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गुजरात में भी उत्तर प्रदेश, पंजाब और गोवा के साथ-साथ अगले साल मार्च में चुनाव कराए जा सकते हैं. गुजरात की सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी ने अपने विधायकों से तय समय से 6 महीने पहले ही चुनाव की तैयारी करने को कह दिया है.
देखा जाए, तो समय से पहले चुनाव कराने के लिए बीजेपी के पास स्पष्ट कारण हैं. राज्य में वह दो तरह की समस्याओं से जूझ रही है. पहली पाटीदारों की समस्या (पाटीदार आरक्षण आंदोलन) से जुड़ी है, तो दूसरी बड़ी समस्या ऊना में गोरक्षकों द्वारा चार दलितों की पिटाई के बाद पूरे राज्य में चल रहा दलित आंदोलन है.
मई 2014 में नरेंद्र मोदी के दिल्ली आने के बाद से ही गुजरात में बीजेपी का पतन हो रहा है. मोदी की जगह मुख्यमंत्री बनीं आनंदीबेन पटेल अपने को मोदी की तरह प्रभावशाली साबित नहीं कर पाईं. उन्हीं के समय पाटीदार और दलित आंदोलन जंगल की आग की तरह फैला. उनके ऊपर अपनी बेटी अनार को कौड़ियों के दाम जमीन आवंटित करने का आरोप भी लगा. यहां तक कि उनके उत्तराधिकारी विजय रूपानी भी हर दूसरे दिन विवादों में रहते हैं. पिछले सप्ताह ही मुख्यमंत्री आवास में दमन के शराब तस्कर राजेश माइकल की फोटो के कारण वे विवादों में रहे. महात्मा गांधी के गृह राज्य में, जो शराब मुक्त घोषित किया जा चुका है, वहां ऐसी घटना राजनीति को दूषित करने वाली है.
राज्य की अर्थव्यवस्था लड़खड़ा रही है. पिछले 6 महीनों में सूरत के हीरा व्यापार में 25-30 प्रतिशत तक की गिरावट दर्ज की गई है.
कुछ इसी तरह की गिरावट वस्त्र उद्योग में भी दिखाई दे रही है. चीनी यार्न और कपड़ों का आयात बढ़ने से इसका उत्पादन 40-45 प्रतिशत तक गिर गया है. सूरत वस्त्र उत्पादक संगठन के अशोक जीरावाला का कहना है कि उन्होंने इसके बारे में कपड़ा मंत्री स्मृति ईरानी से कई बार बात की है, लेकिन उन्होंने कुछ नहीं सुना और बहरी बनी रहीं. अब ऐसे में पार्टी अपनी स्थिति और बदतर होने का इंतजार नहीं कर सकती, इसलिए जल्द चुनाव के बारे में पुनर्विचार किया जा रहा है. बीजेपी नेताओं को केवल स्थिति को स्पष्ट करना है.
आम आदमी पार्टी के गुजरात में कदम रखने से बीजेपी की मुश्किलें और बढ़ गई हैं. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के तीन दिन तक गुजरात में रहने से सोई हुई बीजेपी अचानक जाग गई है.
बीजेपी को भरोसा था कि वह गुजरात में 20 साल से भी ज्यादा समय से सत्ता से बाहर और लगभग खत्म हो चुकी कांग्रेस से आसानी से निपट लेंगे. लेकिन 'आप' की अपनी नई ताकत है और नौजवानों, पाटीदार, दलित, पिछड़े समुदाय और अल्पसंख्यक के पार्टी को लेकर रुख ने बीजेपी को सोचने पर मजबूर कर दिया है.
'आप' के गुजरात प्रभारी गुलाब सिंह को सूरत में दिल्ली पुलिस ने रैली से सिर्फ छह घंटे पहले एक पुराने मामले में गिरफ्तार कर लिया था.
यह रैली वराछा में योगी चौक पर हुई थी, जिस पर पाटीदारों की मजबूत पकड़ है. उन्होंने बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह तक को वहां रैली करने की इजाजत नहीं दी थी.
शाह ने रैली कुछ दूरी पर अब्राहम एरिया में एक स्कूल के बंद कैंपस में की थी. विजय रूपानी, पूर्व मुख्यमंत्री आनंदीबेन, राज्य बीजेपी प्रमुख जीतू वघानी और केंद्रीय मंत्री मंसुखानी मंडाविया सहित सभी 44 पाटीदारी विधायक वहां मौजूद थे. तब भी पाटीदारों ने रैली में इतना हंगामा किया कि शाह को महज चार मिनट में अपना भाषण खत्म करना पड़ा.
बीजेपी की मुश्किलें बढ़ाने के लिए पाटीदार और उनके नेता हार्दिक पटेल भी केजरीवाल के समर्थन में उतर आए हैं. बड़ी चालाकी से दिल्ली मुख्यमंत्री ने रविवार को दलित नेता जिग्नेश मेवानी और ओबीसी के उभरते नेता अल्पेश ठाकुल को खुले तौर पर निमंत्रण दिया. उन्होंने दलितों और पाटीदारों से जुड़े आंदोलनों में मारे गए लोगों के रिश्तेदारों से भी मुलाकात की.
दूसरी ओर, कांग्रेस ने इसमें कूदने से इनकार कर दिया है. वह मार्च में होने वाले चुनाव का इंतजार कर रही है, जिसके बाद गुजरात में चुनाव प्रचार करेगी. हालांकि स्थानीय कांग्रेस नेताओं को इस बात का अनुभव हो रहा है कि उनके पांव के नीचे से जमीन खिसक रही है.
सूरत में कांग्रेस के 15 पार्षदों में से एक दिनेश पटेल कहते हैं, “दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक हमारे परंपरागत वोट बैंक रहे हैं. अगर हमलोग जल्द ही कुछ नहीं करते हैं, तो ये वोट आम आदमी पार्टी के पास चला जाएगा, जिसे पहले ही शक्तिशाली पाटीदार लॉबी का समर्थन मिल चुका है.”
पिछले कॉर्पोरेशन चुनाव में कांग्रेस का एक भी सदस्य जीतकर नहीं आया था. अगर इसबार 15 जीतकर आए, तो इसके पीछे पाटीदार आंदोलन बड़ी भूमिका है.
समय पूर्व चुनाव के बारे में आम आदमी पार्टी कहती है:
हालांकि, बीजेपी यह स्वीकार नहीं करती है कि गुजरात में समय पूर्व चुनाव का निर्णय पाटीदार आंदोलन या केजरीवाल के कारण लिया जा रहा है. सूरत के करंज से बीजेपी के पार्षद जनक ए पटेल कहते हैं, “हमलोग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के एक राष्ट्र एक चुनाव के विचार को साकार करना चाहते हैं. अगर उनके गृहराज्य गुजरात में ऐसा होता है, तो यह अच्छा उदाहरण हो सकता है. अगर किसी कारण से हमारे यहां फरवरी-मार्च में पंचायत चुनाव कराना होगा, तो किसी को इस बात की आपत्ति नहीं होगी कि विधान सभा और पंचायत के चुनाव साथ-साथ हो रहे हैं.”
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं. इस आलेख में प्रकाशित विचार उनके अपने हैं. आलेख के विचारों में क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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Published: 20 Oct 2016,12:45 PM IST