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केंद्र में 1989 में गठबंधन सरकारों का ट्रेंड शुरू हुआ था. मेरा मानना है कि उसके बाद से राजनीति और गवर्नेंस में हम मनसबदारी के पुराने सिस्टम की तरफ लौटे हैं. भले ही देश में दो पार्टियों या दो ग्रुप (यूपीए और एनडीए) का सिस्टम बना हुआ है, लेकिन इस मामले में भारत की तुलना पश्चिमी देशों से नहीं की जा सकती.
हमारा दो ग्रुप का पॉलिटिकल सिस्टम पश्चिमी देशों से अलग है, तो इसमें कोई बुराई नहीं है. यह देश की डायवर्सिटी का आईना है.
अतीत में सेना में घुड़सवारों की संख्या काफी अहमियत रखती थी. एक मनसबदार का रुतबा इससे तय होता था कि वह कितने सैनिक राजा को दे सकता है. राजनीति में इसकी अहमियत है कि किसी नेता के पास कितने सांसदों या विधायकों का समर्थन है. आप आज के मुख्यमंत्रियों को ‘मनसबदार’ कह सकते हैं. इनके लिए अपना वजूद सबसे अधिक मायने रखता है. इस मामले में वह अपनी पार्टी के नेताओं के हितों की भी परवाह नहीं करता.
रामविलास पासवान को एक तरह से 'मनसबदार' कहा जा सकता है, जो शर्ट की तरह पाला बदलते रहे हैं. शिवराज सिंह चौहान, वसुंधरा राजे, रमन सिंह, योगी आदित्यनाथ दूसरी तरह के मनसबदार हैं. हालांकि, इनमें एक बात कॉमन है. उनका वजूद इस पर निर्भर करता है कि वे गठबंधन के लिए कितने घुड़सवार (सांसद या विधायक) दे सकते हैं.
मनसबदारी सिस्टम के नजरिये से देखें, तो एन चंद्रबाबू नायडू के एनडीए से करीब-करीब बाहर होने के फैसले से हैरानी नहीं होनी चाहिए. उनकी सारी समस्याएं फंडिंग से जुड़ी हैं ,जो उन्हें अपना राजनीतिक अस्तित्व बनाए रखने के लिए चाहिए.
नायडू कह रहे हैं कि आंध्र को केंद्र ने जितना फंड देने का वादा किया था, उसे पूरा नहीं किया गया है. वह राज्य के लिए स्पेशल स्टेटस चाहते हैं. इससे केंद्र से आंध्र को अधिक फंड मिलेगा. वह इसे अपने हिसाब से खर्च कर पाएंगे और इसके लिए उन्हें केंद्र सरकार के सवालों का सामना नहीं करना पड़ेगा.
नायडू की केंद्र सरकार से नाराजगी की एक वजह पल्लवरम प्रोजेक्ट भी है, जिसका कंट्रोल अभी केंद्र सरकार के पास है. नायडू चाहते हैं कि इसका कंट्रोल राज्य सरकार को दिया जाए और इस प्रोजेक्ट के लिए फंडिंग की कोई बंदिश न हो. उन्हें इस प्रोजेक्ट की केंद्र की निगरानी तक मंजूर नहीं है. असल में वह इस प्रोजेक्ट के ठेके देने के मामले में आजादी चाहते हैं.
एक और वजह यह है कि नायडू 2019 लोकसभा चुनाव के बाद अपने विकल्प खुले रखना चाहते हैं. अगले चुनाव में बीजेपी की ताकत इस लोकसभा के मुकाबले कम हो सकती है. नायडू को इसके लिए 18-20 सांसदों की जरूरत पड़ेगी.
गठबंधन की यह स्थायी समस्या है. यह जरूरी नहीं है कि अलायंस और उसके अलग-अलग धड़ों का हित हमेशा एक हो. एक राजनीतिक दल के अंदर भी ऐसा हो सकता है, लेकिन उसमें अलग होने का विकल्प नहीं होता. यानी गठबंधन को जो धागा एकजुट रखता है, वह नाजुक होता है. इसलिए जब भी बड़ा झटका लगता है, उसके टूटने का डर रहता है. जब तक गठबंधन के सभी धड़ों का हित एक होता है, तब तक सबकुछ ठीक रहता है. जब हित अलग होते हैं, तब टकराव का जोखिम बहुत बढ़ जाता है.
गठबंधन की राजनीति के केंद्र में सबसे अधिक सीटों वाली पार्टी होती है, जिसके लिए छोटे दल सुरक्षा कवच का काम करते हैं. अगर यह कवच हट जाता है, तो चुनावी नतीजे का अनुमान लगाना मुश्किल हो जाता है. इतना ही नहीं, किसी पार्टनर के अलग होने जनता का भरोसा भी कम हो सकता है.
बीजेपी 2016 में बिहार में यह देख चुकी है. उसे 2019 के आम चुनाव को ध्यान में रखकर आंध्र मामले पर विचार करना चाहिए. हर किसी को दोस्तों की जरूरत है और बीजेपी के कई दोस्त बहुत कम समय में उससे दूर हो रहे हैं.
(लेखक आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों पर लिखने वाले वरिष्ठ स्तंभकार हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)
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