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कश्मीर में लोकतंत्र की नई कवायद से किसे फायदा होगा, सिर्फ बीजेपी को

बहुमत में हेरफेर करने के लिए निर्वाचन क्षेत्रों और मतदाता सूची को मनमाने ढंग से संशोधित किया जा रहा है

एम जी देवसहायम
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>प्रतीकात्मक फोटो</p></div>
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प्रतीकात्मक फोटो

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जब भारत अपने ‘अमृत काल’ में मदहोश है, जम्मू कश्मीर में हालात उतने अच्छे नहीं दिखते. ऐसे राज्य का वर्णन कैसे किया जा सकता है जो कई प्रकार के संकट का सामना कर रहा है. उसका राज्य का दर्जा छिन चुका है. सिपहिया जूतों के तले उसकी आजादी कुचली जा रही है. 5 अगस्त, 2019 को जब संविधान का अनुच्छेद 370 का निरस्त किया गया था, तब कश्मीरियों के दिलो-दिमाग में संशय पैदा हुआ था. उन्हें लगा था कि केंद्र की बहुसंख्यक सरकार का इरादा घाटी के जनसांख्यिकीय संतुलन को बिगाड़ना है ताकि उसे अपने राजनीतिक नियंत्रण में लाया जा सके. और, ये आशंकाएं सच लगने लगीं, जब जम्मू-कश्मीर में परिसीमन आयोग ने 5 मई, 2022 को अपनी रिपोर्ट प्रकाशित की. जम्मू कश्मीर में विधानसभा और संसद के निर्वाचन क्षेत्रों के पुनर्गठन के लिए इस आयोग का गठन किया था.

इस परिसीमन में सिर्फ कश्मीर और जम्मू की जनसंख्या के आंकड़ों को ध्यान में रखा जाना था, क्योंकि लद्दाख को इससे अलग जा चुका है. 2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार, कश्मीर घाटी की जनसंख्या 69,07,623 (56.35%) थी जबकि जम्मू डिविजन की 53,50,811 (43.65%) थी. 1995 में यहां आखिरी बार विधानसभा का परिसीमन किया गया था, जब जम्मू और कश्मीर एक राज्य था. तब कश्मीर को 46 सीटें (55.5%), जबकि जम्मू और लद्दाख को क्रमशः 37 और 4 सीटें (44.5%) आबंटित की गई थीं.

कश्मीर का प्रतिनिधित्व करीब 4% कम

लेकिन सात सीटों के नए नियत कोटे में से छह सीटें जम्मू के हिस्से आई हैं और कश्मीर को सिर्फ एक मिली है. जहां जम्मू डिविजन में विधानसभा सीटों की संख्या अधिकतम 90 सीटों में 37 से बढ़कर 43 (47.78%) हो गई है, वहीं कश्मीर 47 सीटों के साथ (52.22%) लगभग स्थिर रहा है. इस तरह विधायिका में कश्मीर का प्रतिनिधित्व करीब 4% कम है.

परिसीमन आयोग ने सिफारिश की है कि "विधानसभा में कश्मीरी प्रवासियों के समुदाय से संबंधित कम से कम दो सदस्यों" के नामांकन किया जाए और उन्हें "पुद्दूचेरी के केंद्र शासित प्रदेश की विधानसभा के मनोनीत सदस्यों के बराबर" शक्ति दी जाए. ऐसी ही सिफारिश इस क्षेत्र में रह रहे पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) के विस्थापित लोगों के लिए भी की गई है. अगर केंद्र सरकार इन सिफारिशों को मानती है, जिसकी उम्मीद है, और मतदान के अधिकार वाले करीब आधा दर्जन सदस्यों का नामांकन करती है तो इससे बीजेपी को चुनावी फायदा हो सकता है. यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि चुनाव आयुक्त सुशील चंद्रा इस आयोग के सदस्य हैं जिन्होंने ये सिफारिशें की हैं, और बाद में वह मुख्य चुनाव आयुक्त बन गए थे.

परिसीमन आयोग की रिपोर्ट की स्याही सूखती, इससे पहले ही चुनाव आयोग ने जम्मू-कश्मीर के मुख्य चुनाव अधिकारी (सीईओ) हिरदेश कुमार के जरिए वहां की मतदाता सूची में संशोधन की घोषणा की. इससे इस सूची में करीब 25 लाख नए मतदाता जुड़ जाएंगे. यह तीन वर्षों में मतदाताओं की संख्या में 33% का उछाल है जो असामान्य है.

