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क्या उत्तराखंड की इस बड़ी आपदा को रोका जा सकता था?

पहले के हादसों और मौजूदा आपदा से यह साफ है कि हम संवेदनशील इलाकों की निगरानी सही तरीके से नहीं करते  

हिमांशु ठक्कर
नजरिया
Published:
(फोटो: PTI)
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(फोटो: PTI)

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उत्तराखंड में दुर्भाग्य से आपदाएं कोई नई बात नहीं, और 7 फरवरी, 2021 को इस पर्वतीय प्रदेश में एक और त्रासद हादसा हुआ. बर्फीली सर्दी में इतवार की सुबह इसकी उम्मीद नहीं की जा सकती थी. इसमें 26 लोगों की मौत होने की पुष्टि हुई है और 170 से ज्यादा लोग लापता हैं. इसके अलावा कई बांध, सड़कें, घर, पुल और दूसरे बुनियादी ढांचों को नुकसान हुआ है.

हालांकि इस त्रासदी में भी एक त्रासदी छिपी है. अभी यह सवाल तो शेष है ही कि इस आपदा को रोकने या इसके असर को कम करने की चेतावनी क्यों नहीं दी गई. जिस पर यह भी साफ नहीं हुआ है कि इस आपदा की शुरुआत कहां, कब और किस वजह से हुई. जिस जगह इसकी शुरुआत हुई, वहां इसका मैग्नीट्यूड यानी परिमाण कितना था.

आपदा की व्याख्या सबकी अपनी-अपनी है. उत्तराखंड की सरकारी एजेंसियां इसे ‘ग्लेशियर टूटना’ बता रही हैं. 520 मेगावॉट के निर्माणाधीन और अब नष्ट हो गए तपोवन विष्णुगढ़ हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट के डेवलपर एनटीपीसी के हिसाब से ये ‘हिमस्खलन’ है. कोई कह रहा है कि ‘ग्लेशियर के वॉटर पॉकेट्स टूट गए थे’, कोई इसे ‘बादल फटने’ की घटना कह रहा है. लेकिन अब तक पुख्ता सूचना नहीं मिली है कि आखिर हुआ क्या था.

आपदा की आशंका वाले क्षेत्रों की निगरानी नहीं की जाती

किसी भी आपदा से निपटने का सबसे जरूरी कदम क्या होता है- यही कि भरोसेमंद, निश्चित और समय रहते जानकारी मिले. लेकिन हम इसी में मात खाते हैं. अगर आपके पास जानकारी हो तो भी आपको पुख्ता आपदा प्रबंधन योजना बनानी होती है और ऐसी व्यवस्था भी करनी होती है जिससे यह योजना लागू की जा सके.

लेकिन हर बार की तरह इस बार के हादसे के बाद भी साबित होता है कि हम संवेदनशील क्षेत्रों की निगरानी सही तरीके से नहीं करते.

मौजूदा हालात में भरोसेमंद स्रोतों से जो जानकारी मिली है, उससे यही पता चलता है कि नंदा देवी बायोस्फीयर रिजर्व के आस-पास उत्तराखंड के चमोली जिले में ऋषिगंगा नदी के कैचमेंट एरिया में पिछले हफ्ते भारी बर्फबारी हुई (हमारे यहां की मौसम विभाग की मशीनों में बर्फबारी को मॉनिटर करने और वह कहां-कहां हुई है, इसकी जानकारी जुटाने की पूरी क्षमता नहीं है).

रविवार की सुबह, (और शायद एक दिन पहले भी) हिमस्खलन हुआ और इसके साथ ग्लेशियर झील या ग्लेशियर के एक वॉटर पॉकेट में बर्फ का एक बड़ा पिंड धसक कर पहुंच गया. इससे ग्लेशियर टूट गया. इसके बाद पानी और बर्फ भारी मात्रा में नीचे की तरफ बहे और साथ ही विकराल रूप में मलबा भी आया जोकि ग्लेशियर और पारा ग्लेशियर का हिस्सा होता है.

तैयारी की बात करना... कुछ ज्यादा ही हो गया

हमें और हमारी सरकारों को इसकी जानकारी तब मिली जब रैणी गांव ऋषिगंगा नदी के सैलाब की चपेट में आ गया. सत्तर के दशक में चिपको आंदोलन इसी गांव से शुरू हुआ था. गांव के कई घर और लोग इस तबाही के शिकार हुए, चूंकि कई लोग नदी किनारे अपनी भेड़ बकरियां चरा रहे थे.

इस सैलाब की सबसे बड़ी रुकावट थी, नदी पर बना बैराज जोकि कुछ ही क्षणों में ढह गया. अगला था, 13.2 मेगावॉट का ऋषिगंगा हाइड्रोपावर प्रॉजेक्ट जोकि देखते ही देखते नष्ट हो गया. फिर ऋषिगंगा नदी, धौलीगंगा नदी से जा मिली. इसके बाद तपोवन के विष्णुगढ़ हाइड्रोपावर प्रॉजेक्ट के निर्माणाधीन बांध की बारी आई. एनटीपीसी के इस प्रॉजेक्ट को एशियन डेवलपमेंट बैंक (एडीबी) ने फंड किया है. इस सैलाब ने इसे ध्वस्त करने में भी जरा देर नहीं लगाई. मलबा और पानी इसकी सुरंगों में घुस गया जहां काम चालू था. यहां बड़ी संख्या में मजदूर फंस गए.

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अब उफनती धौलीगंगा नदी विष्णुप्रयाग स्थित अलकनंदा नदी से जा मिली. यहां जोशीमठ में सेंट्रल वॉटर कमीशन ने बताया कि (जिसने संदर्प के ट्वीट करने के बाद अपनी चुप्पी तोड़ी) दोपहर 11 बजे पानी 3.11 मीटर के स्तर पहुंच गया था जोकि 2013 की बाढ़ के स्तर से ज्यादा था.

यहां 444 मेगावॉट का विष्णुगढ़ पीपलकोटी बांध भी बन रहा है जिसकी फंडिंग विश्व बैंक ने की है. ऐसी खबरें भी आई हैं कि टीएचडीसी के इस प्रॉजेक्ट और दूसरे मौजूदा 400 मेगावॉट के विष्णुप्रयाग प्रॉजेक्ट को भी नुकसान हो सकता है. यह तूफानी नदी अपेक्षाकृत समतल क्षेत्र में पहुंचकर कुछ शांत हो गई.

तो, वाराणसी वगैरह तक गंगा नदी की चौकसी करने, किसी संभावित हादसे की तैयारी करने के बारे में सोचना दूर की कौड़ी है. हालांकि प्रशासन ने इस बारे में कहा था.

संवेदनशील जगहों पर इंसानी दखल का असर

यहां यह समझना जरूरी है कि यह पूरी तरह प्राकृतिक आपदा नहीं है. हर बार एक रुकावट यानी बांध को तोड़ते हुए जब नदी में सैलाब आगे बढ़ा तो उसका रूप और भयानक होता गया और उसमें मलबा भी बढ़ता गया. इस तरह इंसानी हरकतों ने आपदा के असर को और खौफनाक बनाया.

सबसे ज्यादा नुकसान और मौतें ऋषिगंगा के साथ रैणी गांव, धौलीगंगा से अलकनंदा, और कुछ किलोमीटर नीचे जोशीमठ में हुईं. ऊपर जिन हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट्स का जिक्र है, उनके रास्ते में पड़ने वाले गांवों में सबसे ज्यादा मौतें हुईं. उत्तराखंड के मुख्यमंत्री ने भी इस क्षेत्र में निर्माणाधीन रेलवे और सड़कों के बारे में बताया जहां मजदूर फंसे हो सकते हैं या बाढ़ में बह सकते हैं.

उत्तराखंड में पहले भी ऐसे हादसे हो चुके हैं. बेशक, इस आपदा का कारण जलवायु का बदलता मिजाज भी है. इस तूफान की शुरुआत से इसका संकेत मिलता है. लेकिन इसके नुकसान की मात्रा को देखकर यही पता चलता है कि इस क्षेत्र में इंसानी दखल भी इसकी बहुत बड़ी वजह है.

बड़े हाइड्रोपावर प्रॉजेक्ट, बड़ी सड़कें, रेलवे लाइन और नदी के किनारों और तल पर निर्माण, और कुछ नहीं बड़ी आपदाओं को न्यौता देना ही है. ये सब किसी भरोसेमंद प्रभाव आकलन के बिना किया जाता है. इसके अलावा आपदा प्रबंधन योजनाएं भी नहीं बनाई जातीं.

बचाव कार्य बढ़िया लेकिन आपदा प्रबंधन ना के बराबर

क्षेत्र में आपदा की आशंका पर कोई विश्वसनीय आकलन नहीं किया जाता और न ही इसका अध्ययन किया जाता है कि इंसानी दखल की वजह से आपदा की ज्यादा जोखिम कैसे होता है. इसके बजाय ये प्रोजेक्ट्स हर तरह से नियमों का ताक पर रखकर चलाए जाते हैं. जैसे डायनामाइट का इस्तेमाल और नदी में लाखों क्यूबिक मीटर मलबा डालना.

इस इलाके में बड़े हाइड्रोपावर प्रॉजेक्ट्स कभी भी व्यावहारिक नहीं थे और न ही लोग इनके पक्ष में रहे हैं. बिजली के सस्ते स्रोत उपलब्ध हों तो यह आर्थिक रूप से भी उपयुक्त भी नहीं. और हां, इन पर जनता का बड़ा पैसा और संसाधन लगते हैं. इसके बावजूद आपदा का खतरा पैदा करने वाले ऐसे प्रॉजेक्ट्स को जबरन लोगों और इन क्षेत्रों पर थोपा गया है.

हमारे बचाव अभियान बेहतरीन हैं, जोकि इस आपदा के दौरान भी नजर आए.

हालांकि यह भी दिखाई दिया कि हमारी आपदा प्रबंधन प्रणाली कितनी खराब है (जोकि आपदा के बाद राहत और बचाव कार्य तक सीमित नहीं होते) और बीते हादसों से सीख लेने की क्षमता भी.

जून 2013 में उत्तराखंड सबसे भयावह त्रासदी का गवाह बना था. लेकिन आज तक हमें यह नहीं पता चला है कि आखिर वहां हुआ क्या था. किन कारणों ने अहम भूमिका निभाई थी, उससे हम क्या सीख ले सकते हैं और उस सीख को जमीनी स्तर पर कैसे उतार सकते हैं. मतलब हमारे पास ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है जो हमें आपदाओं से सीख लेने में मदद करे. और शायद इस विपदा की सबसे बड़ी विपदा भी यही है- यानी, जैसा पहले भी कहा है, त्रासदी के भीतर त्रासदी.

(हिमांशु ठक्कर साउथ एशिया नेटवर्क फॉर डैम्स, रिवर्स एंड पीपुल (संदर्प) में एक एक्सपर्ट हैं. यह एक ओपनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)

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