मेंबर्स के लिए
lock close icon
Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Voices Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Opinion Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019JNU को बुरा मत कहिए,सत्ता तो चाहती है कि छात्र राजनीति से दूर रहें

JNU को बुरा मत कहिए,सत्ता तो चाहती है कि छात्र राजनीति से दूर रहें

नव उदारवाद में शिक्षा का यही उद्देश्य है कि मार्केट को लेबर फोर्स चाहिए और नौजवानों को लेबर फोर्स में तब्दील होना है

माशा
नजरिया
Updated:
JNU को बुरा मत कहिए,सत्ता तो चाहती है कि छात्र राजनीति से दूर रहें
i
JNU को बुरा मत कहिए,सत्ता तो चाहती है कि छात्र राजनीति से दूर रहें
(फोटो: PTI)

advertisement

चाय की दुकान पर एक गंभीर चर्चा हो रही थी. विषय था- आज के नौजवान. पहला शख्स बोला- नौजवानों को देखकर बहुत चिंता होती है. दूसरे ने कहा- पता नहीं क्यों नेतागिरी में समय बर्बाद करते हैं? उनका काम पढ़ना-लिखना है, वो करें. टैक्सपेयर के पैसे पर पलते हैं, फिर यूनिवर्सिटी में जाकर नेतागिरी करते हैं? जब देखो, सड़क पर उतर आते हैं. तीसरे ने कहा- ऐसी यूनिवर्सिटी बंद हो जानी चाहिए जहां नेतागिरी को बढ़ावा दिया जाता है.

यहां हवाला जेएनयू या जादवपुर यूनिवर्सिटी, किसी का भी हो सकता है. सवाल जायज है- नौजवान नेतागिरी क्यों करते हैं? स्कूलों में उन्हें समाज का अनुशासित नागरिक बनाने की सीख दी जाती है. स्कूल जाकर सीधे-सीधे कायदे से पढ़ने की सलाह दी जाती है. उन्हें अपना करियर बनाना है. नव उदारवाद में शिक्षा का यही उद्देश्य है. मार्केट को लेबर फोर्स चाहिए- नौजवानों को लेबर फोर्स में तब्दील होना है. इसीलिए वही करियर चुने जाते हैं जिनमें अधिक से अधिक संभावनाएं हों. स्टूडेंट्स का लक्ष्य लेबर फोर्स बनना ही है. यह सब हासिल करने के लिए उनमें अनुशासन जरूरी है. नेतागिरी इसीलिए बुरी है क्योंकि इसमें करियर ऑप्शंस बहुत कम हैं. 

न यूनियनबाजी गलत, न नेतागिरी

स्टूडेंट्स का काम है पढ़ना. ये ठीक वैसे ही है जैसे मजदूर का काम है, मजदूरी करना. 1984 की फिल्म ‘अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है’ में नायक अल्बर्ट का मानना है कि यूनियनबाजी निठल्लों, गुंडों का काम है. उसके पिता मुंबई की कपड़ा मिल हड़ताल में शामिल हैं. पिता को जब मालिकान के गुंडे पीटते हैं तो अल्बर्ट को समझ आता है कि यूनियनबाजी हक की लड़ाई का हथियार है.

मजदूरों के लिए यूनियनबाजी या यूं कहें कि एकजुटता से ही अपनी मांगों को रखना संभव है. यूनियनबाजी करना, या नेतागिरी, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. दोनों अपनी-अपनी तरह से अपने अधिकारों के संघर्ष हैं. न मजदूरों का यूनियनबाजी करना गलत है और न ही नौजवानों का नेतागिरी करना.

शिक्षा का उद्देश्य

सवाल फिर वही है- शिक्षा का असली उद्देश्य क्या है? साठ के दशक में ब्राजील में एक मशहूर शिक्षाविद हुए थे पॉलो फ्रेयरे. उनकी मशहूर किताब ‘पेडेगॉगी ऑफ द ऑप्रेस्ड’ में शिक्षा के महत्व का खुलासा किया गया है.

फ्रेयरे का कहना था कि स्टूडेंट्स जो पढ़ते हैं, उसे पढ़कर समझना और उसकी व्याख्या करना ही असल शिक्षा है. यूं उन्हें निष्पक्ष विवरण देने का निर्देश दिया जाता है. जो लिखा है, वही समझो. उसकी व्याख्या को हमेशा हतोत्साहित किया जाता है. लेकिन फ्रेयरे का मानना था कि शिक्षा पद्धति कभी तटस्थ नहीं हो सकती. मतलब दुनिया कैसी है, शिक्षा सिर्फ इतनी नहीं. शिक्षा यह है कि दुनिया कैसी होनी चाहिए. स्टूडेंट्स जब विवरण से व्याख्या की तरफ बढ़ते हैं, राजनीति वहीं से शुरू होती है. तब वे किताबों को सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखते हैं और सवाल करने शुरू करते हैं. 