पहले जम्मू और कश्मीर में वोटर बनने के लिए डोमिसाइल सर्टिफिकेट यानी मूल निवासी होने का सर्टिफिकेट जरूरी होता था, लेकिन इस शर्त को अब खत्म कर दिया गया है और सीईओ के हिसाब से,

“एक कर्मचारी, एक स्टूडेंट, एक मजदूर या बाहर का कोई भी व्यक्ति जो जम्मू-कश्मीर में सामान्य रूप से रह रहा है, अपना नाम मतदाता सूची में दर्ज करा सकता है."

ऐसा लगता है कि क्षेत्र में तैनात सशस्त्र बलों के सदस्य भी मतदाताओं के रूप में दर्ज हो सकते हैं.

पीछे से सेंध

कोई हैरानी नहीं कि जम्मू और कश्मीर में सत्ताधारी सरकार ने बहुमत में हेरफेर करके, जिस तरह पिछवाड़े से सेंध लगाने की कोशिश की है, उसका राजनैतिक दल जबरदस्त विरोध कर रहे हैं. पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) की प्रमुख और जम्मू-कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने कहा है

“25 लाख से ज्यादा नॉन-लोकल्स को जम्मू-कश्मीर की वोटिंग लिस्ट में शामिल किया जा रहा है जोकि चुनावी लोकतंत्र के ताबूत में आखिरी कील है. जम्मू-कश्मीर बीजेपी के लिए प्रयोग की धरती बन गया है. मैं देश से कहना चाहती हूं कि बीजेपी राष्ट्रहित में कुछ नहीं कर रही है. वह बस वही कर रही है जो उसका मकसद रहा है. उसने राष्ट्रहित को भ्रष्ट कर दिया है. धांधली अब बीजेपी का हिस्सा बन चुकी है. इसके लिए वह पैसे और ताकत, दोनों का इस्तेमाल कर रही है."

लेकिन जम्मू-कश्मीर के सरकारी अधिकारी इन आरोपों से इनकार करते हैं और कहते हैं:

"अनुच्छेद 370 को निरस्त करने और जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1950 और 1951 की एप्लिकेबिलिटी के साथ, भारत का कोई भी नागरिक, जो योग्य आयु का है, और ‘किसी स्थान पर आम तौर पर रहता है, वह उस स्थान की मतदाता सूची में पंजीकृत होने के लिए पात्र है, बशर्ते उसे अयोग्य नहीं ठहराया जाता.’

अधिकारियों ने कहा है कि अनुच्छेद 370 ने जम्मू और कश्मीर को विशेष संवैधानिक दर्जा दिया था. उसे निरस्त करने से पहले राज्य में विधानसभा की मतदाता सूची जम्मू और कश्मीर जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1957 के तहत बनाई गई थी. इसके हिसाब से स्थायी नागरिक ही विधानसभा की मतदाता सूची में अपना नाम दर्ज करा सकते थे और सिर्फ उन्हें वहां वोट देने का अधिकार था.

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बेशक, यह सच है. लेकिन इसके लिए उन्हें स्थायी निवास का सर्टिफिकेट और डोमिसाइल सर्टिफिकेट पेश करना होता था. अब यह फ्री-फॉर-ऑल हो गया है. इसके अलावा वोटर्स लिस्ट में धांधली का भी खतरा है. हाल ही में ऐसे कई मामले देखने को मिले, जब आधार को वोटर आईडी से जोड़ने में लोगों से जबरदस्ती की गई. इसके बाद पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने चुटकी ली, "क्या बीजेपी जम्मू-कश्मीर के असली मतदाताओं के समर्थन को लेकर इतनी असुरक्षित है कि उसे सीटें जीतने के लिए अस्थायी मतदाताओं को आयात करने की जरूरत पड़ रही है?"

