advertisement
उच्च शैक्षणिक संस्थानों में विभाग/विषय के हिसाब से आरक्षण के खिलाफ काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी से 2017 में शुरू हुआ आंदोलन आज देशव्यापी बन चुका है. सड़क से संसद तक इसकी गूंज सुनाई दे रही है. इस मुद्दे पर अप्रैल 2017 में इलाहाबाद हाई कोर्ट और 22 जनवरी 2019 को सुप्रीम कोर्ट के फैसले की वजह से उच्च शिक्षा केंद्रों में अनुसूचित जाति/जनजाति और अन्य पिछड़े वर्गों के आरक्षण के जरिए प्रवेश का काफी रास्ता काफी हद तक अटक गया है.
यह स्थिति आखिर क्यों बनी है? इसे गंभीरता से समझने की जरूरत है. दरअसल इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अप्रैल 2017 में यूजीसी (विश्वविद्यालय अनुदान आयोग) की 2006 में जारी की गई गाइड लाइन के एक प्रावधान को खत्म कर दिया. इस प्रावधान के मुताबिक, हर विश्वविद्यालय/डीम्ड विश्वविद्यालय/संस्थान को एक इकाई मानकर वहां पर स्वीकृत कुल पदों के अनुपात में आरक्षण दिए जाने की व्यवस्था थी. यूजीसी ने यह गाइड लाइन भारत सरकार की आरक्षण नीति को उच्च शैक्षणिक संस्थानों में सख्ती से लागू करने के लिए मानव संसाधन मंत्रालय के 2005 में दिए गए आदेश के पालन में जारी की थी.
उच्च शैक्षणिक संस्थानों में विभाग को एक इकाई माने जाने पर आरक्षण पूरी तरह बेअसर हो जाता है. इसे हम एक उदाहरण से समझ सकते हैं- किसी एक विभाग में अगर 3 प्रोफेसर, 3 एसोसिएट प्रोफेसर, 3 असिस्टेंट प्रोफेसर के पद खाली हैं तो कुल 9 पद होते हुए भी इनमें से एक भी पद (अलग-अलग कैडर होने के कारण) आरक्षण के दायरे में नहीं आएगा क्योंकि ओबीसी के लिए किसी एक कैडर में कम-से-कम 4 पद, अनुसूचित जाति के लिए 7 पद और जनजाति के लिए 14 पद होने चाहिए.
मतलब साफ है उच्च शैक्षणिक संस्थानों में 'ना रहेगा बांस, ना बजेगी बांसुरी' वाली कहावत को लागू कर दिया गया है. केंद्र सरकार इस मामले पर तरह-तरह से बहानेबाजी करने में लगी है. वह सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका का दिखावा कर रही है.
यह एक ऐतिहासिक सच्चाई है कि एक ओर अनुसूचित जाति/जनजाति 1950 से मिले 15%/7.5% आरक्षण के लाभ से वंचित रही है. वहीं, अन्य पिछड़े वर्ग के लोगों को पहले काका कालेलकर आयोग (1953) के नाम पर ठगा गया. उसके बाद उन्हें मण्डल आयोग की रिपोर्ट (1980) के एक अंशमात्र (नौकरी में 52% के स्थान पर 27% आरक्षण) को क्रीमी लेयर के साथ 1990 में लागू करके उनके पीठ में छुरा भोंका गया. इस तरह एक षड्यंत्र के तहत देश के बहुसंख्यक आबादी वाले बहुजन समाज को 85 फीसदी जनसंख्या के अनुपात में सिर्फ 49.5% आरक्षण देने का प्रावधान तो कर दिया गया लेकिन आजतक इसे पूरी तरह से लागू नहीं किया गया है. यही वजह है कि आज भी केंद्र और कई राज्यों की सरकारी नौकरियों में अनुसूचित जाति/जनजाति और अन्य पिछड़े वर्गों का प्रतिनिधित्व काफी कम है.
उच्च शैक्षणिक संस्थानों के शैक्षिक पदों में अनुसूचित वर्गों को 1997 और अन्य पिछड़े वर्ग के लोगों को 2007 से आरक्षण दिए जाने की शुरुआत हुई. मगर इन वर्गों का प्रतिनिधित्व उच्च शैक्षणिक संस्थानों में आज तक नहीं बढ़ पाया है.
यूजीसी के आंकड़ों के मुताबिक, 40 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में प्रोफेसर के पदों पर अनुसूचित जाति के महज 3.47%, अनुसूचित जनजाति के 0.7% लोग ही नियुक्ति किए गए हैं और अन्य पिछड़े वर्गों का कोई प्रतिनिधित्व नहीं है. जबकि सामान्य वर्ग के 95.2% लोग प्रोफेसर के पदों पर विराजमान हैं. एसोसिएट प्रोफेसर के पदों में अनुसूचित जाति के 4.96%, जनजाति के 1.3% लोग कार्यरत हैं, अन्य पिछड़े वर्गों का प्रतिनिधित्व शून्य है. इसी तरह असिस्टेंट प्रोफेसर के पदों पर अनुसूचित जाति के 12.02%, जनजाति के 5.46% और अन्य पिछड़े वर्गों का 14.38% कोटा ही भरा गया है जबकि 66.27% पदों पर सामान्य वर्ग के लोग कब्जा जमाए बैठे हैं.
इन 40 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में गैर-शैक्षणिक पदों पर भी आरक्षित वर्गों के लोगों को उचित प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया है. गैर-शैक्षणिक पदों पर अनुसूचित जाति का 8.96%, जनजाति का 4.25%, अन्य पिछड़े वर्गों का 10.17% कोटा भरा गया है. जबकि सामान्य वर्ग के 76.14% लोग गैर-शैक्षणिक पदों पर बैठे हुए हैं.
(लेखक बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं. आलेख में दिए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. क्विंट का इनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)