूल उद्देश्य से भटकता सा महसूस होता है.
सीआईएसएफ में कुछ तयशुदा रैंक के अधिकारियों को बिना वॉरन्ट के तलाशी और जब्ती का अधिकार है. दूसरी तरफ यूपीएसएसएफ अपने सभी मेंबर्स को यह असाधारण अधिकार देता है. यहां तक कि 1949 से केंद्र सरकार के तहत काम करने वाले केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल के पास भी बिना वॉरन्ट के तलाशी लेने या गिरफ्तार करने का अधिकार नहीं है.
सीआरपीएफ देश का सबसे बड़ी केंद्रीय सशस्त्र पुलिस फोर्स है जो आंतरिक सुरक्षा बनाए रखने का काम करती है. इसके कई इस्टैबलिशमेंट्स हैं, 246 बटालियन हैं और इसमें तीन लाख से अधिक कर्मचारी हैं. यह कानून व्यवस्था बहाल करता है, साथ ही संसद की सुरक्षा इसी के जिम्मे है. सीमा सुरक्षा के लिए आर्मी की मदद करता है और इसके जवान विदेशी घुसपैठियों (पाकिस्तान और चीन) और नक्सलियों से दो-दो हाथ करते हैं.
देश में सीआरपीएफ ही आतंकवादी विरोधी अभियानों में हिस्सा लेती है. दुनिया भर के देशों में सीआरपीएफ की यूनिट्स को तैनात किया जाता है, संयुक्त राष्ट्र शांति सेना में भी इसी बल के जवान शामिल हैं.
सीआईएसएफ के कर्मचारियों की संख्या 1,80,000 है. उनका काम अब काफी बढ़ गया है. वह एयरपोर्ट्स, सीपोर्ट्स, मेट्रो रेल नेटवर्क, सरकारी इमारतें, धरोहरों स्मारकों की भी रक्षा के लिए तैनात किए जाते हैं.
इंडस्ट्रियल इस्टैबलिशमेंट्स और संवेदनशील इमारतों की रक्षा करने के अलावा सीआईएसएफ के जवान कुछ यूनिवर्सिटी और कॉरपोरेट सेक्टर के परिसरों की भी रखवाली करते हैं. सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के संगठनों को सलाहकार सेवाएं भी देते हैं. सीआईएसएफ काफी स्पेशलाइज्ड और ट्रेन्ड फोर्स है. आगजनी के बड़े हादसों में लोगों को सुरक्षित निकालने के लिए पूरी तरह से लैस है.
केंद्रीय सशस्त्र पुलिसबलों की यूनिट्स इलीट कॉर्प्स है. राज्य को जब भी इनकी जरूरत होती है, इन्हें तुरंत वहां भेज दिया जाता है. लेकिन फिर भी यूपी विशेष सुरक्षा बल को गैर जरूरी बनाया गया है और वही काम सौंपा गया है, हां, इसमें एक प्रावधान काफी डराने वाला है.
राज्य सरकार की पूर्व मंजूरी के बिना, यूपी विशेष सुरक्षा बल के किसी मेंबर पर किसी सिविल लायबिलिटी के लिए मुकदमा नहीं चलाया जा सकता है. इसके अलावा कोई अपराध करने, शारीरिक ताकत का बहुत ज्यादा इस्तेमाल करने, प्राइवेसी का उल्लंघन करने या किसी दूसरे नुकसान के लिए भी उन पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता, जब तक राज्य सरकार इसके लिए इजाजत न दे दे.
यह ऐसी इम्युनिटी है जो न तो सीआईएसएफ-सीआरपीएफ के कर्मचारियों के पास है और न ही किसी भी राज्य के विशेष पुलिस बल के पास. सीआईएसएफ और सीआरपीएफ के कर्मचारियों को तो कड़े दिशानिर्देशों और आचार संहिता का पालन करना पड़ता है.
हालांकि यह कानून यह भी कहता है कि कानून के लागू होने की तारीख से दो वर्ष की अवधि खत्म होने के बाद ऐसा कोई आदेश नहीं दिया जाएगा.
