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एक कामकाजी महिला को मां बनने पर 26 हफ्ते का अवकाश मिले. बच्चे को अमृत तुल्य स्तनपान कराने के लिए और जच्चा अवस्था से खुद को उभारने के लिए. चाहे वो प्राइवेट कंपनी में काम करती हो या फिर सरकारी मुलाजिम हो. श्रम मंत्रालय ने इन सिफारिशों और कुछ शर्तों के साथ एक बिल (मैटरनिटी बेनिफिट बिल-2016) तैयार किया और मानसून सत्र में उसे राज्यसभा में पास भी करवाया.
मैटरनिटी बिल पर हो रही चर्चा ने सोशल मीडिया पर पेटरनिटी लीव को लेकर भी एक बुझी-बुझी चर्चा को जन्म दिया. इस पर नजर डालें तो पैटरनिटी लीव का मसला मानवाधिकारों और श्रम कानूनों पर तर्क-वितर्क करने से ज्यादा बाल विकास का मुद्दा लगता है. लेकिन इस चर्चा को महिला बाल कल्याण मंत्री मेनका गांधी ने बुधवार सुबह भड़काया. उन्होंने दैनिक अखबार ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ को दिए अपने इंटरव्यू में पैटरनिटी लीव के मुद्दे पर कुछ गैर-जिम्मेदाराना टिप्पणी की. इसमें गैर-जिम्मेदाराना क्या था? इसका जवाब आगे. पहले पढ़ें कि मेनका गांधी ने शब्दश: क्या कहा-
इस टिप्पणी में कई ऐसी चीजें हैं, जो एक केंद्रीय मंत्री के तौर पर, वो मंत्री जिसे बाल कल्याण का जिम्मा दिया गया है, बेहद गैर-जिम्मेदाराना है.
उनके इस बयान में जेंडर बायस साफ दिखाई देता है. साथ ही अपनी बात को सही साबित करने के लिए उन्होंने श्रम कानूनों को गलत ढंग से इस्तेमाल करने की तरफदारी भी की. इस तथ्य को दरकिनार करते हुए कि हमारे देश में आज भी हर तरह की प्राइवेट नौकरी कर रहे लोगों के श्रमिक अधिकार सुरक्षित नहीं हो सके हैं.
अंतरराष्ट्रीय श्रम कानूनों के मुताबिक दुनिया के 78 देशों में पुरुषों को पेड पैटरनिटी लीव की सुविधा मिली हुई है. इन देशों में मैटरनिटी, पैटरनिटी, अडॉप्शन से लेकर फैमिली लीव के नाम से यह सुविधा दी जाती है.
इंडिया में भी कुछ कंपनियां 1, नहीं तो 2 हफ्ते की पैटरनिटी लीव देने लगी हैं. लेकिन बहुत सारी ऐसी कंपनिया भी हैं, जहां यह लीव एक दिन की भी नहीं है.
भारत में पिता बच्चे की परवरिश से खुद को आजाद रखते हैं और महिलाओं का शोषण किया जाता है. हरियाणा में तो बाप अपने बच्चे को गोद में लेने को गलत मानता है. उसे लगता है कि यह काम सिर्फ महिलाओं का है. इसके बाद बताया जाता है कि भारत में स्थिति वेस्ट की तुलना में ज्यादा खराब है. ये कुछ ऐसे लॉजिक हैं, जो कट्टर महिलावादी कहते सुने जाते हैं.
हमें इस मानसिकता से बाहर आना होगा कि बच्चे की जिम्मेदारी सिर्फ एक मां की होती है. और पिता उसकी परवरिश में शरीक नहीं होना चाहते. वो भी ऐसे माहौल में, जब एक जोड़े में रहे पति-पत्नी खुद को वर्किंग क्लास का हिस्सा बनाए रखना चाहते हैं. वो पसंद से शादी करते हैं. एक न्यूक्लियर परिवार संभालते हैं. या फिर जॉइंट फैमिली भी. वो आत्मनिर्भर रहना चाहते हैं और दुख-सुख में एक दूसरे के पक्के सहयोगी हैं. उनके लिए एक बच्चा किसी के हिस्से में तकसीम नहीं हो सकता. वो उन दोनों का है. और उस बच्चे को दोनों का वक्त भी चाहिए.
पैरेंटिंग एक्सपर्ट और न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर लॉरेंस बाल्टर के मुताबिक, एक पिता का अपने नवजात शिशु के साथ अच्छा खासा समय गुजारना बहुत जरूरी है. इससे न सिर्फ बच्चे में, बल्कि पिता में भी बच्चे के प्रति बेहतर और संवेदनशील रिश्ता बन पाता है.
वैसे सबसे पहले स्केंडीनेवियन देशों में पॉलिटिकल लेफ्ट ने इस चर्चा को जन्म दिया कि बच्चे की परवरिश के लिए दी जाने वाली छुट्टियों का मकसद तब तक पूरा नहीं हो सकता, जब तक यह मां और पिता, दोनों को बराबर ढंग से नहीं दी जाएं. लेकिन श्रम कानूनों के प्रति गैर-उदारवादी रवैया रखने वाले देश वैचारिक स्तर पर अभी यह नहीं सोच पा रहे हैं. शायद मेनका गांधी ने भी इन बातों पर गौर नहीं किया.
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