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विकास दुबे : अपराध, सियासत और पुलिस के त्रिकोण का चौथा कोण-जाति

मुलायम सिंह जब CM तो पश्चिम उप्र में महेंद्र फौजी का एनकाउंटर हुआ. जाति के लोग इतने नारा हुए कि वोट नहीं दिया.

डॉ. उदित राज
नजरिया
Published:
विकास दुबे का पुलिस ने शुक्रवार को एनकाउंटर कर दिया
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विकास दुबे का पुलिस ने शुक्रवार को एनकाउंटर कर दिया
(फोटो: PTI/Altered by Quint)

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खुद की जाति का अपराधी नायक होता है और गैर जातियों का खलनायक. विकास दुबे की भी यही कहानी है. विकास दुबे या उसके साथी जो भी काम अंजाम देते थे जाति के लोग गौरव महसूस करते. लेकिन यह मामला अलग है, क्योंकि अपराध पुलिस के खिलाफ किया. 8 पुलिसकर्मियों की हत्या के बाद भी सोशल मीडिया पर जाति बिरादरी के लोगों ने आदर्श मानने का प्रयास किया लेकिन कृत्य ही ऐसा था कि बहुत ज्यादा नहीं चल पाया.

यह लगभग सभी जातियों की मानसिकता है. मुलायम सिंह जी जब मुख्यमंत्री थे तो पश्चिम उप्र में महेंद्र फौजी का एनकाउंटर हुआ. जाति के लोग इतने नारा हुए कि वोट नहीं दिया. मायावती की सरकार में ददुआ मारा गया तो जाति ने वोट न देकर बदला लिया. कुछ कार्य घृणित और आपराधिक किस्म के होते हैं, ऐसी परिस्थिति में कोई भी कृत्य हो कमोवेश उसकी निंदा होती है. लेकिन कई बार अपराध के बाद भी जाति स्वागत करती है.

सामाजिक मूल्य बदलते रहते हैं और उसी के अनुसार अपराध का किस्म भी अच्छा और बुरा होता जाता है. जाति जब राजनीति में कार्य करती है, उसे बुरा नहीं माना जाता. मनुस्मृति के जमाने में जब शूद्र की हत्या या उससे दुर्व्यवहार किया जाता था तो उस समय के सामाजिक मूल्य इसको सामान्य बात मानते थे. 80 के दशक के बाद अपराधी सीधे राजनीति में आने लगे.

राजनीतिक दलों ने देखा कि अपराधियों के पीछे उनकी जाति का समर्थन अच्छा खासा है, तो क्यों न उनको ही सांसद या विधायक बनाया जाए. ऐसा नहीं कि ये पहली बार हो रहा था. इसके पूर्व अपराधी परदे के पीछे से राजनीति को प्रभावित करते थे . 70 और 80 के दशक अबतक सबकी यादों में हैं, जब बिहार में सैकड़ों कि संख्या में दलितों को मौत के घाट उतार दिया जाता था. लक्ष्मणपुर से लेकर बाथे तक बिहार दर्जनों नरसंहारों का साक्षी रहा है.

भूमिहार जाति से जुडी रणवीर सेना इस कार्य को अंजाम देती थी, जिसको बिरादरी तन मन और धन से सहयोग करती थी. दिल्ली तक से जाति के लोगों का चंदा जाता था. सेना के नेता ब्रह्मेश्वर मुखिया को बिरादरी ने अपना गौरव मान लिया था. ब्रह्मेश्श्वर मुखिया की हत्या के बाद पटना की सड़कों पर जिस तरह से इस जाति के लोगों ने तांडव मचाया था, वो कई दिनों तक मीडिया में छाया रहा था.

जाति एक ऐसा सच है जो व्यापार, न्यायपालिका, शादी-विवाह सब में प्रभाव छोड़ता है. उदाहरण के तौर पर इसे ऐसे समझा जा सकता है कि बड़ा ठेकेदार अपनी ही जाति के लोगों को काम देता है. वैश्य बिरादरी में ही कारोबार करने को प्राथमिकता देते हैं. कई ऐसे पेशे हैं जिसमे किसी दूसरी जाति को घुसने भी नहीं देते हैं, हां कुछ अपवाद हो सकते हैं.

सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जातिवादी ढांचे से बेहतर कोई उदाहरण नहीं हो सकता. जब जाति योग्यता का मापदंड बन जाए तब शैक्षिक योग्यता मायने नहीं रखती. सबसे दिलचस्प ये है कि जज बनने के लिए ना ही कोई लिखित परीक्षा है न कोई साक्षात्कार इससे जाति के लोगों का चुनाव करना बेहद आसान हो जाता है.

विकास दुबे का मामला पुलिसवालों की सामूहिक हत्या से जुड़ा था, इससे बड़ा संवेदनशील हो गया है वरना ऐसे अपराध माफिया करते ही रहते हैं. सही मायने में विकास दुबे संगठित अपराध की दुनिया की बहुत ही छोटी मछली है. अभी भी उत्तर प्रदेश और बिहार में इससे सौ गुना ज्यादा संख्या में ऐसे अपराधी मौजूद हैं, जो खुद अपराध न करके करवाते हैं. उनका प्रभाव इतना बड़ा है कि सांसद, विधायक और मंत्री हैं. जबतक उनका इलाज नहीं होगा, छोटे - मोटे विकास दुबे जैसे गुर्गे जहां-तहां सक्रीय होते रहेंगे.

अपराधी या गुंडे पनपते और बढ़ते ही इसलिए हैं क्योंकि इनके पीछे तंत्र का समर्थन होता है. अपवाद को छोड़कर शायद ही कोई दलित माफिया हो सकता है. इसके पीछे कारण यह है कि दलितों को सत्ता, न्यायपालिका और पुलिस का संरक्षण नहीं है.

अपराध करने वाले अधिकतर सवर्ण/दबंग जातियां हैं लेकिन सजा और जेल काटने वाले दलित- अल्पसंख्यक- आदिवासी- मुसलमान – पिछड़े ज्यादा हैं. पुलिस के बदले अगर विकास ने दलित /आदिवासी का नरसंहार किया होता तो क्या मीडिया इतना तूल देता? अपराध जगत में जाति का तो समर्थन मिलता ही है लेकिन उससे कहीं ज्यादा मीडिया में जाति का असर दिखता है.

ऑक्सफेम इंडिया ने दलित और आदिवासी को लेकर मुख्यधारा मीडिया की स्टडी की तो पाया कि स्थिति बहुत ही खराब है. 121 न्यूजरूम में सम्पादक, प्रबंध सम्पादक, ब्यूरो चीफ, इनपुट-आउटपुट एडिटर, पत्रिकाओं में से 106 सवर्ण लेकिन 5 पिछड़े और 6 अल्पसंख्यक ही मिले.

हर 4 में 3 हिंदी चैनल और अंग्रेजी चैनल में सवर्ण का दबदबा मिला. एक भी दलित आदिवासी और पिछड़ा नहीं मिले. लेकिन 15 साल के दौरान 373 फांसी की सजा पाने वालों में 93.5 % दलित-अल्पसंख्यक. जाति अपने नजरिए से ही अपराधी को देखती है. अगर अपराधी अपनी जाति का व्यक्ति होगा तो नायक होगा, अगर दूसरी जाति का हुआ तो खलनायक.

विकास दुबे अब तो एनकाउंटर में मारा गया है, बिरादरी का हीरो शायद ही बन पाएगा. सत्ता जब हिलने लगती है तो पकड़ मजबूत बनाए रखने के लिए कभी कभी अपनों की भी बलि देनी पड़ती है. क्या फिर से भरोसा पाने के लिए एनकाउंटर बेहतर उपाय लगा. क्या कानून पर भरोसा नहीं था?

{ लेखक डॉ उदित राज परिसंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष, पूर्व लोकसभा सदस्य और वर्तमान में कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं }

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