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वॉशिंग मशीन से भारत में हुई कैसी क्रांति?

भारत में घरों में जितने कंप्यूटर हैं, उनसे ज्यादा वाशिंग मशीन हैं.

दिलीप सी मंडल
नजरिया
Updated:
(फोटो: iStock)
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(फोटो: iStock)
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दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के एसोसिएट प्रोफेसर आशुतोष कुमार प्रखर आलोचक हैं. अपनी एक फेसबुक पोस्ट में उन्होंने कपड़े धोने और सुखाने के आनंद की चर्चा की है. वे लिखते हैं कि

“धुलाई मशीन ने कपड़े धोने का आनंद छीन लिया. खुदा का शुक्र है कि अभी सूखने के लिए कपड़े फैलाने का लुत्फ बाकी है.”

अब एक और प्रोफेसर का बयान देखते हैं.

यह बयान कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के अर्थशास्त्री हा जून चांग का है. अपनी बेस्टसेलर किताब 23 Things They Don’t Tell You About Capitalism, में वे तर्क देते हैं कि वाशिंग मशीन ने दुनिया को बदलने में जितनी भूमिका निभाई है, उतना काम इंटरनेट ने भी नहीं किया है. उनके मुताबिक

वाशिंग मशीन की वजह से महिलाओं का ढेर सारा समय बचा है, जिसे वो कपड़े धोने में लगाती थीं, इससे श्रम के बाजार में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ी है, महिलाओं की आमदनी बढ़ी है, शिशु जन्म दर कम हुई है, और इससे कुल मिलाकर समाज बदला है.

भारत में ज्यादातर लोगों ने प्रोफेसर चांग का नाम नहीं सुना होगा और जाहिर है कि वे उनके क्रांतिकारी विचारों से वाकिफ भी नहीं होंगे. और वाशिंग मशीन को नारी मुक्ति से जोड़कर देखना भी शायद उन्हें अजीब लगता होगा.

लेकिन भारत वाशिंग मशीन का दीवाना देश है.

भारत में घरों में जितने कंप्यूटर हैं, उनसे ज्यादा वाशिंग मशीन हैं. दुनिया में वाशिंग मशीन बनाने वाली अमूमन हर बड़ी कंपनी भारत में है और इस समय के सालाना लगभग 5000 करोड़ रुपए के वाशिग मशीन बाजार में अपना हिस्सा बनाने के लिए जूझ रही हैं.
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2016 के “इंडियाज सिटिजन एनवायरनमेंट एंड कंज्यूमर इकोनमी सर्वे” के मुताबिक भारत में हर 100 में से 11 घरों में वाशिंग मशीन है. जबकि सिर्फ 6 घरों में लैपटॉप या कंप्यूटर हैं. लगभग 61,000 घरों में किया गया यह देश का सबसे बड़ा कंज्यूमर सर्वे है. हालांकि, 2011 की जनगणना में लगभग 10% घरों में कंप्यूटर या लैपटॉप थे. सर्वे का विश्लेषण करने वालों का मानना है कि कंप्यूटर और लैपटॉप की संख्या में गिरावट शायद इसलिए है क्योंकि इंटरनेट एक्सेस करने के लिए लोग स्मार्ट फोन का प्रयोग ज्यादा कर रहे हैं.

हालांकि भारत में 70% से ज्यादा वाशिंग मशीनें सेमी ऑटोमैटिक हैं. यानी अब भी उन मशीनों को चलाने के लिए थोड़े-बहुत श्रम की जरूरत होती है. अच्छी बात यह है कि ऑटोमैटिक मशीनों की बिक्री बढ़ रही है और फ्रंट लोडिंग मशीनों का सेगमेंट अच्छा कर रहा है. यानी आप उस समय की कल्पना कर सकते हैं, जब भारतीय महिलाओं को कपड़ों पर साबुन रगड़ने और उन्हें पटक पटक कर धोने से पूरी तरह छुटकारा मिल जाएगा.

