advertisement
गुड़गांव का एक अच्छा सा जिम. ये लोकेशन है 2008 बीजिंग ओलंपिक में ब्रांज मेडल जीतने वाले मुक्केबाज विजेंदर सिंह और मेरे इंटरव्यू की. दोपहर का समय है. इस इंटरव्यू के बाद विजेंदर को भी जिम में ट्रेनिंग करनी है. पसीना बहाना है. पिछले 20 साल से भी ज्यादा समय से विजेंदरपसीना बहा रहे हैं. विजेंदर के आते ही जेहन में पहला सवाल तो यही आता है कि प्रोफेशनल बॉक्सिंग में आने के बाद इन दिनों शेड्यूल क्या रहता है.
विजेंदर बताते हैं- “सब अच्छा चल रहा है. इन दिनों दिल्ली में ही हूं. आजकल परिवार के साथ अच्छा समय बीता रहा हूं. बॉक्सिंग और ट्रेनिंग में तो समय जाता ही है. प्रोफेशनल बॉक्सिंग में कुछ बड़ा करने की तैयारी में हैं.”
विजेंदर पहले के मुकाबले अब ‘टेंशन’ में कम दिखते हैं. उन्होंने अपने करियर में कामयाबी और चुनौती के सभी दौर देख लिए हैं. विवादों की काली छाया भी उनके पीछे पड़ी है. जिससे अब वो बाहर निकल चुके हैं. उन्हें समझ आ चुका है कि जिंदगी में खेल के अलावा भी बहुत कुछ है. हां लेकिन अपनी टिपिकल हरियाणवी स्टाइल में वो ये कहने से भी नहीं चूकते हैं कि बॉक्सिंग के अलावा कुछ आता नहीं है. असल मायने में विजेंदर अब पहले से कहीं ज्यादा परिपक्व यानी ‘मेच्योर’ हो गए हैं.
अब उनका बचपन उनके करीब पांच साल के बेटे में देखा जा सकता है. मैं विजेंदर को याद दिलाता हूं कि पिछली बार जब हम मिले थे तो वो करीब तीन साल का था. तरह तरह की बदमाशी करता था. अब तो शरारतें थोड़ा और बढ़ गई होंगी. कभी कभी उसके साथ भी बॉक्सिंग करते हैं क्या? ये सवाल विजेंदर के लिए थोड़ा नया है क्योंकि सालों साल बीत गए अपनी ट्रेनिंग के बारे में बताते हुए. विजेंदर कहते हैं-
उनकी ये बात दुनिया के हर पिता की चाहत जैसी है. एक बार उन्होंने खुद ही एक इंटरव्यू में मुझे बताया था उनके पिता ने कभी उन्हें किसी किस्म की कमी नहीं होने दी. विजेंदर वो वीडियो गेम वाला किस्सा क्या था, उनके चेहरे पर मुस्कान है. कहते हैं-
‘मारियो’ उस वक्त खूब चलता था. अंत में एक दिन मैंने घर में जिद छेड़ ही दी कि मुझे भी वीडियो गेम चाहिए. घर बन रहा था. उसके खर्चे के बीच पांच सौ रुपये का वीडियो गेम. पिताजी ने मना कर दिया, मैं जिद पर अड़ गया. मैंने तीन-चार दिन की भूख हड़ताल तक कर दी. आखिर में पिता जी ने वीडियो गेम दिला ही दिया. उस रोज मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था.
भिवानी जो असल मायने में विजेंदर की कर्मभूमि है, वहां भी वो इतनी आसानी से नहीं पहुंचे. विजेंदर बताते हैं- “पहले तो घर में लोग तैयार ही नहीं थे. घर पर सभी को लगता था कि चोट लग जाएगी. इसके अलावा बॉक्सिंग सेंटर स्कूल से करीब तीन किलोमीटर दूर था. कभी बस से जाते थे. कभी वैन से. कभी कभी कोई ‘लिफ्ट’ दे दिया करता था. कुछ नहीं मिला तो 11 नंबर की बस यानी पैदल पैदल ही सेंटर के लिए चले जाते थे”.
ये मेहनत और जुनून 90 के दशक के आखिरी सालों में रंग दिखाने लगा था. विजेंदर सिंह स्कूल स्टेट से लेकर नेशनल्स तक खेलने लगे थे. 2000 में पहली बार वो नेशनल्स में गोल्ड मेडल जीत कर आए थे. 2003 में ऑल इंडिया यूथ चैंपियन का खिताब भी उन्होंने जीता था. 2003 में बतौर खेल पत्रकार मैं एफ्रो एशियन गेम्स कवर कर रहा था और वो पोडियम पर सिल्वर मेडल जीतकर खड़े थे. इसके बाद 2004 में उन्हें एथेंस ओलंपिक में जाने का मौका मिला.
2008 में भी जब विजेंदर ने बॉक्सिंग में ब्रांज मेडल जीता तो मैं वो ओलंपिक कवर कर रहा था. वहीं बॉक्सिंग एरिना में था। उस वक्त विजेंदर सिंह ने गले में ओलंपिक ब्रांज मेडल लटकाए एक बात मुझसे कही थी जो मुझे याद थी. मैंने कहा विजेंदर याद है आपको आपने बताया था कि आप उस बाउट को खेलने जाने से पहले ये नोट करके गए थे अगर आप जीत गए तो आप स्टार हो जाएंगे और अगर हार गए तो आपको कोई याद नहीं रखेगा.
विजेंदर कहते हैं- “अब तो नए बॉक्सर्स के लिए कुछ करना है”. इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है. वक्त विजेंदर की ट्रेनिंग का हो गया है, जहां उन्हें मुंह से नहीं मुक्कों से बात करनी है.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)
Published: 29 Oct 2018,08:32 AM IST