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अफगानिस्तान (Afganistan) पर भारत के रीजनल समिट का लब्बोलुआब क्या रहा.. सिवाय यह कि संयुक्त रूप से दिल्ली घोषणापत्र जारी किया गया. इससे पहले 20 अक्टूबर 2020 को मास्को में आयोजित बैठक की ही तरह कुछ बातें यहां भी दोहराई गईं. अपील की गई कि अफगानिस्तान आतंकवाद से आजाद हो, ‘सचमुच एक समावेशी सरकार’ का गठन किया जाए और अंतरराष्ट्रीय समुदाय मानवीय सहायता पहुंचाए.
इस वार्ता की अध्यक्षता राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने की और इसे अफगानिस्तान पर तीसरी क्षेत्रीय सुरक्षा वार्ता कहा गया. इसमें मध्य एशिया के पांच देश, ईरान और रूस शामिल थे. चीन और पाकिस्तान ने इसमें शिरकत करने से इनकार कर दिया था. उससे भी अहम यह था कि इसमें तालिबान का प्रतिनिधि मौजूद नहीं था. इसकी वजह यह थी कि उसे न्यौता ही नहीं दिया गया था.
दिल्ली घोषणापत्र दिलचस्प तो है, लेकिन काफी घिसा-पिटा भी. उसमें पूरे तौर से “शांतिपूर्ण सुरक्षित और स्थिर अफगानिस्तान” की गुहार लगाई गई और इस बात पर जोर दिया गया कि अफगानिस्तान की संप्रभुता की इज्जत की जानी चाहिए, साथ ही उसके आंतरिक मामलों में दखल नहीं दिया जाना चाहिए. अब यह बहुत आसानी से समझा जा सकता है कि ऐसा कौन सा पक्ष है, जो मौजूदा हालात में उसके आंतरिक मामलों में दखल दे सकता है.
घोषणापत्र में मास्को वार्ता की तर्ज पर अफगानिस्तान के आतंकवाद से आजाद होने का बात कही गई है. लेकिन कई दूसरी बातें भी हैं, जैसे आतंकवाद को धन मुहैय्या कराना और ढांचागत मदद करना, कट्टरपंथ वगैरह. ऐसा लगता है कि इसमें अफगानिस्तान नहीं, पाकिस्तान की तरफ इशारा किया गया है.
इसके अलावा ताजिकिस्तान, उजबेकिस्तान, कजाकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और किर्गिस्तान की मौजूदगी से इस बात का संकेत मिलता है कि मध्य एशिया में नई दिल्ली का आत्मविश्वास और उत्साह अभी खत्म नहीं हुआ है. जहां तक ईरान और रूस का ताल्लुक है, दोनों बड़ी क्षेत्रीय ताकत हैं. भारत को लेकर उनके अपने हिसाब-किताब हैं. इसी के चलते वे ऐसी फीकी बातचीत में शामिल होने को मजबूर हो गए.
जिसे हम ग्रेट गेम 3 कह सकते हैं, वह अब कुछ हफ्तों और महीनों में नहीं खेला जाएगा. भले ही इसमें दसियों साल न लगें, लेकिन सालों जरूर लगेंगे. और भारत यह इशारा दे रहा है कि उसके पास इस खेल को खेलते रहने का साधन भी है, और हिम्मत भी. अब अफगानिस्तान में राजनीतिक बदलाव का यह मायने नहीं कि उसके लिए हमारे पास कोई नीति ही न हो.
इसके अलावा यह बात पाकिस्तान पर भी लागू होती है लेकिन भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के एकतरफा नजरिये के चलते यह समझना मुश्किल है कि क्या सरकार के पास पाकिस्तान को लेकर कोई विदेश नीति है. या फिर वह उसे सिर्फ अपने घरेलू राजनैतिक मकसद के लिए इस्तेमाल करना चाहती है.
यह बहुत साफ है कि नई दिल्ली तालिबान सरकार को मान्यता देने में समय लगा रहा है और इस सिलसिले में किसी किस्म की अगुवाई करने की खास जरूरत भी महसूस नहीं कर रहा. बड़ा फैसला तो अमेरिका, चीन और यूरोपीय संघ को करना है. जाहिर है, भारत इस बात का इंतजार कर रहा है कि अमेरिका क्या फैसला करेगा. अमेरिका भी अपने दोस्तों और सहयोगियों की मदद से इस तरफ फूंक फूंककर कदम रखेगा.
अफगानिस्तान पर अमेरिका के नए स्पेशल एनवॉय टॉम वेस्ट भी फुर्ती से जवाब दे रहे हैं. इस हफ्ते की शुरुआत में उन्होंने वॉशिंगटन में कहा था कि इस्लामिक स्टेट जिस तरह अफगानिस्तान में हमले कर रहा है, उससे अमेरिका परेशान था. उसे इस बात की भी चिंता है कि देश में अराजकता फैल सकती है जिससे अल कायदा और आईएस जैसे संगठनों को फायदा पहुंचेगा.
वेस्ट कई देशों की यात्राएं कर रहे हैं. पहले पाकिस्तान में त्रोइका प्लस (रूस, अमेरिका, चीन और पाकिस्तान) की बैठक, फिर नई दिल्ली और मॉस्को. उनका मकसद क्षेत्र के हालात का जायजा लेना है. अमेरिका जल्द ही अफगानिस्तान में स्थिरता कायम करने के लिए अमेरिकी बैंकों में 9.5 बिलियन डॉलर को अनब्लॉक करने और दूसरे कई कदम उठाने को राजी हो सकता है.
जब राष्ट्रीय हित की जरूरत होती है तो अमेरिका तुरंत यू टर्न ले लेता है. वियतनाम से उसके रिश्तों को याद कीजिए. वहां उसे अपमानजनक हार का घूंट पीना पड़ा था. हो सकता है कि हम अफगानिस्तान में भी ऐसी ही स्थिति देखें.
नई दिल्ली आगे भी रंगमंच सजा सकता है और क्षेत्रीय सुरक्षा संवाद जैसी बैठकें कर सकता है. लेकिन ग्रेड गेम 3 के लिए मैदान में उतरना होगा. इसे सिद्धांतों की बजाय, व्यवाहारिक तौर तरीकों से खेलना होगा. यहां बयानबाजियां और ऐलान नहीं, जमीनी स्तर पर हालात बदलने की कोशिशें काम आने वाली हैं.
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Published: 13 Nov 2021,11:29 AM IST