इस बात पर आम राय नहीं है कि वाशिंग मशीन का आविष्कार किसने किया. लेकिन जिसने भी यह काम किया, उसका नाम महिला मुक्ति के योद्धाओं की लिस्ट में शुमार होना चाहिए. भारत में बनने वाली ऐसी लिस्ट में उसका नाम जरूर शुमार होना चाहिए.

चूंकि कपड़ा धोना भारत में महिलाओं की समस्या है, इसलिए प्रोफेसर आशुतोष कुमार स्टैंडप्वांट थ्योरी के हिसाब से उस जगह खड़े ही नहीं हैं, जहां से उन्हें यह समस्या नजर आए. आप पाएंगे कि डिटर्जेंट पाउडर या साबुन के ज्यादातर विज्ञापन में महिलाएं ही नजर आएंगी. यहां तक कि वाशिंग मशीन के विज्ञापन में भी ज्यादातर महिलाएं ही हैं. कपड़ा गंदा करना सबका काम है, लेकिन सफाई सिर्फ महिलाओं का काम. उसी तरह जैसे, कचरा फैलाना हर किसी का काम है, लेकिन सफाई करना सिर्फ अनुसूचित जाति के लोगों का काम. इसलिए जिस दिन ऐसी सस्ती मशीन आएगी, जिसके बाद सीवर में उतरना बंद हो जाएगा, उस दिन का जश्न भी हर कोई नहीं मनाएगा. जिसकी समस्या है, समाधान का सुख भी उसी का है.

बहरहाल, आशुतोष कुमार श्रम के समर्थक हैं और इसलिए कपड़े सुखाने का वो लय से वर्णन करते हैं. निठल्लेपन को उत्सव मनाने वाली संस्कृति में कोई पुरुष कपड़े सुखाता है और उसे बताता है, तो यह अपने आप में क्रांतिकारी है.

पढ़िए उनका फेसबुक स्टेटस:

“धुलाई मशीन ने कपड़े धोने का आनंद छीन लिया . खुदा का शुक्र है कि अभी सूखने के लिए कपड़े फैलाने का लुत्फ़ बाकी है. एक एक कपड़े को चुन कर उनके अस्तर पलटना , फिर फटकना ताकि सलवटें भरसक निकल जाएं . अलगनी पर करीने से फैलाना. हर कपड़े के लिए धूप और हवा का ख्याल रखते हुए. उनकी संगत और रूप-रंग का ख्याल रखते हुए.

सुबह की धूप में समझ बूझ के साथ एक साथ सूखते हुए कपड़े एक सुंदर चित्र-फलक बनाते हैं . एक सरगम रचते हैं . आप निहारें और ध्यान से सुनें तो उनकी गुनगुनाहट से भांप सकते हैं कि उनकी मस्ती में कहीं कोई खलल तो नहीं है .हर कपड़े की सांस अलग होती है . आप खुशबुओं से पहचान सकते हैं .

चिमटियां लगाना भी एक फन है . हर कपड़े को पूरा विस्तार मिल जाए और गैरजरूरी तनाव न झेलना पड़े. मजा तब आता है जब चिमटियां कम पड़ जाती हैं . कम से कम चिमटियों में अधिक से अधिक कपड़े सजा देने की चुनौती आपकी सहज रचनात्मकता का उन्मेष करती है.

इस शुभ कार्य में भाग्य से अगर पार्टनर भी साथ में हों तो रहस्य के अलावा एक अनकही प्रतिस्पर्धा भी दाखिल हो जाती है , जिससे नए आयाम खुल जाते हैं .

जब सब कुछ एकदम ठीक हो जाता है तो हवा में लरजते हुए कपड़ों के साथ उन पर झुका हुआ नीला आसमान भी झूमने-सा लगता है . उनमें कानाफूसी शुरू हो जाती है. आसपास के पेड़ और उन पर फुदकती गिलहरियां भी अपने कान इसी ओर लगाना शुरू कर देती हैं. यह ठीक समय होता है उन्हें अकेला छोड़ देने का और काम पर निकलने का.”

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Published: 19 Apr 2017,02:49 PM IST

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