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सिनेमा की दुनिया में कब मिलेगा महिलाओं को बराबरी का दर्जा !

बराबर की भागीदारी ही बदल सकती है सिनेमा का स्वरूप

अलंकृता श्रीवास्तव
नजरिया
Updated:
सिनेमा की दुनिया में कब मिलेगा महिलाओं को बराबरी का दर्जा !
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सिनेमा की दुनिया में कब मिलेगा महिलाओं को बराबरी का दर्जा !
(फोटोः Quint Hindi)

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जब भी मुझसे सिनेमा के भविष्य के बारे में ये पूछा जाता है कि, मैं इसके भविष्य के बारे में क्या सोचती हूं या किस तरह से देखती हूं, तब मुझे लगता है कि सिनेमा का अगर सच में पूछें तो तब-तक कोई भविष्य नहीं है, जब तक कि हम 50-50 वाली स्थिति में न पहुंच जाए. इसका मतलब ये हुआ कि हमारे देश में बनने वाली कुल फिल्मों की पचास प्रतिशत फिल्में महिलाएं बनाएं.

इस समय ये सिर्फ छह प्रतिशत के आसपास है.

बराबर की भागीदारी ही बदल सकती है सिनेमा का स्वरूप

जब तक कि हमारे देश की महिलाओं का, सिनेमा के कथन और उसके चित्रण के निर्माण में बराबरी की भागीदारी नहीं होती है, तब तक सिनेमा का विकास काफी हद तक अविकसित रहेगा. क्योंकि, आज तक कमोबेश शत-प्रतिशत सिनेमा का विकास, निर्माण, आकार और रूपरेखा पुरुषों ने ही तैयार किया है.

हम सबको लगभग आदत सी हो गई है कि - हम सिनेमा को एक खास तरह की भाषा, चरित्र-चित्रण, आकार और स्वरूप में देखने-समझने और महसूस करने के आदी हो गए हैं, जो मुख्य तौर पर एक पुरुषवादी नजरिये से बनाया जाता रहा है. लेकिन, ज्यादा से ज्यादा महिलाओं के कैमरे के पीछे जाने से इन स्थितियों में भारी बदलाव आ रहा है.

महिलाओं को अपनी पसंद की फिल्में बनाने की पूरी आजादी

धीरे-धीरे ही सही लेकिन, कदम दर कदम इस स्थिति में बदलाव आना शुरू भी हो गया है. लेकिन, ये तय है कि महिलाएं हर हाल में अपने निजी अनुभवों और विभिन्न नजरियों को अपनी कहानी में बुनना शुरु करेंगी. इसका असर कहानियों के उनके चुनाव पर भी होगा कि, वो कौन सी कहानी सुनाना चाहती हैं.

आखिर, महिलाओं को भी पूरी आजादी है कि वे अपने पसंद की फिल्में बनाएं. हो सकता है कि वे ज्यादातर ऐसी फिल्में ही बनाएं जो मेल-गेज यानि पुरुष-निगाह को बढ़ावा दे.

फिल्मी परदे पर औरत की रक्षा करने वाले मसीहा से चाहिए मुक्ति

लेकिन, जब कहीं पर एक क्रिटिकल मास यानि किसी नए काम या नई शुरुआत के लिए जरूरी क्रांतिक द्रव्य मौजूद हो, जो कि इस केस में कैमरे के पीछे काम करने वाली महिलाओं की संख्या से जुड़ा है, तब वहां एक आमूल परिवर्तन होना लाजिमी है. क्योंकि तब ऐसी स्थिति में सिर्फ महिलाएं ही नहीं, पुरुष भी हर तरह की कहानी सुनाने के लिए आजाद होंगे, जिसमें हर नजरिये को शामिल किया जाएगा.

ऐसे में सिनेमा में हावी रहने वाला मेल-गेज यानी मर्दवादी निगाह कमजोर पड़ेगी. इसके विपरीत वो विविध होगा, उसमें अनेका-नेक स्तर पर पुरुष और महिला प्रधान सोच का समावेश होगा. तब मुमकिन है कि सिनेमा के पास इतनी ताकत आ जाएगी कि वो सदियों से चली आ रही सामंतवादी पुरुषवादी सोच और नियम को थोड़ा पीछे करने में सफल हो जाए. और ये भी हो सकता है कि इस तरह से हमें अंतत: फिल्मी पर्दे पर औरत की रक्षा करने वाले मेल सुपर-हीरो या औरतों की रक्षा करने वाले मसीहा से मुक्ति मिल जाए.

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सिनेमा को पितृसत्ता से मुक्त करने की जरूरत

सिनेमा को जिस चीज की सबसे जरूरत, अपनी पुरुष प्रधान वंशावली को खत्म करना है. वो अपनी पितृसत्तात्मक वंशवाली से मुक्त हो सके. लेकिन एक पुरुषप्रधान समाज में ऐसा हो पाना थोड़ा मुश्किल है, लेकिन क्या दुनिया में कोई भी बदलाव, बगैर सपना देखे पूरा हुआ है?

कला और संस्कृति को बढ़ावा सिर्फ इन बंधनों को तोड़कर ही मिल सकता है. ऐसा कर पाने के लिए जो एकमात्र चीज हम कर सकते हैं, वो मूलभूत तरीके से कैमरे के पीछे, महिलाओं की मौजूदगी को और बेहतर करके, इसके अलावा जब हम कैमरे के पीछे महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाने की बात करते हैं, तब हम असल में समाज में स्थापित पॉवर स्ट्रक्चर यानी वहां कौन सी सिनेमा की संस्कृति विकसित हो रही है, ताकत की उस बनावट को बदलना है और जिसका सीधा असर इस बात पर होता है कि – आखिर किस तरह की फिल्म संस्कृति बनायी जा रही है.

महिलाओं का प्रतिनिधित्व फिल्म बनाने की हर प्रक्रिया में बढ़ाने की जरुरत है, इसमें – स्टूडियो, प्रोड्यूसर, लेखक, डायरेक्टर, सिनेमाटोग्राफर, एडिटर, म्यूजिक कंपोजर, डिस्ट्रीब्यूटर, वितरक, आलोचक और दर्शक शामिल है.

दर्शक वर्ग में भी बदलाव अपेक्षित

हमें ऐसी महिला दर्शकों की भी जरूरत है जो सक्रिय हों, जो नियमित तौर पर, बगैर किसी हिचक के अपनी पसंद की फिल्म देखने थियेटर में फिल्म देखने जाया करें. भारत के एक बड़े हिस्से में सिनेमा देखने जाना – मुख्य तौर पर पुरुषों का शगल रहा है, इसे उनका इलाका माना गया है. जहां पुरुष ये तय करते हैं कि उन्हें कौन सी फिल्म देखनी है, इस कारण पुरुष दर्शकों की संख्या ज्यादा है. दर्शक वर्ग में बदलाव भी कई बड़े बदलावों की चाबी है.

मैं ऐसा मानती हूं कि इस 50-50 की स्थिति तक पहुंचने तक, फिल्मों का व्यवसाय भी काफी हद तक बदल जाएगा. दर्शकों को भी अलग तरह की फिल्में देखने की आदत लग जाएगी. और, हमें उम्मीद है कि जैसे-जैसे दर्शकों के सामने सजने वाली फिल्मों की थाली में बदलाव होगा, वैसे-वैसे और भी विविध किस्म के फिल्मों का निर्माण किया जाएगा और वे सफल भी होंगे. इसके साथ ही फिल्मों की सफलता के लिए एक मेल या पुरुष हीरो पर होने वाली निर्भरता धीरे-धीरे कम हो जाएगी.

भागीदारी से इंडस्ट्री में सुरक्षित होंगी महिलाएं

ये भी तय है कि इस बदलाव का असर फिल्म मेकिंग के कई और क्षेत्रों पर भी पड़ेगा. महिलाओं के कैमरे के पीछे जाने पर कई जटिल किरदार लिखे जाएंगे, जिन्हें परदे पर महिलाएं निभाया करेंगी.

लेकिन, इसका एक और मतलब होगा. वो ये कि फिल्म इंडस्ट्री में काम करने का माहौल पहले से कहीं कम जहरीला होगा...वो पहले से कईं ज्यादा सुरक्षित और साफ-सुथरा होगा. महिलाओं के साथ होने वाला यौन उत्पीड़न, उनका शोषण और हमलों में जाहिर तौर पर कमी आएगी – क्योंकि उसपर कड़ी नजर रखी जाएगी. इंडस्ट्री में आने वाली महिलाएं खुद को सुरक्षित महसूस करेंगी.

अपना टाइम आएगा

इसके अलावा व्यवसायिक ताकत के कारण जिस तरह की छूट और सुरक्षा, इन यौन हमलावारों को आज तक मिलती आयी है, उसमें भी एक तरह की सख्ती आएगी. आज के हालात में कोई भी ताकतवार आदमी कुछ भी कर के बच जाता है, उन्हें कई-कई गलतियों के बदले में माफ कर दिया जाता है, सिर्फ इसलिए कि उनका नुकसान करके, इंडस्ट्री अपना आर्थिक नुकसान करेगी.

लेकिन 50-50 के दौर में, इस ताकत का बंटवारा कुछ इस तरह से किया जाएगा, कि वो दोनों पक्षों यानि पुरुषों और महिलओं को 50-50 प्रतिशत मिले. मुझे पूरा विश्वास है कि ऐसा होने पर, चाहे फिल्में हो या लोकप्रिय संस्कृति, अपनी 50% की मौजूदगी के बलबूते, महिलाएं फिल्मी पर्दे के ऊपर और बाहर दोनों ही जगह एक अलग और ज्यादा संवेदनशील संस्कृति का निर्माण करेगी. मुझे पता है कि जब तक वो समय आएगा तब तक मैं जीवित नहीं रहूंगी, मैं वो दौर अपनी आंखों से नहीं देख पाऊंगीं, लेकिन मुझे यकीन है कि वो समय जरूर आएगा. अपना टाइम आयेगा !

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Published: 08 Mar 2019,08:21 AM IST

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