ये सवाल महंगी होती शिक्षा के हैं. रोटी-कपड़ा-मकान के हैं. बेरोजगारी के हैं. नव उदारवाद इन्हीं सवालों से बचना चाहता है. किसी भी राजनैतिक प्रणाली में सत्ताधारी कभी नही चाहते कि देश के नागरिक सोचने लगें. वह जानता है कि नागरिक सोचेंगे तो यथास्थिति कायम नहीं रहेगी.

ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

टोटल इंस्टीट्यूशन में तब्दील होते कॉलेज

इसी से सत्ताधारी यह नहीं चाहते कि स्टूडेंट्स राजनीति करें. उसके लिए उसने ‘टोटल इंस्टीट्यूशन’ की अवधारणा को अपनाया है. ‘टोटल इंस्टीट्यूशंस’ के बारे में कनाडा के प्रख्यात समाजशास्त्री इरविग गॉफमैन ने अपनी किताब ‘असायलम्स’ में लिखा था. गॉफमैन ने मेंटल हॉस्पिटल्स, कॉन्सन्ट्रेशन कैंप्स, आर्मी बैरक्स और बोर्डिंग स्कूलों को ‘टोटल इंस्टिट्यूशंस’ माना था और कहा था कि इन जगहों पर रहने वाले (इनमेट्स) एक खास लक्ष्य को पूरा करने के लिए काम करते रहते हैं. सबसे खास बात यह है कि यहां रहने वाले दुनिया से काट दिए जाते हैं.

गॉफमैन की यह परिभाषा बहुत हद तक सामान्य कॉलेजों और स्कूलों पर भी लागू होती है. जैसा कि मशहूर अमेरिकी समाजशास्त्री एच.एफ. गिबन ने कहा है, ‘टोटल इंस्टिट्यूशंस’ में जो तरीके प्रॉडक्ट्स और सर्विसेज को मार्केट करने के लिए अपनाए जाते हैं, वही तरीके अक्सर कॉलेजों में भी इस्तेमाल किए जाते हैं.

हम इन्हीं ‘टोटल इंस्टिट्यूशंस’ में अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए लाखों खर्च करने को तैयार हैं. बेशक, प्राइवेट कॉलेज वोकेशनल स्टडीज के साथ-साथ आपके अपने स्टेटस और इनकम ग्रुप के समानांतर माहौल देते हैं. लेकिन सबसे खास बात ये है कि वहां ‘नेतागिरी’ की कोई गुंजाइश नहीं है. कोई स्टूडेंट यूनियन नहीं, कोई पॉलिटिक्स नहीं. जो अपने बच्चों को इन महंगे कॉलेजों में नहीं भेज सकते, वे चाहते हैं कि अन्य कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में भी ऐसा ही माहौल बनाया जाए. वहां नौजवान नेतागिरी न करें- पॉलिटिक्स में न पड़ें. सिर्फ अपनी पढ़ाई पर ध्यान दें.

नेतागिरी के लिए क्या कोई क्वालिफिकेशन

पर सवाल है कि देश के नौजवान जब कॉलेज, यूनिवर्सिटी में भी अपने कान-आंख-मुंह बंद करके रहेंगे तो देश का भविष्य कैसे तय करेंगे? बिना समझे-बूझे और सोचे, अपने देश के प्रतिनिधियों का चुनाव कैसे करेंगे? और राजनीति में उतरने वाले नौजवानों की क्वॉलिफिकेशन क्या होगी? आखिर नेता बनाने के लिए अलग से कोई इंस्टिट्यूशन तो है नहीं.

सच है कि हमारे यहां नेतागिरी करने के लिए किसी क्वॉलिफिकेशन की जरूरत नहीं रखी गई है. पर इसी वजह से इनफॉर्मल ट्रेनिंग की जरूरत बढ़ जाती है. समाज को प्रबुद्ध युवा चाहिए. देश के कॉलेज और यूनिवर्सिटी ही उन्हें प्रबुद्ध बनने का मौका देते हैं. उन्हें सोचने-समझने और अपनी राय कायम करने का माहौल देते हैं. अपनी बात कहने और दूसरे की बात सुनने का मंच देते हैं. अगर कहने-सुनने में, समाज में चल रही बहस को आगे बढ़ाने में अपना योगदान देना नेतागिरी है तो युवाओं को नेतागिरी करने दीजिए. नेतागिरी करना कोई बुरी बात नहीं है.

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

अनलॉक करने के लिए मेंबर बनें
  • साइट पर सभी पेड कंटेंट का एक्सेस
  • क्विंट पर बिना ऐड के सबकुछ पढ़ें
  • स्पेशल प्रोजेक्ट का सबसे पहला प्रीव्यू
आगे बढ़ें

Published: 18 Nov 2019,09:44 PM IST

ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT