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चाय की दुकान पर एक गंभीर चर्चा हो रही थी. विषय था- आज के नौजवान. पहला शख्स बोला- नौजवानों को देखकर बहुत चिंता होती है. दूसरे ने कहा- पता नहीं क्यों नेतागिरी में समय बर्बाद करते हैं? उनका काम पढ़ना-लिखना है, वो करें. टैक्सपेयर के पैसे पर पलते हैं, फिर यूनिवर्सिटी में जाकर नेतागिरी करते हैं? जब देखो, सड़क पर उतर आते हैं. तीसरे ने कहा- ऐसी यूनिवर्सिटी बंद हो जानी चाहिए जहां नेतागिरी को बढ़ावा दिया जाता है.
स्टूडेंट्स का काम है पढ़ना. ये ठीक वैसे ही है जैसे मजदूर का काम है, मजदूरी करना. 1984 की फिल्म ‘अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है’ में नायक अल्बर्ट का मानना है कि यूनियनबाजी निठल्लों, गुंडों का काम है. उसके पिता मुंबई की कपड़ा मिल हड़ताल में शामिल हैं. पिता को जब मालिकान के गुंडे पीटते हैं तो अल्बर्ट को समझ आता है कि यूनियनबाजी हक की लड़ाई का हथियार है.
मजदूरों के लिए यूनियनबाजी या यूं कहें कि एकजुटता से ही अपनी मांगों को रखना संभव है. यूनियनबाजी करना, या नेतागिरी, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. दोनों अपनी-अपनी तरह से अपने अधिकारों के संघर्ष हैं. न मजदूरों का यूनियनबाजी करना गलत है और न ही नौजवानों का नेतागिरी करना.
सवाल फिर वही है- शिक्षा का असली उद्देश्य क्या है? साठ के दशक में ब्राजील में एक मशहूर शिक्षाविद हुए थे पॉलो फ्रेयरे. उनकी मशहूर किताब ‘पेडेगॉगी ऑफ द ऑप्रेस्ड’ में शिक्षा के महत्व का खुलासा किया गया है.
ये सवाल महंगी होती शिक्षा के हैं. रोटी-कपड़ा-मकान के हैं. बेरोजगारी के हैं. नव उदारवाद इन्हीं सवालों से बचना चाहता है. किसी भी राजनैतिक प्रणाली में सत्ताधारी कभी नही चाहते कि देश के नागरिक सोचने लगें. वह जानता है कि नागरिक सोचेंगे तो यथास्थिति कायम नहीं रहेगी.
इसी से सत्ताधारी यह नहीं चाहते कि स्टूडेंट्स राजनीति करें. उसके लिए उसने ‘टोटल इंस्टीट्यूशन’ की अवधारणा को अपनाया है. ‘टोटल इंस्टीट्यूशंस’ के बारे में कनाडा के प्रख्यात समाजशास्त्री इरविग गॉफमैन ने अपनी किताब ‘असायलम्स’ में लिखा था. गॉफमैन ने मेंटल हॉस्पिटल्स, कॉन्सन्ट्रेशन कैंप्स, आर्मी बैरक्स और बोर्डिंग स्कूलों को ‘टोटल इंस्टिट्यूशंस’ माना था और कहा था कि इन जगहों पर रहने वाले (इनमेट्स) एक खास लक्ष्य को पूरा करने के लिए काम करते रहते हैं. सबसे खास बात यह है कि यहां रहने वाले दुनिया से काट दिए जाते हैं.
गॉफमैन की यह परिभाषा बहुत हद तक सामान्य कॉलेजों और स्कूलों पर भी लागू होती है. जैसा कि मशहूर अमेरिकी समाजशास्त्री एच.एफ. गिबन ने कहा है, ‘टोटल इंस्टिट्यूशंस’ में जो तरीके प्रॉडक्ट्स और सर्विसेज को मार्केट करने के लिए अपनाए जाते हैं, वही तरीके अक्सर कॉलेजों में भी इस्तेमाल किए जाते हैं.
पर सवाल है कि देश के नौजवान जब कॉलेज, यूनिवर्सिटी में भी अपने कान-आंख-मुंह बंद करके रहेंगे तो देश का भविष्य कैसे तय करेंगे? बिना समझे-बूझे और सोचे, अपने देश के प्रतिनिधियों का चुनाव कैसे करेंगे? और राजनीति में उतरने वाले नौजवानों की क्वॉलिफिकेशन क्या होगी? आखिर नेता बनाने के लिए अलग से कोई इंस्टिट्यूशन तो है नहीं.
सच है कि हमारे यहां नेतागिरी करने के लिए किसी क्वॉलिफिकेशन की जरूरत नहीं रखी गई है. पर इसी वजह से इनफॉर्मल ट्रेनिंग की जरूरत बढ़ जाती है. समाज को प्रबुद्ध युवा चाहिए. देश के कॉलेज और यूनिवर्सिटी ही उन्हें प्रबुद्ध बनने का मौका देते हैं. उन्हें सोचने-समझने और अपनी राय कायम करने का माहौल देते हैं. अपनी बात कहने और दूसरे की बात सुनने का मंच देते हैं. अगर कहने-सुनने में, समाज में चल रही बहस को आगे बढ़ाने में अपना योगदान देना नेतागिरी है तो युवाओं को नेतागिरी करने दीजिए. नेतागिरी करना कोई बुरी बात नहीं है.
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Published: 18 Nov 2019,09:44 PM IST