Home Voices Opinion सरकार मारुति को मिसाल बनाए तो PSU को बेचे बिना उनका निजीकरण संभव
सरकार मारुति को मिसाल बनाए तो PSU को बेचे बिना उनका निजीकरण संभव
क्या निजीकरण का कोई ऐसा रास्ता भी है जिनमें खतरनाक खाइयां न हों?
राघव बहल
नजरिया
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बजट 2021 में नरेंद्र मोदी सरकार ने शेयर मार्केट में यह कहकर धमाका मचा दिया कि ‘पब्लिक सेक्टर की सभी गैर रणनीतिक कंपनियों को प्राइवेटाइज’ किया जाएगा. सीधे शब्दों में कहें तो सरकार ने पब्लिक सेक्टर की करीब 300 कंपनियों को बेचने का वादा किया है. इससे सरकार के करीब पांच खरब डॉलर (यानी 35-40 लाख करोड़ रुपए) के संसाधन निवेश के लिए आजाद हो जाएंगे. हैरानी की बात नहीं, कि इससे एक हफ्ते से भी कम समय में स्टॉक मार्केट में लगभग 10 प्रतिशत का उछाल आया.
लेकिन निजीकरण के इस मॉडल में मुश्किलें ही मुश्किलें हैं
लेकिन ठहरिए. सब कुछ इतना आसान नहीं, जितना दिखता है. पिछले सात सालों में मोदी सरकार एक भी पब्लिक सेक्टर कंपनी को बेच नहीं पाई है, क्योंकि निजीकरण की इस पूरी प्रक्रिया में कई बड़ी कमियां हैं-
राजनैतिक स्तर पर यह आरोप लगाया जाएगा कि यह ठीक वैसा है जैसे कोई अपने परिवार की कीमती चीजों को अपने गहरे दोस्तों (या क्रोनीज) या ‘नव-उपनिवेशवादियों’ उर्फ महाकाय पश्चिमी कॉरपोरेशंस को बेच दे. ये विदेशी कंपनियां ईस्ट इंडिया कंपनी का आधुनिक अवतार हैं.
एसेट्स की उचित तरीके से कीमत लगानी होगी जोकि एक विवादास्पद, व्यक्तिपरक प्रक्रिया है. इसे अदालतों में आसानी से चुनौती दी जा सकती है और इस पर भ्रष्टाचार के आरोप भी लग सकते हैं. अक्सर, जैसा कि एयर इंडिया के साथ है, कंपनियों पर बकाया कर्ज से पूरी डील अव्यावहारिक हो जाती है जब तक कि सरकार कुछ अप्रिय कदम उठाए और हजारों करोड़ रुपए के कर्ज को माफ कर दे. या, यहां हम बीपीसीएल की मिसाल ले सकते हैं, कंपनी को बेचने से पहले बैलेंस शीट से कुछ रणनीतिक परिसंपत्तियों को निकाल बाहर करना पड़ेगा. और नतीजा यह होगा कि सालों साल बिक्री नहीं होगी.
मजदूर प्राइवेटाइजेशन से नफरत करते हैं. उन्हें छंटनी और काम की खराब स्थितियों का डर होता है. इसके लिए उन्हें लुभाना होगा- उन्हें इनसेंटिव्स, स्टॉक खरीदने का लालच देना होगा, स्वैच्छिक एग्जिट पैकेज की बात करनी होगी.
ब्यूरोक्रेट्स के पास बाजार संचालित और जटिल विलय या अधिग्रहण को आकर्षित करने की क्षमता नहीं होती. उनकी पेशेवर प्रतिभा को लेकर एक संदेह बना रहता है.
इस तरह, साल भर में पांच पीएसयूज बेच लेना, यह भी एक भारी-भरकम काम है. अगर यह लक्ष्य रखा जाए तो भी 300 कंपनियों को बेचने में सरकार को 60 साल लगेंगे!! दूसरे शब्दों में, इतने बड़े पैमाने पर निजीकरण का वादा करने से पहले ही इरादा दम तोड़ देता है. अंकुर फूटने से पहले ही बीज मुरझा जाता है.
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क्या निजीकरण का कोई ऐसा रास्ता भी है जिनमें खतरनाक खाइयां न हों?
उदाहरण के लिए क्या पब्लिक सेक्टर की कंपनियों का निजीकरण इस तरह भी किया जा सकता है कि सरकार का एक भी शेयर न बेचना पड़े? बिल्कुल ऐसा हो सकता है.
मारुति का मॉडल- जब सरकार ने कंपनी नहीं बेची थी
विनिवेश का मारुति मॉडल याद कीजिए. यह अब तक का सबसे कामयाब निजीकरण था:
यह भारत सरकार और जापान की सुजूकी मोटर कॉरपोरेशन के बीच ज्वाइंट वेंचर था जिसकी शुरुआत अस्सी के दशक में हुई था. यह अनलिस्टेड कंपनी थी.
भारत सरकार इस कंपनी की बड़ी शेयरहोल्डर थी लेकिन सुजूकी को कंपनी पर नियंत्रण दिया गया, इसके बावजूद कि उसका स्वामित्व सिर्फ 26 प्रतिशत था.
1982 और 1992 में सुजूकी की शेयरहोल्डिंग बढ़ाई गई, पहले 26 से 40 प्रतिशत, और फिर 50 प्रतिशत.
