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कर्नाटक में में समाज का एक तबका, खास तौर से कोडागू के लोग, राज्य में बीते 10 नवंबर को टीपू सुल्तान की जयंती मनाए जाने से नाराज हैं.
ये नाराजगी पहले ही दो जानें ले चुकी है और साहित्यकार गिरीश कर्नाड को जान से मारने की धमकी भी दी गई है.
लोग ये सवाल पूछ रहे हैं कि वो उस टीपू सुल्तान को इज्जत कैसे दे सकते हैं जिसने केरल पर लगातार हमले किये?
इस तरह के प्रतिकूल निष्कर्ष दिए जाने का एक कारण ये भी है कि 18वीं सदी में प्रचलित युद्ध रणनीतियों की वर्तमान मानव अधिकारों के मानदंडों के आधार पर फिर से व्याख्या की जा रही है.
प्रसिद्ध सैन्य इतिहासकार कालेब कैर ने मानव इतिहास के दौरान विकसित हुई युद्ध रणनीतियों का विश्लेषण किया है. उन्होंने वॉन क्लाउजविट्ज़ के लेखन के माध्यम से अमर हुए “निरपेक्ष युद्ध” का विशेष रूप से विश्लेषण किया है.
साल 1812-14 में जब अमरीका अपनी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहा था तो उस दौर की ब्रिटिश औपनिवेशिक सेना की, “निरपेक्ष युद्ध” की अवधारणा पर आधारित अनकही ज्यादतियों के बारे में जान कर हम हैरान रह जाएंगे.
“ब्रिटिश हमले आश्चर्यजनक रूप से बर्बर थे; अमेरिका के लोगों की लड़ने
की इच्छा को तोड़ने की कोशिश में पुरुष नागरिकों और सैनिकों के साथ-साथ महिलाओं और
बच्चों की भी हत्या कर दी गई.”
निष्कर्ष ये है कि इतिहास में दर्ज किए गए अपने नेताओं की युद्ध नीतियों के बारे में जानकर हम उनसे घृणा करने लगे हैं.
हम ये भी भूल गए हैं कि टीपू ने सिर्फ अपने पिता हैदर अली की रणनीति का पालन किया जो 1756 से 1782 के बीच केरल पर पांच सफल आक्रमण कर चुके थे. टीपू सुल्तान ने खुद 1783 से 1790 के बीच वर्तमान केरल राज्य पर तीन बार हमला किया था. उसकी सैन्य रणनीति बिल्कुल अपने पिता के समान थी.
टीपू सुल्तान ने मैसूर और दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों पर 1782 से 1799 तक शासन किया.
हैदर की तरह, टीपू को भी केरल के झगड़ते रहने वाले स्थानीय शासकों ने क्षेत्र में हस्तक्षेप करने के लिए आमंत्रित किया था ताकि वे कोझिकोड के विस्तारवादी जमोरिन जैसे लुटेरों को दूर रख सकें.
हैदर और टीपू दोनों ही, अंग्रेजी, डच और पुर्तगाली व्यापारियों की विस्तारवादी प्रतिद्वंद्विता में उलझे हुए थे. हालांकि टीपू का 1790 का केरल अभियान बहुत सफल रहा था और उसने कोडुंगल्लूर क्षेत्र तक अधिकार कर लिया था. लेकिन, जब ब्रिटिश सैनिक उसकी राजधानी श्रीरंगपट्टनम की ओर बढ़े तो उसे पीछे लौटना पड़ा.
प्रथम दृष्टया यह आरोप कि ये पिता और पुत्र कट्टर धार्मिक थे, खारिज हो जाता है.
इतिहासकार ए श्रीधर मेनन कहते हैं कि 1864 से ही आनंद राव, श्रीनिवास राव और मदन्ना जैसे कई हिंदू केरल क्षेत्र में हैदर के भरोसेमंद दूत और राज्यपाल थे.
मेनन ये भी कहते हैं कि मैसूर के आक्रमणकारियों ने केरल में दबदबा रखने वाली ऊंची जातियों को पलायन करने के लिए मजबूर कर दिया था
उनके सैनिकों ने मंदिरों में शरण लेने की कोशिश की क्योंकि पिछले हिंदू आक्रमणकारियों ने धार्मिक स्थलों पर कभी हमला नहीं किया था. लेकिन टीपू ने उस परंपरा का पालन नहीं करते हुए ताकत का इस्तेमाल किया और उन्हें मंदिरों से बाहर निकाला.
मेनन के अनुसार उसने ऐसा किसी धार्मिक पूर्वाग्रह के चलते नही किया.
मेनन उन मंदिरों में लूट की संभावना से इनकार नहीं करते जहां दुश्मन सैनिक छिपे थे लेकिन वे यह भी कहते हैं कि टीपू ने गुरुवयूर और तिरुवंचिकुलम के प्रसिद्ध मंदिरों के लिए भूमि और नकदी दान भी की थी.
इसी तरह का एक और आकलन प्रसिद्ध इतिहासकार आर.सी. मजूमदार का भी था. वे कहते हैं कि टीपू ने सामूहिक धर्मांतरण का सहारा नहीं लिया था “केवल उसने उन अक्खड़ हिंदुओं को मजबूर किया जिनकी निष्ठा पर वह भरोसा नहीं कर सकता था.”
वे टीपू के खिलाफ 1792 के युद्ध में लेने वाले, भारत में ब्रिटिश सेना के मेजर अलेक्जेंडर डिरोम का उदाहरण देते हैं:
टीपू सुल्तान केरल का एक योग्य शासक था.
सेवा से मिली आय या कृषि उपज के अनुसार दिया जाने वाला टैक्स उसी ने शुरू किया था.
ये टैक्स बिचौलियों को नहीं सीधे सरकार को पहुंचता था. टीपू सुल्तान को सड़क बनवाने में भी महारत हासिल थी.
इसके अलावा, टीपू ने यूरोपीय व्यापारियों को कृषि वस्तुओं की कीमतों से छेड़छाड़ रोककर स्थानीय कृषकों का शोषण रोका. उस समय मसालों की कीमतें राज्य द्वारा तय की जाती थीं.
(लेखक कैबिनेट सचिवालय के पूर्व विशेष सचिव हैं.)
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Published: 14 Nov 2015,01:36 PM IST