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आज ब्रजेश ठाकुर को पूरा देश जान गया है.
तो इस ब्रजेश ठाकुर के बारे में कुछ और जान लीजिए.
दशकों से ‘दो कौड़ी’ का अखबार छापने और सरकारी खजाने से करोड़ों का विज्ञापन वसूलने के अपने पुश्तैनी कारोबार की आड़ में ब्रजेश ठाकुर नीचता की सारी सीमाएं पार करके ये ‘धंधा‘ भी कर रहा था. इसका अंदाजा दिल्ली में बैठे हम जैसे लोगों को तो कतई नहीं था. मुजफ्फरपुर शहर के जिन लोगों को होगा, वो या तो तमाशबीन थे या उसके इस घिनौने खेल के किरदार और हिस्सेदार थे या फिर आंख बंद करके अपनी दुनिया में मगन थे.
अब जब ब्रजेश ठाकुर के कारनामों का बजबजाता सच सामने आ रहा है, तो पता चल रहा है कि सरकारी खर्चे पर चलने वाले ब्रजेश ठाकुर के शेल्टर होम में बच्चियों के साथ हैवानियत की हदें कैसे पार की जाती थीं.
मुजफ्फरपुर के तमाम लोग हैरान हैं कि शहर के बीचों बीच अपनी हवेली में रहने वाला एक शख्स जो खुद को पत्रकार, प्रकाशक, संपादक , मुद्रक कहता था, वो ऐसा ‘शैतान’ निकला.
करीब तीस साल पहले पहली बार मैं ब्रजेश ठाकुर नाम के इस शख्स से मिला था. तब हम जैसे ‘छुटभैये’ बालक किस्म के युवा पत्रकार का ककहरा सीखने के लिए मुजफ्फरपुर के पत्रकारों के आस -पास भटका करते थे. मुजफ्फरपुर की छोटी-छोटी खबरें लिखकर छपने के लिए पटना के अखबारों में भेजा करते थे.
कभी-कभी लगता कि हमारे लिखे को रिपोर्ट की शक्ल में कोई नहीं छापेगा, तो संपादक के नाम चिट्ठी वाले कॉलम में ही भेज देते और छपने पर पूरे शहर में कूदते थे कि देखो हमारा भी कुछ छपा है. उन्हीं दिनों शहर के अखबार प्रात: कमल का नाम सुना. देखा. कभी-कभी पलटा भी, लेकिन इतना कूड़ा होता था कि नवोदित काल में भी पढ़ने लायक नहीं माना.
प्रात: कमल उसका मुखौटा था, जिस मुखौटे के पीछे राधामोहन ठाकुर जैसे अखबारी माफिया का चेहरा छिपा रहता था. शहर में खुद को संपादक और प्रकाशक बनाए रखने के लिए राधामोहन ठाकुर प्रात: कमल का इस्तेमाल करता था. उस दौर में छोटे अखबारों के एसोसिएशन में भी उसका जबरदस्त प्रभाव था. दिल्ली मुंबई से छपने वाली पत्रिकाओं में जब भी सरकारी को चूना लगाने वाले धंधेबाज अखबारी माफिया और मालिकों-प्रकाशकों के बारे में रिपोर्ट छपती थी, तो राधामोहन ठाकुर का नाम टॉप पर होता था.
दिल्ली के पहाड़गंज में उसका स्थायी ठिकाना एक होटल का स्थायी कमरा था, जो उसके नाम पर सालोंभर बुक रहता था. बिहार के कई पत्रकार राधामोहन ठाकुर की सेवाएं लेते हुए उसके खर्चे पर दिल्ली तक आते थे.
दिल्ली के भी कई ‘बिहारी पत्रकारों‘ को ठाकुर साहब खिला-पिलाकर खुश रखते थे. मुजफ्फरपुर के दिनों में हम लोग बागी किस्म के युवा पत्रकार थे, लिहाजा मेरे दिमाग में राधामोहन ठाकुर की छवि शहर के दबंग और माफिया टाइप के धंधेबाज की बन गई थी.
इसी का असर था कि उस शहर में करीब डेढ़ साल रहने के बाद या फिर दिल्ली आने के बाद भी कभी ठाकुर साहब से मिलने नहीं गया. मिलने जाता था, तो एक बच्चा पत्रकार से वो क्या सलूक करते, ये समझा जा सकता था.
ब्रजेश ठाकुर के बारे में लिखते-लिखते पिता के बारे में इसलिए बता रहा हूं कि ताकि पता चले कि फर्जी अखबारों के नाम पर सरकारी विज्ञापन का पैसा बटोरने और अपने रसूख के दम पर ठेके लेने और दिलाने का धंधा करने वाले पिता का बेटा जब ‘पुश्तैनी धंधे’ में उतरा, तो कहां तक उतरता चला गया.
अखबारी माफिया राधामोहन ठाकुर का दबंग बेटा मासूम बेटियों का सौदागर बन गया. सरकारी पैसे से शेल्टर होम चलाने की आड़ में मजबूर बेटियों के साथ दुष्कर्म करने-कराने की सारी हदें पार गया. मुजफ्फरपुर में दबंगई से रहने वाले ब्रजेश ठाकुर ने शहर के दर्जनों पत्रकारों को समय-समय पर चंद हजार की नौकरी दी.
