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हरिद्वार की तरफ रफ्तार से बढ़ रही उत्कल एक्सप्रेस के भीतर क्या चल रहा होगा जब शनिवार शाम 5 बजकर 46 मिनट की उस मनहूस घड़ी ने दस्तक दी होगी:
एक मां ने ऊपर की बर्थ से झांकते 6 साल के बच्चे को ताकीद की होगी कि वो ऐसा न करे, गिर जाएगा. कितना लाड़ छिपा होगा, कितनी फिक्र, उस ताकीद में. शाम के नाश्ते के लिए बांध कर लाई गई पूड़ियों और ताजा अचार का डिब्बा खुला होगा तो बोगी महक उठी होगी.
किसी पिता ने वो मुड़ा-तुड़ा कागज फिर निकाला होगा जिसमें बेटी की शादी में बुलाए जाने वाले मेहमानों के नाम लिखे होंगे. उन्होंने रेल में खाली बैठे-बैठे 7 नाम और जोड़ कर, कुछ सोचते हुए ऊपर से 11वां नाम काट दिया होगा.
किसी भाई ने छोटे भाई को हरिद्वार में फोन करके बताया होगा कि मां के इलाज पर होने वाले खर्च की चिंता न करे, वो पैसे लेकर पहुंच रहा है.
खिड़की वाली सीट को लेकर दो भाई-बहन फिर झगड़े होंगे. सीट नंबर 45 पर वो नौजवान अपना व्हॉट्सएप मैसेज पढ़ कर मुस्कुराया होगा. शाम का वक्त था. चा...चा...गरम चा करते कुछ चाय वाले जरूर गुजर रहे होंगे.
साइड अपर पर बैठे भाई साहब उसी समय चाय के लिए नीचे उतरे होंगे. चाय के बहाने कितने संवादों ने एक सीट से दूसरी सीट और एक मन से दूसरे मन की दूरी तय की होगी. साइड अपर वाले भाई को पता लगा होगा कि साइड लोअर वाले भी उन्हीं के शहर के रहने वाले हैं. उनके मोहल्ले से पिछली गली में.
एक साहब बार-बार पूछ रहे होंगे कि अगला स्टेशन कौन सा है? 78 साल के एक बुजर्ग बार-बार बलगम थूकने के लिए वॉश बेसिन जाते थक गए होंगे और इस बार रेल की 'बहुपयोगी' खिड़की का फायदा उठाया होगा. मुजफ्फरनगर स्टेशन पर उतरने वाली सवारियों ने सामान बांध लिया होगा.
दोपहर के खाने के बाद मां से सटकर सोया 5 साल का बच्चा जागा होगा तो मां ने चिढ़ाते हुए कहा होगा कि सुबह हो गई है. उसने आंखें मिचमिचाकर खिड़की से बाहर देखा होगा.
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फिर घड़ी ने 5 बजकर 46 मिनट बजाए होंगे. मुजफ्फरनगर के पास खतौली में उत्कल पटरी से उतर गई.
उस बच्चे की सुबह अब कभी नहीं आएगी. न जाने कितने सवेरे, कितनी जिंदगियां लील गया ये रेल हादसा. मौत भले आंकड़ों का खेल होती हो, जिंदा लोग आंकड़े नहीं होते वो धड़कते हुए सपने होते हैं, उम्मीदें होते हैं. वो जिंदा होते हैं!
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Published: 20 Aug 2017,10:37 AM IST