मेंबर्स के लिए
lock close icon
Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Voices Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Opinion Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019आंध्र से गोवा और कर्नाटक तक ‘अनैतिक दलबदल’, फिर भी एक अजीब चुप्पी

आंध्र से गोवा और कर्नाटक तक ‘अनैतिक दलबदल’, फिर भी एक अजीब चुप्पी

विधायक और सांसद चुनाव जीतने के बाद पार्टी छोड़कर सत्ताधारी पार्टी में क्यों शामिल हो जाते हैं?

संजय अहिरवाल
नजरिया
Updated:
विधायक और सांसद चुनाव जीतने के बाद पार्टी छोड़कर सत्ताधारी पार्टी में क्यों शामिल हो जाते हैं?
i
विधायक और सांसद चुनाव जीतने के बाद पार्टी छोड़कर सत्ताधारी पार्टी में क्यों शामिल हो जाते हैं?
(फोटोः The Quint)

advertisement

इस देश में पैसे का खुला खेल फर्रुखाबादी चल रहा है और सब चुपचाप होठों पर उंगली रखकर बैठे हैं. सब के सब धृतराष्ट्र बन गये हैं. ठहरिये. कोई ये भी तो नहीं बोल रहा कि “ये सब हो क्या रहा है” ! संसद ... विधानसभाएं... अदालतें... सब गांधीजी के तीन बंदर हो गए हैं. इस देश की राजनीति लगातार नीचे गिरती जा रही है. लोगों के दिए वोट का मजाक बनाया जा रहा है. जनतंत्र की धज्जियां उड़ रही हैं.

चंद्रबाबू नायडू की तेलगू देसम पार्टी के राज्यसभा सांसद अचानक बीजेपी में शामिल हो गए. पहले उन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगते थे, अब वो सत्ताधारी बीजेपी के ‘माननीय’ सांसद हैं.

फिर कर्नाटक के विधायकों की बारी आई. वहां तो लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद से ही जैसे कांग्रेस और जेडीएस विधायक उम्मीद लगाए बैठे थे कि अब हमारा भी ‘जमीर’ जागेगा और हम जिस पार्टी से जीतकर विधायक बने हैं उसे लात मारेंगे.

अब बारी गोवा की है. वहां पंद्रह में से दस कांग्रेसी विधायकों ने अपना कांग्रेसी जामा उतारकर बीजेपी का भगवा वस्त्र धारण कर लिया है. क्या ये जनता के दिए वोट का तिरस्कार नहीं हैं. चलो मान लिया कि विधायक तो अपना हित देख रहे हैं लेकिन ऐसी स्थिति में क्या ये सवाल नहीं उठना चाहिए कि विधायकों को जिस जनता ने वोट दिए उनका भी ‘सौदा’ नहीं हो रहा है ?

अब ये बात तो किसी से छुपी नहीं रही है कि चुनाव आयोग सबसे बड़ा ‘धृतराष्ट्र’ है. लोकसभा चुनाव में एक पार्टी ने पैसा पानी की तरह बहाया. पैसा खर्च करने की सीमा बस एक मजाक बनकर रह गई. यानी पैसे से वोट रिझाये गए.
ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

‘दलबदल कानून कागजों में सिमट कर रह गया’

राजनीति में इसी पैसे के खुले खेल को रोकने के लिये दल बदल पर कानूनी रोक लगाई गयी थी. लेकिन वो आज सिर्फ कागजों में सिमट कर रह गया है. एक समय हरियाणा की राजनीति ‘आया राम-गया राम’ की हुआ करती थी. उत्तरपूर्व के छोटे राज्यों में भी रातोंरात सत्ता बदल जाया करती थी. लेकिन अब तो जैसे ये पूरे देश के लिए ये आम बात सी हो गयी है.

पता नहीं कोई सवाल क्यों नहीं उठा रहा ? ज्यादातर मीडिया संस्थानों ने तो जैसे आंखों पर पट्टी बांध रखी है. मीडिया को आलोचनात्मक भूमिका निभानी चाहिए, लेकिन वह सत्ता के महिमामंडन में लगा है.  

मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस लोकसभा चुनाव की हार से ही नहीं उबर सका है. वहां सारे नेता राहुल गांधी को मनाने में ही लगे हुए हैं. ये पार्टी की अंदरूनी अस्थिरता का ही नतीजा है कि कर्नाटक और गोवा में विधायक कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में जा रहे हैं.

कांग्रेस के अलावा बाकी दलों ने क्यों साध रखी है चुप्पी

बाकी क्षेत्रीय पार्टियां भी अपना राजनीतिक अस्तित्व बचाने में लगी हुई हैं. उनको भी लग रहा है कि अब जैसे अमित शाह ने अपना ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ का सपना करीब-करीब पूरा कर लिया है तो जल्द ही उनकी बारी आने वाली है. वैसे भी कांग्रेस के राजनीतिक अखाड़े से हट जाने का मतलब है उनकी बीजेपी से सीधी लड़ाई. और ऐसे में वो बंगाल में ममता बनर्जी का हाल देख ही चुके हैं.

देश में अब एक डर का माहौल बन चुका है. जो शासन के खिलाफ सवाल उठाता है उसके पीछे प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी, आयकर विभाग यानी इनकम टैक्स विभाग और सीबीआई छोड़ दी जाती है. बाकी सब अपनी रोटियों सेकने में लगे हैं और फायदा उठा रहे हैं. बिल्ली के गले में घंटी कोई क्यों बांधेगा? 

अब सुप्रीम कोर्ट की वकील इंदिरा जयसिंह का मामला ही लीजिए. सरकार के खिलाफ कुछ मामलों में आवाज उठाई तो आज उनके यहां सीबीआई की रेड पड़ रही है.

ये “धनतंत्र”, “राजतंत्र” और “जनतंत्र” पर एक पार्टी का एकाधिकार देश के लिये खतरे की घंटी है. इस राजनीतिक समुद्री मंथन से कोई अमृत नहीं बल्कि जहर ही निकलेगा. क्योंकि मंदार पर्वत की जगह लालच ने ले ली है और नागराज वासुकी की जगह है पैसा. देवता बचे ही नहीं है, हर तरफ असुर ही नजर आते हैं. तो भला नीलकंठेश्वर क्यों खामखाह जहर पीकर किसी को बचाएंगे ?

(ये लेख संजय अहिरवाल ने लिखा है. लेखक एनडीटीवी के मैनेजिंग एडिटर रह चुके हैं. फिलहाल, वह एपीजे सत्या यूनिवर्सिटी में स्कूल ऑफ जर्नलिज्म एंड मासकम्यूनिकेशन के हेड हैं. आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

अनलॉक करने के लिए मेंबर बनें
  • साइट पर सभी पेड कंटेंट का एक्सेस
  • क्विंट पर बिना ऐड के सबकुछ पढ़ें
  • स्पेशल प्रोजेक्ट का सबसे पहला प्रीव्यू
आगे बढ़ें

Published: 12 Jul 2019,05:28 PM IST

Read More
ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT