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‘रेप के बाद सोई क्यों?’ आदर्श भारतीय महिला की ये कैसी परिभाषा?

पिछले ही हफ्ते गुड इंडियन वुमेन की परिभाषा में एक बार फिर नई विशेषता जोड़ी गई है.

माशा
नजरिया
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पिछले ही हफ्ते गुड इंडियन वुमेन की परिभाषा में एक बार फिर नई विशेषता जोड़ी गई है.
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पिछले ही हफ्ते गुड इंडियन वुमेन की परिभाषा में एक बार फिर नई विशेषता जोड़ी गई है.
(फोटो: ट्टिटर)

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पिछले ही हफ्ते गुड इंडियन वुमेन की परिभाषा में एक बार फिर नई विशेषता जोड़ी गई है. यह नई विशेषता यह है कि यौन शोषण होने के बाद वह सोए नहीं. अगर वह सो गई, तो आदर्श भारतीय नारी कैसी? इस नई विशेषता को जोड़ने वाला कर्नाटक उच्च न्यायालय है. उसने बीते हफ्ते बलात्कार के एक आरोपी को अग्रिम जमानत दी है और शिकायतकर्ता महिला से कुछ सवाल भी किए- जैसे वह रात 11 बजे दफ्तर में क्या करने पहुंची थी. उसने आरोपी के साथ शराब क्यों पी थी- आरोपी के साथ सुबह तक क्यों रही थी. अगर उसके साथ शोषण हुआ था तो वह थककर क्यों सो गई थी- आखिरकार यह भारतीय स्त्री के गुण तो नहीं हैं.

भारतीय स्त्रियों के गुण?

भारतीय स्त्रियों के ‘गुणों’ पर हम प्रकाश डालना चाहते हैं. अगर किसी ने गीता प्रेस की स्त्री धर्म प्रश्नोत्तरी पढ़ी है तो उसके लिए उन्हें समझना जरा भी मुश्किल नहीं होगा. आदर्श महिला बनने की ट्रेनिंग वह किताब पचासियों सालों से दे रही है. नारी धर्म, स्त्री के लिए कर्तव्य दीक्षा, दांपत्य जीवन के आदर्श जैसे उनके अंक और किताबें अच्छी भारतीय स्त्री बनना सिखाती रही हैं. भले ही यह किताब 1926 में सबसे पहले लिखी गई थी, लेकिन गीता प्रेस की सबसे ज्यादा बिकने वाली किताबों में से एक रही है.

यह आदर्श रूप चहुं ओर देखा जा सकता है. टीवी सीरियल्स में, विज्ञापनों में, सोशल मीडिया पर- खबरों में भी. तभी पुणे में गिरफ्तार मानवाधिकार कार्यकर्ता वरवर राव की बेटी से पुलिस ने पूछा था- शादी हो गई तो शादीशुदा औरतों की तरह सिंदूर क्यों नहीं लगाया?

आदर्श लड़की वह जो मां-बाप के कहने पर चले. उनकी पसंद के लड़के से शादी कर, करियर चुने. अपनी देह के कोटर से बाहर न निकले. जो मुंह न खोले. जो पूर्व महिला एवं बाल कल्याण मंत्री मेनका गांधी के अनुसार, अपने ‘हारमोनल विस्फोट’ पर नियंत्रण रख पाए. हॉस्टलों में नाइट कर्फ्यू भी आदर्श औरत के प्रशिक्षण का एक हिस्सा है. सो, अदालतें गुड इंडियन वुमेन की तलाश करती हैं.

गुड इंडियन वुमेन अक्सर न्याय पा लेती हैं. यह बात अलग है कि भारतीय बार एसोसिएशन की स्टडी कुछ और ही कहती है. उसके अनुसार, 69% औरतें यौन शोषण की रिपोर्ट नहीं करतीं, इसके बावजूद उसे झेलती हैं. एनसीआरबी का डेटा कहता है कि देश में यौन शोषण के मामलों में कनविक्शन रेट यानी सजा मिलने की दर करीब 18.9% ही है.

जब विक्टिम ही कलप्रिट बन जाता है

बेशक, पीड़ित को ही दोषी करार देने का यह पहला मामला नहीं. इससे पहले कितने ही मामलों में ऐसा हो चुका है. 2017 में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने बलात्कार के तीन अपराधियों को यह कहते हुए जमानत दे दी थी कि लड़की का खुद का व्यवहार गड़बड़झाला है. वह सिगरेट पीती है और उसके हॉस्टल रूम से कंडोम मिले हैं. इसी तरह पीपली लाइव वाले डायरेक्टर महमूद फारुखी बलात्कार के आरोप से बरी कर दिए गए थे, क्योंकि उन पर आरोप लगाने वाली अमेरिकी रिसर्चर के चरित्र पर सवाल उठाए गए थे. कहा गया था कि आरोपी पीड़ित के नो को यस समझ बैठा था.

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दिल्ली होईकोर्ट की मशहूर वकील रेबेका जॉन के फेसबुक पेज की एक पोस्ट में ऐसी 16 दलीलों का जिक्र है जो बलात्कार के मामलों के दौरान अक्सर सुनने को मिलती हैं. अदालत के भीतर, अदालत के बाहर. जैसे- देखकर तो नहीं लगता कि उसका बलात्कार हुआ होगा. उसके कपड़े तो देखो- वह तो खुद ही मुसीबत को न्यौता देती है. रात को घर के बाहर क्या करने गई थी. वह तो कितने लड़कों के साथ नजर आती है. हम लोगों ने औरतों को बहुत आजादी दी हुई है. 

दिल्ली की नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर मृणाल सतीश की किताब डिस्क्रिशन एंड द रूल ऑफ लॉ : रिफॉर्मिंग रेप सेनटेंसिंग इन इंडिया इसकी मिसाल है. किताब में 1984 से 2009 के बीच बलात्कार के 800 मामलों की छानबीन की गई है. इसमें कहा गया है कि अगर बलात्कार का आरोपी कोई परिचित व्यक्ति होता है, पीड़िता शादीशुदा और सेक्सुअली एक्टिव होती है, तो अपराधियों को कम सजा मिलती है.

एक मामला, जिसने बलात्कार के कानून को नया आयाम दिया

कर्नाटक उच्च न्यायालय ने आरोपी को जमानत देते हुए पीड़िता पर जो सवाल उठाए हैं, इस पर 1972 का मथुरा बलात्कार मामला याद आ जाता है. इस मामले में मथुरा का बलात्कार पुलिस थाने में हुआ था. बाद में स्थानीय सत्र न्यायालय ने आरोपी पुलिस वालों को यह कह छोड़ दिया था कि पीड़िता सेक्स की आदी है और पुलिस वाले नशे में थे. उसने खुद ही पुलिस वालों को उकसाया था. जब यह फैसला बॉम्बे हाई कोर्ट ने पलट दिया तो मामला सर्वोच्च न्यायालय में पहुंचा. सर्वोच्च न्यायालय ने सत्र न्यायालय के फैसले को ही दोहराया. इसके बाद उपेंद्र बक्शी, लतिका सरकार जैसे कानूनविदों ने सर्वोच्च न्यायालय के जजों को एक पत्र लिखा. देश में इस फैसले के खिलाफ विरोध प्रदर्शन हुए. मथुरा को इंसाफ दिलाने के लिए आवाजें उठाई गईं.

फिर आईपीसी की धारा 376 में चार नए उपबंध ए, बी, सी और डी जोड़े गए. और भी बदलाव किए गए. ‘एविडेंस ऐक्ट’ में सेक्शन 114 ए जोड़ा गया जिसके तहत ‘अगर पीड़िता यह कहती है कि उसने यौन संबंध के लिए हां नहीं कहा था तो अदालत को इस बात का यकीन करना चाहिए कि उसके साथ जबरदस्ती की गई थी (अगर इसके खिलाफ कोई सबूत न हो तो.)’ 1983 में क्रिमिनल लॉ अमेंडमेंट ऐक्ट भी आया जिसके तहत अगर पीड़िता मानसिक तौर पर विचलित हो या वो नशे में हो और ऐसे में उसे यौन संबंध बनाने के लिए मजबूर किया गया हो तो इसे बलात्कार माना जाएगा.

यूं थककर सोना आदर्श पत्नी होने का सबूत भी

कर्नाटक बलात्कार मामले में लड़की का थककर सो जाना गलत है. चूंकि लड़की शादीशुदा नहीं. शादीशुदा हो तो पति के शोषण के बाद उसे थककर सो जाना चाहिए. क्योंकि मैरिटल रेप को हम रेप मानते ही नहीं. 2017 में सर्वोच्च न्यायालय ने एक याचिका की सुनवाई में कहा था कि अगर आदमी अपनी 15 साल से अधिक उम्र की बीवी के साथ जबरन संबंध बनाता है तो वह कोई अपराध नहीं होता. भला पति पत्नी से बलात्कार कैसे कर सकता है? संबंध बनाना तो उसका हक है.

दरअसल आईपीसी की धारा 375 का एक अपवाद (एक्सेप्शन 2) है जिसमें कहा गया है कि पति और पत्नी (जोकि 15 वर्ष से अधिक की है) के बीच का शारीरिक संबंध अपराध नहीं है. यूं हमारे देश के कानून बहुत दिलचस्प हैं. अक्सर एक दूसरे के विरोध में खड़े रहते हैं

मौजूदा बलात्कार कानून 15 से 17 साल के बीच के लड़के और लड़की के बीच सहमति से सेक्स को संज्ञेय अपराध कहता है. इसके अलावा हमारे देश में 2012 का पॉक्सो एक्ट यानी प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रन फ्रॉम सेक्सुअल ऑफेंसेज़ भी है. यह बच्चों का यौन शोषण करने वालों को दंड देता है. इस कानून के तहत 18 साल से जो भी कम हैं, वे बच्चे हैं. इसमें ऐसा कोई अपवाद नहीं है.

इसे लेकर जब अदालतों में याचिकाएं दायर की गईं पर अदालतों ने उनकी दलीलों को नहीं माना. 2015 में सर्वोच्च न्यायालय ने एक याचिका को पर्सनल कॉज कहकर खारिज किया था. इसमें एक एमएनसी एग्जीक्यूटिव ने अपने पति पर मैरिटल रेप का आरोप लगाया था. तब अदालत ने कहा था कि यह उसका पर्सनल कॉज है, पब्लिक कॉज नहीं.

कुल मिलाकर हमें यह मानना होगा कि हर आजाद प्रौढ़ा कपटी और हर बिंदास युवती मनचली नहीं होती. एक मित्र ने पूछा था, लड़कियों को एंपावर करने की मुहिम जोर-शोर से चल रही है. क्या कोई लड़कों को भी इन एंपावर्ड लड़कियों के लिहाज से तैयार कर रहा है. हमें लड़कियों को परिभाषाओं से बाहर रखकर लड़कों के लिए भी कोई परिभाषा बनानी चाहिए. एक गुड ब्वॉय की परिभाषा. अगर लड़कों के लिए ये परिभाषाएं रची जाएंगी तो लड़कियां के साथ होने वाले शोषण अपने आप खत्म हो जाएगा.

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Published: 27 Jun 2020,02:59 PM IST

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