लेकिन यह पूरी तरह से सोची समझी रणनीति है. दो साल में योगी सरकार का कार्यकाल खत्म होने वाला है. उसे मार्च 2017 में चुना गया था. इसी से साफ होता है कि यूपीएसएसएफ की बटालियनों को जो पैनी ताकत और विशेष अधिकार दिए गए हैं, उसे कोई राजनैतिक पार्टी बेधार नहीं कर सकती- अगर 2022 में उत्तर प्रदेश से भाजपा सरकार विदा ले भी लेती है.
राज्य पुलिस बल को केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बलों से ज्यादा शक्तियां और इम्युनिटी देने की कोशिश की गई है. उत्तर प्रदेश को स्टेट विदइन अ स्टेट में बदला जा रहा है. जहां अपने एजेंडा और मकसद को पूरा करने के लिए शासन राजनैतिक नेतृत्व से इतर काम कर रहा है. कानून लागू करने वाली संस्थाओं को छद्म सेना में तब्दील किया जा रहा है जोकि रोजमर्रा के मामलों में दखल दे सकती है लेकिन विशेष प्रक्रियाओं के अतिरिक्त उसे किसी और तरह से उसके लिए सजा नहीं दी जा सकती.
उत्तर प्रदेश में कानून प्रवर्तन एजेंसियां को कानूनों से मुक्त कर दिया गया है जोकि अन्यथा कानून को सुनिश्चित करती हैं और संघ के भीतर अन्य राज्यों में नागरिक स्वतंत्रता की रक्षा करती हैं.
कानून में हर जगह यह बार-बार दोहराया गया है कि विशेष सुरक्षा बल राज्य पुलिस बल के अंग के रूप में काम करेगा. इस फोर्स के मेंबर्स भर्तियां और सेवा की शर्तें नियमित पुलिस अथॉरिटीज ही रेगुलेट करेंगी. उन पर कानून भी उसी तरह लागू होंगे.
लेकिन यूपीएसएसएफ का अपना कमांडिंग ऑफिसर होगा जोकि एडीजी रैंक का अधिकारी होगा. उसका कामकाज और शक्तियां नए एक्ट के अनुसार होंगी लेकिन सामान्य पुलिसकर्मियों पर जो प्रतिबंध हैं और उनके लिए जो दिशानिर्देश तय हैं, वे सब इस कमांडिंग ऑफिसर पर लागू नहीं होंगे.
यूपी पुलिस जिस तरह राजद्रोह यानी सेडिशन संबंधी कानूनों, यूएपीए, सीआरपीसी के सेक्शन 144, हाउस अरेस्ट और प्रिवेंटिव डिटेंशन, राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम, और यूपी गैंगस्टर कानून का दुरुपयोग कर रही है, इसे देखते हुए ऐसी किसी फोर्स की मौजूदगी चिंता पैदा करती है. इन सभी का इस्तेमाल करके विरोधी विचारधारा वाले लोगों को उत्पीड़ित करने की कोशिश की जा रही है और अदालतों को नजरंदाज किया जा रहा है.
स्थिति और भयावह हो जाएगी, अगर गिरफ्तार व्यक्ति को मेजिस्ट्रेट के पास या लॉक-अप में ले जाने से पहले पुलिस वालों को यह अधिकार मिल जाए कि वे खुद बिना वॉरन्ट के किसी को गिरफ्तार कर सकते हैं. जब वे खुद तय करने लगें कि कोई व्यक्ति ‘गिरफ्तारी में रुकावट पैदा कर रहा है’ या किसी अपराध में शामिल है.
2010 में इलाहाबाद के उसी जज के फैसले को आधार बनाकर उत्तर प्रदेश में सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों पर दिसंबर 2019 में हुई हिंसा के दौरान सार्वजनिक और निजी संपत्ति को नष्ट करने का आरोप लगाया गया. सरकार ने इस सिलसिले में एक कार्यकारी आदेश दिया था कि उनसे हर्जाना वसूला जाएगा.
हालांकि यह असंवैधानिक है कि कोई अदालत कार्यकारिणी को ऐसे ट्रिब्यूनल या दूसरी अथॉरिटीज़ बनाने का निर्देश दे जोकि लोगों के अधिकारों और लायबिलिटी को तय करे. यह सेपरेशन ऑफ पावर के सिद्धांतों का उल्लंघन है. न ही किसी सत्ताधारी पार्टी या कार्यकारिणी के आदेश के जरिए ट्रिब्यूनल या अदालत बनाई जा सकती है.
