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यह मत खाओ, वह मत पहनो, इश्क़ तो बिलकुल करना मत,
देशद्रोह की छाप तुम्हारे ऊपर भी लग जायेगी।
यह मत भूलो अगली नस्लें रौशन शोला होती हैं,
आग कुरेदोगे, चिंगारी दामन तक तो आएगी।
मशहूर शायर और वैज्ञानिक गौहर रजा की इस गजल के आधार पर जी न्यूज ने उन्हें देशद्रोही और ‘अफजल प्रेमी गैंग’ का सदस्य घोषित कर दिया.
देश की खिलाफत करने वालों के खिलाफ खून खौलना लाजमी है. लेकिन, उससे पहले क्या ये जानना जरूरी नहीं कि देश क्या है और देशप्रेम क्या है.
प्रेमी की सम्पूर्ण खुशहाली के लिए खुद को सर्वस्व समर्पित करना होता है. क्या मां के दमकते चेहरे का गुणगान करते हुए उसके सड़ते हुए दाहिने हाथ से मुंह मोड़ना संभव है? ऐसे में अगर ‘कोई’ देश में व्याप्त उन बुराईयों के लिए आवाज उठाकर खुद को सर्वस्व समर्पित करता है तो ऐसे में वो अपनी मां का विरोधी कैसे हो सकता है.
जनकवि धूमिल से लेकर नागार्जुन, पाश और दुष्यंत कुमार ने अपने-अपने समय में मां भारती के कष्टों को दूर करने के लिए, उनके खिलाफ आवाज उठाने के लिए खुद को समर्पित किया.
...गर गौहर रजा को गजल के आधार पर देशद्रोही ठहराया जा सकता है तो शायद आज की तारीख में ये जनकवि देशद्रोह के कानून में जेल के अंदर होते. या किसी पागल खाने में अपना सर पीट रहे होते.
जनकवि ‘धूमिल’ अपनी कविता ‘पटकथा’ में कहते हैं कि वे इंतजार करते रहे कि देश में जनतंत्र, त्याग और स्वतंत्रता, संस्कृति, शांति और मनुष्यता का राज हो.
लेकिन, ये सारे कोरे शब्द निकले. कोरे नारों जैसे. वे कहते हैं कि ये सुनहरे वादे थे और खुशफहम इरादे थे. ये धूमिल का दर्द था कि ये देश वैसा न बन सका जैसा इसे बनाने की बातें की गईं थीं और सपने दिखाए गए थे.
इस दर्द को राष्ट्रविरोधी रंग में रंगा जाना खुद में एक राष्टद्रोह नहीं है? ये उस बेटे की हत्या करना जैसा है जो अपनी मां के इलाज के लिए बाकी भाई-बहनों से झगड़ रहा था और उसके भाईयों ने ही उसे घेरकर मार दिया.
दुष्यंत कुमार ने ये कविता उस दौर में लिखी थी जब देश इमरजेंसी से जूझ रहा था. कुछ लोगों ने इमरजेंसी का समर्थन भी किया. लेकिन, क्या विरोध करने वाले राष्ट्रविरोधी ठहराए जा सकते हैं.
सरकार देश को चलाने वाला तंत्र है. देश नहीं. जब सरकारें देश बनती हैं तो लोकतंत्र पिंजड़े में बंद तोता हो जाता है जिसे सिर्फ मनोरंजन के लिए बोलने के लिए कहा जाता है.
नागार्जुन की इस कविता की प्रजा वो नहीं है जिसे ऊंचे मंचों से जनता-जनार्दन कहा जाता है. इस प्रजा में नागार्जुन की जिंदगी समाई है. ये भूखी-नंगी प्रजा नागार्जुन की मां भारती का सड़ा हुआ हाथ है. और, वे खीज में अपने भाइयों से कह रहे हैं कि भला हुआ बेगूसराय में दो नौजवान मरे, जगह नहीं है जेलों में यमराज तुम्हारी मदद करे.
फैज कहते हैं कि ये वो सुबह तो नहीं जिसकी आरजू लेकर एक नया संसार बनाने की सोची गई थी. ये वो संसार तो नहीं.
अब जरा सोचिए...कि आज मां भारती के ये बेटे जिंदा होते तो क्या देशप्रेम और देशद्रोह पर जारी बहस को देखकर उनका क्या हाल होता. गरीब किसानों की खेती कुचलकर सांस्कृतिक महोत्सव मनाए जाने पर उनके दिल पर क्या बीतती? मां भारती की सड़े हुए हाथ को फीटों लंबी तिरंगी साड़ी से ढके जाने पर मां भारती के इन लालों पर क्या बीतती? सोचिए और खुद से बात करिए, क्योंकि सोचने और खुद से बात करने से ही आप फैज, धूमिल, दुष्यंत कुमार और नागार्जुन के दर्द को समझ सकते हैं.
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Published: 13 Mar 2016,04:29 PM IST