लेकिन भारत सरकार, जिसका स्वामित्व लगभग आधा था, ने सुजूकी को और नियंत्रण सौंपा. बदले में कई रियायतों सहित बड़े निर्यात बाजार तक पहुंच और भारतीय प्लांट में ग्लोबल मॉडल्स का निर्माण संभव हुआ. इसका नतीजा यह था कि इस ज्वाइंट वेंचर की कीमत जबरदस्त तरीके से बढ़ी.
इसके बाद मास्टरस्ट्रोक की बारी थी. कंपनी ने 400 करोड़ रुपए मूल्य के राइट्स इश्यू निकाले और भारत सरकार ने सुजूकी के पक्ष में अपने शेयर छोड़ दिए.
अब देखिए- ज्वाइंट वेंचर ने महत्वाकांक्षाओं को आसमान छूने का मौका दिया. सुजूकी को कंपनी का नियंत्रण मिला, और पूंजी भी.
इसके अलावा भारत सरकार को ‘नियंत्रण छोड़ने’ के बदले 1000 करोड़ रुपए मिले. उसने सुजूकी से कहा कि वह 2300 रुपए प्रति शेयर की कीमत पर पब्लिक इश्यू जारी करे.
इसके बाद मारुति लिस्टेड हुई (और भारत की सबसे लोकप्रिय ऑटो कंपनी बनी) और भारत सरकार को शानदार रिटर्न ऑन इनवेस्टमेंट मिला, क्योंकि उसने स्वामित्व बरकरार रखा, सिर्फ नियंत्रण निजी कंपनी को सौंपा, वह भी थोड़ा थोड़ा करके. ज्वाइंट वेंचर के जरिए उसके पार्टनर का भी भाव बढ़ा.
मुश्किल को आसान कैसे बनाएं और दस साल में 300 बैंकों/कंपनियों का निजीकरण कैसे हो
मारुति मॉडल की मिसाल लेकर हमने एक केस स्टडी तैयार की है. यह बताती है कि मुश्किल को कैसे आसान बनाया जा सकता है. भारत सरकार शेयर न बेचकर भी नियंत्रण हस्तांतरित कर सकती है. धीरे-धीरे कंपनी से बाहर निकल सकती है और कंपनी को मजबूत भी कर सकती है:
मान लीजिए कि हमारे काल्पनिक पीएसयू में सरकार की हिस्सेदारी 60 प्रतिशत है जिसकी कुल कीमत 25,000 करोड़ रुपए है. वह उसकी पूंजी संरचना को इस तरह फिर से श्रेणीबद्ध करे कि सरकार के इक्विटी शेयर 10 साल के कंपलसरी कनवर्टिबल प्रिफरेंस शेयर्स यानी सीसीपीएस में बदल जाएं जो अलग-अलग लिस्टेड होते हैं. याद रखें कि सीसीपीएस भारतीय एकाउंटिंग स्टैंडर्ड्स में इक्विटी के बराबर है इसलिए इस तरह के बदलाव के बावजूद सरकार का आर्थिक स्वामित्व पूरी तरह से बरकरार रहेगा. हां उसे वोटिंग का अधिकार नहीं होगा. नया मालिक भी इस डर के बिना काम कर पाएगा कि सरकार कहीं प्रबंधन के कान न उमेठती रहे.
9 प्रतिशत सीसीपीएस को कर्मचारी स्टॉक पूल में ट्रांसफर किया जाए और कर्मचारियों को विकल्प दिए जाएं. सरकार के पास 51 प्रतिशत इक्विटी हो लेकिन वोटिंग के अधिकार नहीं.
अच्छे ट्रैक रिकॉर्ड वाले कॉरपोरेशंस या भारतीय प्रोफेशनल्स एसेट प्रबंधन में 30 प्रतिशत की हिस्सेदारी के लिए बोली लगा सकते हैं, वे चाहें तो अपनी बोलियों के लिए इक्विटी इनवेस्टर्स की मदद ले सकते हैं.
अगर हम यह मानकर चलें कि विजेता बोली मौजूदा कीमत की दोगुनी हुई तो 30 प्रतिशत शेयरों की कीमत लगभग 6000 करोड़ रुपए होगी (कुल 50,000 रुपये के बाजार पूंजीकरण में, लेकिन चूंकि 60% सीसीपीएस में परिवर्तित हो चुके हैं, इसलिए 30% वोटिंग हिस्सेदारी पाने के लिए केवल 6000 रुपये की आवश्यकता होगी). यह अच्छी खासी रकम है जोकि सिर्फ व्यक्तिगत पेशेवरों से प्राप्त की जा सकती है.
लीजिए! निजीकरण आसानी से हो गया और कोई विवाद भी खड़ा नहीं हुआ.
भारत सरकार अब भी बड़ी हिस्सेदार है, हालांकि नियंत्रण कॉरपोरेशन या पेशेवरों के समूह को सौंप दिया गया.
भारत सरकार को मौजूदा कीमतों पर अपनी इक्विटी बेचने को मजबूर नहीं होना पड़ा, बल्कि अगर एसेट को 10 सालों में 10 गुना किया जाए तो सरकार की 51 प्रतिशत सीसीपएस की कीमत 1.25 लाख करोड़ होगी (मौजूदा 15,000 करोड़ रुपए से बढ़कर).
ईएसओपी होल्डर्स यानी पीएसयू के कर्मचारियों के 9 प्रतिशत हिस्से की कीमत भी बढ़कर 25,000 करोड़ रुपए हो जाएगी.