जब प्रदर्शनकारियों से हर्जाना वसूलने की प्रक्रिया को सुप्रीम कोर्ट और इलाहाबाद हाई कोर्ट की दूसरी बेंच में चुनौती दी गई तो योगी सरकार ने अपने आदेश को एक अध्यादेश में तब्दील कर दिया. इसके साथ उसने अपनी कार्रवाई को कानूनी जामा पहना दिया.
उसने विधानसभा में अपने बहुमत का इस्तेमाल कर उत्तर प्रदेश विशेष सुरक्षा बल अध्यादेश को अधिनियम के तौर पर पारित किया. जब तक लोग उसका विरोध करते, सरकार ने अपने पैरों तल की जमीन को मजबूत कर लिया.
सीआरपीएफ के जवान अदालती परिसर की पहले से सुरक्षा करते हैं. इलाहाबाद हाई कोर्ट को सिर्फ यह करने की जरूरत थी कि वे पुलिस प्रशासन के कान उमेठता. उससे कहता कि वह अदालती परिसर में तैनात पुलिसवालों को सही से प्रशिक्षित करे और पूरी चौकसी करने को कहे. इसके लिए किसी नई फोर्स को बनाने की जरूरत नहीं थी.
इलाहाबाद हाई कोर्ट के अति उत्साह के बावजूद राज्य कोई विशेष पुलिस बल बनाए, यह कोई बहुत असामान्य बात नहीं. हालांकि एक ‘विशेषज्ञता प्राप्त पुलिस बल’ के पास सामान्यतया विशेष कुशलता, प्रशिक्षण और संसाधन होते हैं ताकि वे उन अतिरिक्त, विशेष या मुश्किल कामों को अंजाम दे सके, जोकि नियमित पुलिसवाले नहीं कर पाते. किसी राज्य में ‘विशेष पुलिस बल’ का अर्थ यह नहीं होता कि उसे बहुत ज्यादा अधिकार दे दिए जाएं या हर किस्म की इम्युनिटी दे दी जाए.
योगी सरकार के एडीशनल चीफ सेक्रेटरी (गृह मामले) अवनीश अवस्थी ने कहा था कि इलाहाबाद हाई कोर्ट के आदेशों से इस विशेष सुरक्षा बल की जरूरत और वैधता साबित होती है. विधानसभा में जब यह बिल पास किया गया तो उसके उद्देश्यों और कारणों के कथन में भी यही बात कही गई है.
आम लोगों के सामने इस कानून को वैध बताने के लिए इसी तर्क का इस्तेमाल किया गया है. इलाहाबाद हाई कोर्ट के आदेश में सीधे तौर से यह नहीं कहा गया था कि राज्य में ऐसा कोई विशेष पुलिस बल बनाया जाए जिसके पास इतनी ताकत हो और उसे इतना उन्मुक्त कर दिया जाए. उसने सिर्फ यही कहा था कि ऐसी कोई विशेष यूनिट होनी चाहिए जो अदालती परिसर की खास तौर से हिफाजत करे.
अगर हाई कोर्ट यूपीएसएसएफ के असाधारण अधिकारों में कटौती कर भी देता है तो भी उत्तर प्रदेश विशेष सुरक्षा बल कायम रहेगा- ऐसा महसूस होता है. एक ऐसे राज्य में उसकी शक्तियां अपार होंगी, जोकि पहले से क्रूरता और एनकाउंटर में मौतों के लिए कुख्यात है.
लॉकडाउन के पूरी तरह से खत्म होने के बाद भी उत्तर प्रदेश के लोगों को पब्लिक स्पेस उस तरह नहीं मिलने वाला है, जैसा कि पहले मिला करता था या जैसा कि उन्हें याद है.
(रिया घोष लखनऊ की राम मनोहर लोहिया नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी से ग्रैजुएट हैं और लखनऊ जजशिप की अदालतों में प्रैक्टिसिंग एडवोकेट. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. द क्विट न इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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