प्रशासन का 'स्पष्टीकरण'

जम्मू और कश्मीर प्रशासन ने स्पष्ट किया कि मतदाता सूची के इस संशोधन में केवल केंद्र शासित प्रदेश के मौजूदा निवासियों को शामिल किया जाएगा और इस सूची में जो लोगों की संख्या बढ़ेगी, वे वही होंगे 1.10.2022 या उससे पहले 18 वर्ष के हो गए हैं. लेकिन इस बात पर भरोसा नहीं होता क्योंकि इस स्पष्टीकरण में इस बारे में चुप्पी साध ली गई है कि क्या डोमिसाइल के बाहर के लोग या जिनके पास डोमिसाइल सर्टिफिकेट नहीं है, वे लोग मतदाता के रूप में पंजीकरण कर सकते हैं.

जो भी हो, नए निर्वाचन क्षेत्रों की रचना और मतदाता सूची में संशोधन की पूरी कवायद को लेकर यह राय बनती है कि अनुच्छेद 370 को निरस्त किया जा चुका है और सुप्रीम कोर्ट में लंबित सभी चुनौतियां या तो विफल हो जाएंगी या खत्म हो जाएंगी. सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले को जैसे निपटाया है, उसे देखते हुए ऐसी राय बनती है. संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत याचिकाएं दायर की गई थीं जिनमें राज्य के निरस्तीकरण और उसके बाद के विभाजन को चुनौती दी गई थी. नोटिस 28 अगस्त 2019 को जारी किया गया था. लेकिन उस पर कोई स्टे नहीं लगाया गया.

इसके बाद मामले की सुनवाई दिसंबर 2019 और जनवरी 2020 में की गई, जब अदालत ने इस मुद्दे पर अपने आदेश को सुरक्षित रखा- क्या मामले को एक बड़ी पीठ को भेजा जाना चाहिए. करीब दो महीने बाद 2 मार्च 2020 को सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि इसे बड़ी पीठ को रेफर करने का कोई कारण नहीं है. अब सितंबर 2022 है, और मामला एक इंच भी आगे नहीं बढ़ा है.

इस बीच केंद्र सरकार की कार्रवाई का नतीजा विनाशकारी रहा है. जम्मू-कश्मीर को लद्दाख से अलग करके और केंद्र शासित प्रदेश बनाकर कुचल दिया गया. पहले परिसीमन आयोग की रिपोर्ट ने चुनावों से पहले विधानसभा और संसद के निर्वाचन क्षेत्रों में गोलमाल किया. अब एक खास राजनैतिक व्यवस्था के लिए बहुमत में हेरफेर किया जा रहा है और इसके लिए मतदाता सूची में मनमाने ढंग से संशोधन किया जा रहा है.

यह उस अन्याय के अलावा है, जो कश्मीर के लोगों को झेलना पड़ रहा है. उनके मौलिक अधिकारों और आजादी का लगातार उल्लंघन हो रहा है. फिर भी सुप्रीम कोर्ट, जो इस देश में इंसाफ का अंतिम दरवाजा है, के पास इतना समय नहीं कि उन याचिकाओं की सुनवाई कर सके, जिनमें संविधान के साथ होने वाली इस तथाकथित धोखाधड़ी को चुनौती दी गई है.

क्या राजनीतिक शून्य का फायदा उठाने की कोशिश है?

क्या यह सब घाटी में एक बड़े राजनीतिक शून्य के बीच 'नए लोकतंत्र' के निर्माण का एक संयुक्त प्रयास है? अगर ऐसा है, तो पीपुल्स कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष सज्जाद लोन के शब्द सच साबित होंगे: “यह खतरनाक है. मुझे नहीं पता कि वे क्या हासिल करना चाहते हैं. यह महज़ एक शरारत नहीं. लोकतंत्र अतीत का अवशेष है, खासकर कश्मीर के संदर्भ में. आप 1987 को याद करें. हम अभी तक इससे बाहर नहीं आए हैं. 1987 को दोबारा मत शुरू कीजिए. यह उतना ही विनाशकारी होगा." हम उम्मीद कर सकते हैं कि ऐसा न हो.

(लेखक एक पूर्व आईएएस अधिकारी और "इलेक्टोरल डेमोक्रेसी: एन इंक्वायरी इन द फेयरनेस एंड इंटीग्रिटी ऑफ इलेक्शन इन इंडिया" किताब के एडिटर हैं. यह एक ओपिनियन आर्टिकल है और इसमें व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो समर्थन करता है और न ही है उनके लिए जिम्मेदार.)

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