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किताबों को अच्छा या बुरा कहने का पैमाना कैसा हो? 

किसी बुक की सफलता उसकी समीक्षा यानी रिव्यू और सेल्स यानी कितनी कॉपी बिकीं, इससे तय होती है.

टीसीए श्रीनिवास राघवन
नजरिया
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क्या पढ़े क्या ना पढ़े, ये समस्या तो हमेशा सामने आती है (फोटो: iStock)
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क्या पढ़े क्या ना पढ़े, ये समस्या तो हमेशा सामने आती है (फोटो: iStock)
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मेरा मानना रहा है कि पत्रकारों को किताबें नहीं लिखनी चाहिए. कम से ऐसी किताबें तो बिल्कुल नहीं जो वैचारिक हों. यह बात नौकरशाहों, राजनयिकों और यूनिवर्सिटी के मार्फत सरकार के लिए काम करने वालों पर भी लागू होती है. हालांकि, हाल में मैंने अपनी यह सोच बदल दी.

ऐसा नहीं है कि मैं जर्नलिस्टों को वैचारिक लेखन के लायक नहीं मानता. मेरे हिसाब से वो वैचारिक लेखन को खूबसूरत ढंग से नहीं लिख पाते. वे अक्सर निगेटिव बातों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते हैं.

(फोटो: ट्विटर)

नौकरशाहों, राजनयिकों और दूसरे मौजूदा या पूर्व सरकारी कर्मचारियों में एक किस्म का अहंकार और चीजों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने की आदत होती है. हालांकि, कभी-कभार उनमें से कोई इन जंजीरों से आजाद भी हो जाता है.

मेरे एक करीबी रिश्तेदार ने हाल ही में एक किताब लिखी है. जब हम दोनों अपनी-अपनी किताबों को मिले रिस्पॉन्स पर नोट्स की तुलना कर रहे थे तो उन्होंने कहा-

जो एकेडमिक्स खुद को एक्सपर्ट मानते हैं, वे लिख नहीं सकते और जिन्हें लिखना आता है, वे एक्सपर्ट नहीं हैं.

हालांकि, कभी-कभी ऐसा अकादमिक भी दिख जाता है, जो दोनों काम बखूबी कर सकता है. उनके लेखन को अकादमिक दुनिया के लोग शोमैनशिप बताते हैं जबकि दूसरे एक्सपर्ट्स जर्नलिज्म जैसी राइटिंग करार देते हैं. अक्सर ऐसी राइटिंग के बारे में गोलमोल राय दी जाती है.

एकेडमिक ऐसी किताब की तारीफ ऐसे शब्दों में करते हैं, जिसका कोई मतलब नहीं होता. उनकी तारीफ के दो मायने होते हैं. पहला, लेखक ने अकादमिक दुनिया में जमी-जमाई सोच की धज्जियां नहीं उड़ाई हैं और उसने पुरानी सोच पर सवाल नहीं उठाया है. दूसरा, इस किताब में कोई खास बात नहीं कही गई है, इसलिए उससे कोई खतरा नहीं है.

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किताब की सफलता का पैमाना

(फोटो: iStock)

किसी बुक की सफलता उसकी समीक्षा यानी रिव्यू और सेल्स यानी कितनी कॉपी बिकीं, इससे तय होती है. दोनों के बीच अक्सर उल्टा रिश्ता होता है. खुशवंत सिंह अच्छे इतिहासकार थे, लेकिन उन्हें पेशेवर इतिहासकारों ने कभी वह दर्जा नहीं दिया. एम जे अकबर भी ऐसे ही लेखक हैं. इन दोनों की किताबें अकादमिक लेखकों की तुलना में कहीं ज्यादा बिकी हैं. इसी पैमाने पर शोभा डे और ट्विंकल खन्ना को मौजूदा सोशल ट्रेंड्स पर सटीक लेखन के लिए क्यों नहीं वाहवाही मिलनी चाहिए. क्या उनके लिखे को सिर्फ इस आधार पर रिजेक्ट किया जा सकता है कि वो किसी यूनिवर्सिटी के सोशियोलॉजी डिपार्टमेंट से नहीं जुड़ी हैं. फिर लक्ष्मण का इस मामले में इतना सम्मान क्यों होता था?

ये लोग बढ़िया लिखते हैं, इसलिए ऐसा होता है. उनके वाक्य सिंपल होते हैं. तथ्य सही होते हैं. और खुदा खैर करे, उनकी राइटिंग की तारीफ गोलमोल तरीके से नहीं की जा रही है.

किताब की परख कैसे की जाए

(फोटो: ट्विटर)

आखिर किसी किताब को कैसे परखा जाए? रिव्यू से जो किताब छपने के साथ आने लगते हैं या बिक्री से, जिसका पता साल भर बाद चलता है या कुछ साल बाद किताब को कोट किए जाने से?

एक न्यूजपेपर के एक पूर्व संपादक ने भारत की आर्थिक संभावनाओं पर एक बेस्ट सेलिंग बुक लिखी है. वह शानदार किताब है, इसके बावजूद अकादमिक जगत शायद ही इसे उसका जिक्र करे या स्टूडेंट्स के लिए उसे रिफरेंस बुक बताए. संजय बारू की किताब- द एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर- जब पब्लिश हुई थी, तो उसे शानदार रिस्पॉन्स मिला था. 2014 लोकसभा चुनाव से महीना भर पहले यह किताब आई थी, इसलिए उसकी टाइमिंग को लेकर सवाल भी खड़े हुए थे. अगर इसे भूल जाएं तो बारू की किताब से यूपीए 1 सरकार के बारे में बेशकीमती जानकारियां मिलती हैं. लेकिन क्या इसे अकादमिक जगत ने सराहा है? क्या वहां इसका जिक्र करते हैं?

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