सूबे के कई नेताओं, मंत्रियों और बड़े अफसरों की महफिल उसके यहां लगा करती थी. पटना में भी जब ऐसे ही लोगों के बीच उसकी अड्डेबाजी होती थी. अब कहा जा रहा है कि इन अड्डों पर भी उसके शेल्टर होम की मजबूर लड़कियों के साथ दुष्कर्म किया जाता था. उसके बालिका गृह में रहने वाली 42 लड़कियों में से 32 के साथ बलात्कार की पुष्टि हो चुकी है.
लड़कियों ने अपने बयान में ऐसे-ऐसे खुलासे किए हैं कि पढ़-सुनकर मन सिहर उठता है. नशीली दवाएं खिलाकर दुष्कर्म करने से लेकर बाहर से आए लोगों के सामने कम उम्र की मजबूर लड़कियों को परोसने तक की कहानियां वही लड़कियां सुना रही हैं, जो उसके चंगुल से निकली हैं.
आज ब्रजेश ठाकुर के बारे में जितने खुलासे हो रहे हैं, उसी से पता चल रहा है कि उसकी सरकारी सिस्टम पर कितनी जबरदस्त पकड़ थी. गिनती केअखबार छापकर नेताओं और अफसरों से सेटिंग के जरिए सरकारी विज्ञापन लूटने के गोरखधंधे के साथ-साथ वो एनजीओ के नाम पर करोड़ों का फंड लेने के कारोबार का चैंपियन बन गया था.
ब्रजेश ठाकुर की ऐसी पहुंच हर सरकार में थी. बीते 25 सालों में ब्रजेश ठाकुर ने सियासत में हाथ आजमाने की कई नाकाम कोशिशें कीं. प्रॉपर्टी से ब्रजेश ठाकुर ने राजनीति में हाथ आजमाया. आनंद मोहन की बिहार पीपुल्स पार्टी से चुनाव ढाई दशक पहले पहली बार चुनाव लड़ा. हार गया, तो आरजेडी, जेडीयू समेत दूसरे दलों में भी अपनी पैठ बनाई.
सभी दलों के नेताओं से उसने लेन-देने के रिश्ते बनाए. सत्ताधीशों के दरबार में अपनी पहुंच के दम पर मुजफ्फरपुर में अपनी हनक कायम रखी और कई तरह के धंधे में हाथ आजमाते हुए करोड़ों की संपत्ति अर्जित कर ली. कई बार उसने सूबे के बड़े पत्रकारों को साधने के लिए हिन्दी-अंग्रेजी के बड़े अखबार लॉन्च करने की योजनाएं भी फ्लोट की, लेकिन आखिर में जिला स्तर के छुटभैया हिन्दी-अंग्रेजी अखबार निकालने से आगे इस कारोबार में बढ़ नहीं पाया.
अब हो रहे खुलासों से पता चल रहा है कि जिस ब्रजेश ठाकुर का नाम हमने 25-30 साल पहले जाना था, वो तो कुछ और ही कर रहा था. उसे जानते हुए भी न तो हम 25 सालों से उसके संपर्क में थे. न वो मेरे संपर्क में था. अब उसके कुकर्मों की फेहरिस्त सामने आने के बाद इस बात की तसल्ली है कि चलो भांडा तो फूटा. नकाब तो उतरा.
पहली बार जब ब्रजेश ठाकुर के एनजीओ के तहत चलने वाले शेल्टर होम में लड़कियों के साथ दुष्कर्म और उन्हें जबरन जिस्मफरोशी के धंधे में धकेलने की जानकारी कुछ महीने पहले आई थी , लेकिन उसे जितनी तवज्जो सरकार और मीडिया से मिलनी चाहिए थी, वो नहीं मिली. मुंबई के एक संस्थान टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज (टिस) की टीम ने अपनी रिपोर्ट में दावा किया था कि बालिका गृह की कई लड़कियों ने यौन उत्पीड़न की शिकायत की है. उनके साथ अमानवीय व्यवहार किया जाता है और आपत्तिजनक हालात में रखा जाता है.
इसी रिपोर्ट के हिस्से के आधार पर देर से एफआईआर दर्ज हुई. गिरफ्तारी हुई, लेकिन उसे रिमांड पर लेकर जिस तरह से पूरे मामले की जांच होनी चाहिए थी, वो नहीं हुई. शिकार हुई लड़कियों के बयान और मीडिया के दबाव के बाद सरकार ने सीबीआई जांच के आदेश तो दे दिए हैं. उम्मीद है उन लड़कियों को इंसाफ मिलेगा और ब्रजेश ठाकुर को उसके कुर्कमों की सजा.
इन सबके बीच सवाल सरकार और सिस्टम पर भी है. टिस की रिपोर्ट के तुंरत बाद सरकार ने सख्ती से जांच करके पूरे मामले की तह तक पहुंचने की कोशिश क्यों नहीं की? पुलिस के शिकंजे में होकर भी ठहाके लगाने वाले ब्रजेश को ये गुमान क्यों होता रहा कि उसका कुछ बिगड़ने वाला नहीं? शेल्टर होम की सभी लड़कियों से गहन पूछताछ करने में देर क्यों हुई? मीडिया और खासकर बिहार के ‘कशिश चैनल’ की मुहिम के बाद ही सरकार सक्रिय क्यों हुई?
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Published: 01 Aug 2018,07:21 PM IST