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कई बार ऐसा होता है कि जो गड्ढा आप दूसरों के लिए खोदते हैं, उसमें खुद भी गिरने लगते हैं. बीजेपी के नेताओं के साथ दो दिनों से यही हो रहा है. दूसरों से 'वंदे मातरम' गवाकर देशभक्ति का सर्टिफिकेट बांटने वाले नेता देशभक्ति के LIVE टेस्ट में खुद फेल हो रहे हैं.
दो दिन पहले एक चैनल के वायरल वीडियो के बाद बीजेपी नेताओं का ये इम्तिहान न्यूज चैनलों के कैमरे पर शुरू हुआ. नतीजे आने लगे, तो पता चला कि जो लोग हर हाल में वंदे मातरम गाने-गवाने की मुहिम चला रहे हैं, उन्हें खुद ही इसकी चार लाइनें नहीं आती.
बहुतों का तो ये हाल था कि वन्दे मातरम के बाद 'सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम्' होता है, ये भी नहीं पता. आगे की बात भूल ही जाइए.
कोटा, जबलपुर, उदयपुर, ग्वालियर, जयपुर... जहां-जहां कैमरा घूमा, वहां-वहां नेताओं के सिर घूमे. किसी से वंदे मातरम गाया न गया. हां ये जरूर है कि फेल होने के पहले जब तक वंदे मातरम पर प्रवचन देने का मौका था, तब तक सभी ये कहते नजर आए कि वंदे मातरम को सबके लिए अनिवार्य कर देना चाहिए. किसी-किसी का टोन तो कुछ यूं था कि नगर निगम में रहना है, तो वंदे मातरम कहना है.
सबसे दिलचस्प बात ये है कि वंदे मातरम टेस्ट में फेल बीजेपी नेताओं-पार्षदों में जयपुर नगर निगम के भी कई ‘देशभक्त’ थे, जिनके मेयर अशोक लाहौटी दो दिन पहले ही फरमान जारी कर चुके हैं कि निगम के कामकाज की शुरुआत राष्ट्रगान के साथ होगी और शाम को राष्ट्रगीत से समापन होगा.
अगर इसी नगर निगम के बीजेपी पार्षदों से कोई पूछ लें वंदे मातरम राष्ट्रगीत है या राष्ट्रगान, तो यकीनन इसमें भी ज्यादातर फेल ही होंगे.
जयपुर नगर निगम के महापौर ने ये भी कहा है, ‘जो राष्ट्रगान और राष्ट्रगीत नहीं गा सकते, वो पाकिस्तान चले जाएं.’ तो अब अगर पाकिस्तान जाने का ये आधार है, तो इनका क्या हो, जो पाकिस्तान भेजने वाली टीम का ही हिस्सा हैं. ये तो हाल है छोटे ‘देशभक्तों ‘ यानी छोटे नेताओं का.
साथ में अगर एकाध सवाल बंकिमचन्द्र और टैगोर के बारे में पूछ लें, तब तो इनके दिमाग की सारी खिड़कियां एक साथ ऐसे बंद जाएगी कि जोर डालने पर नहीं खुलेगी. वंदे मातरम पर विवाद और बवाल तो आए दिन किसी न किसी शहर से या किसी नेता के बयान से शुरू होता है, लेकिन ताजा विवाद शुरू हुआ सोशल मीडिया पर वायरल न्यूज चैनल के एक वीडियो से.
देशभक्ति पर हो रही बहस के दौरान एक मौलाना ने बीजेपी के प्रवक्ता नवीन कुमार सिंह को ऑन एयर वंदे मातरम गाने की चुनौती दे दी. नेताजी फंस गए. बिना गाए बच निकलने के लिए मौलाना से तू-तू-मैं-मैं करते रहे . मौलाना साहब अड़े रहे कि पहले गाकर सुनाओ, तब मानेंगे.
नेताजी ने मोबाइल देखकर वंदे मातरम शुरू किया तो मौलाना अड़ गए कि बिना पढ़े सुनाइए. अब नेता जी की हालत मरता क्या न करता वाली हो गई. मोबाइल से नजरें तो हटा ली, लेकिन दो ही लाइन पर अटक गए. उसके बाद मेमोरी लॉस. ऑन एयर उनकी फजीहत होती रही.
दोबारा उन्होंने फिर शुरू किया. इस बार मोबाइल देखकर भी वंदे मातरम पढ़ न सके. हर शब्द पर अटके. लड़खड़ाए. गलती की और अपनी भद्द पिटवा कर वहां से निकले. याद हो तब न सुनाते. भाई, जो वंदे मातरम दुनिया के लिए अनिवार्य करना चाहते हो, उसे पहले अपने लिए तो अनिवार्य कर लो. पूरा नहीं, तो आधा ही कंठस्थ कर लो.
तो अब ऐसे इम्तिहानों में अपने नेताओं को फेल होने से बचाने के लिए बीजेपी को मुकम्मल इंतजाम करने की जरूरत है. दुनिया से वंदे मातरम गवाना है, तो पहले खुद तो सब गाना सीख लें. अब पार्टी को अपने ऐसे नेताओं को न्यूज चैनल पर डिबेट में भेजने से पहले उनका देशभक्ति टेस्ट करा लेना चाहिए. उनसे राष्ट्रगीत और राष्ट्रगान सुनकर टेस्ट कर लेना चाहिए कि वो डिबेट में जाने लायक हैं कि नहीं.
ऐसा न हो कि आप बिहार की रूबी कुमारी की तरह खुद ही फेल डिवीजन हों, पीछे के दरवाजे से डिस्टिंक्शन लेकर लेक्चर झाड़ रहे हों. तो इसके लिए जरूरी है कि पार्टी की तरफ से देशभर में पाठशालाएं लगाई जाएं.
पार्टी के जिला और राज्य मुख्यालयों में ऐसी पाठशालाओं का इंतजाम हो. केन्द्रीय पर्यवेक्षक की मौजूदगी हो, ताकि वंदे मातरम कंठस्थ कराने की इस मुहिम में कोई पिछला दरवाजा न हो. फिर लिस्ट बन जाए कि इन्हें पूरा याद हो पाया. इन्हें आधा याद हो पाया. इस आधार पर मार्किंग करके नेताओं की रैंकिंग तय हो जाए.
इससे टीवी चैनलों में डिबेट के लिए अपने नेताओं को भेजने वाली मीडिया टीम को भी सहूलियत होगी. जिस भी टीवी डिबेट में देशभक्त का दरवाजा खुलने की थोड़ी भी गुंजाइश हो, वहां कम रैंकिंग वालों को न भेजा जाए.
देशभर में फैले लाठीमार दस्ते के लिए नियम थोड़े और सख्त हों, ताकि अगली बार वो वंदे मातरम के लिए लाठी लेकर निकलें, तो एक बार अपनी मेमोरी चिप जरूर चेक करे लें. और हां, जो सरेआम देशभक्ति साबित करने के इस इम्तेहान में फेल हों, उनके लिए कड़ी सजा मुकर्रर हो.
ऐसा नहीं है कि बीजेपी नेता कोई पहली बार वंदे मातरम या जन-गण-मन गाने में नाकाम रहे हैं. जब भी ऐसे विवाद होते हैं, उनका यही फेल सा चेहरा सामने आता है. कुछ महीने पहले ही एक चैनल पर दस मिनट तक यूपी सरकार के मंत्री बलदेव औलख की फजीहत होती रही, लेकिन वो वंदे मातरम सुना न सके.
एंकर ने बार-बार मंत्री जी को याद दिलाया कि आप जब दूसरों से जबरदस्ती गवाने पर आमादा हैं, तो आपको तो वंदे मातरम आना चाहिए. उन्होंने ऑन एयर इतनी जलालत झेली कि शायद घर जाकर घंटों अफसोस में रहे होंगे कि आज कहां फंस गया.
बीजेपी अगर अपनी पार्टी के सांसदों, विधायकों और नेताओं का सर्वे करवा ले कि कितने ऐसे लोग हैं, जिन्हें राष्ट्रगीत और राष्ट्रगान याद है? कितने हैं, जिन्हें राष्ट्रगान और राष्ट्रगीत का फर्क पता है? कितने ऐसे हैं, जो मोबाइल पर देखकर भी राष्ट्रगीत को शुद्ध -शुद्ध पढ़ सकते हैं? कितने हैं, जिन्हें अपनी पार्टी के आइकॉन श्यामा प्रसाद मुखर्जी और दीनदयाल उपाध्याय के बारे में पता है? तो सबकी असलियत सामने आ जाएगी.
इनमें से कितने को पता है कि वंदे मातरम का इतिहास क्या है. जिस वंदे मातरम को गाते-गाते भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, रामप्रसाद बिस्मिल और अशफ़ाक़ुल्लाह ख़ान फांसी के फंदों पर झूल गए थे, जो गीत अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ हुंकार भरने का काम करते थे, उस गीत को बेवजह सियासी फायदे के लिए मुद्दा बनाया जा रहा है.
मुसलमानों ने इस गीत की भावनाओं के खिलाफ एतराज जताया, तो कुछ हिस्सों को इस गीत के पहले दो पद को कांग्रेस की कार्यसमिति की तरफ राष्ट्रीय आयोजनों में गाने के लिए मंजूर किया गया. बाद के हिस्सों पर विवाद था, क्योंकि इसके बाद दुर्गा की स्तुति है.
विवाद सुलझाने के लिए गांधी, नेहरू, अबुल कलाम आज़ाद और सुभाष चंद्र बोस को लेकर 1937 में एक समिति बनाई, जिसने इस गीत पर बहुत से लोगों से रायशुमारी भी की थी. आजादी के बाद जब राष्ट्रगान तय करने की बारी, आई तो 24 जनवरी 1950 को टैगोर लिखित जन गण मन को राष्ट्रगान के तौर पर संविधान सभा ने मान्यता दे दी.
इतिहास देखेंगे, तो चाहे इकबाल का लिखा सारे जहां से अच्छा हो, वंदे मातरम हो या फिर पहली बार 16 दिसंबर 1911 को कांग्रेस के कोलकाता अधिवेशन में गाया जन-गण-मन, सब आजादी से पहले कांग्रेस के कार्यक्रमों के तराने रहे हैं.
हाल के वर्षों में बीजेपी नेताओं ने वंदे मातरम को लेकर ऐसा माहौल बनाने की कोशिश की है, जैसे वंदे मातरम से सिर्फ वही मोहब्बत करते हों. करें, लेकिन खुद गाना तो सीखें.
सुप्रीम कोर्ट ने भी इसी तरह का आदेश दे दिया. लेकिन दस दिन पहले ही सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले पर नरम रुख अख्तियार करते हुए कहा कि देशभक्ति साबित करने के लिए सिनेमाघरों में राष्ट्रगान के समय खड़ा होना जरूरी नहीं है.
कोर्ट ने केंद्र सरकार से ये भी कहा कि सिनेमाघरों में राष्ट्रगान बजाने को नियंत्रित करने के लिए नियमों में संशोधन पर विचार किया जाए. यदि कोई व्यक्ति राष्ट्रगान के लिए खड़ा नहीं होता है, तो ऐसा नहीं माना जा सकता कि वह कम देशभक्त है. सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने कहा कि वह सरकार को अपने कंधे पर रखकर बंदूक चलाने की अनुमति नहीं देगी.
कोर्ट के साफ -साफ कहने के बाद भी सियासी फायदे के लिए वंदे मातरम गाने और न गाने को मुद्दा बनाने वाले नेता जानबूझकर एक ऐसा माहौल पैदा करते हैं , जिसे वंदे मातरम के पक्ष और विपक्ष के चेहरे सामने आएं.
इधर से बीजेपी के नेता बोलते हैं, तो उधर से ओवैसी, आजम खान, अबू आजमी, वारिस पठान, इमाम बुखारी समेत कई मौलाना, मौलवी हम क्यों गाएं, वंदे मातरम जैसे बयानों के साथ माहौल को गरम करने आ जाते हैं.
भूख, भात, गरीबी, बेरोजगारी, पानी, बिजली, महंगाई के मुद्दों पर बहस होने की बजाय बहस कौन देशभक्त और कौन देशद्रोही पर होने लगती है. इससे फायदा जिसे भी हो, देशहित तो कतई नहीं सधता.
(अजीत अंजुम जाने-माने जर्नलिस्ट हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)
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Published: 02 Nov 2017,10:30 PM IST