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राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) के अध्यक्ष के तौर पर जस्टिस अरुण मिश्रा की नियुक्ति पर आम राय यह है कि सरकार ने एक ऐसे जज पर ‘नजरे इनायत’ की है, जोकि लगातार उसके मन माफिक फैसले देता रहा है. चाहे वह ‘वर्सेटाइल जीनियस’ जैसी टिप्पणी हो या फिर कई अलग-अलग तरह के मामलों में सरकार के हिसाब से फैसले देने का उतावलापन, इस दावे को पुख्ता करने के लिए सबूत ढूंढना जरा भी मुश्किल नहीं है.
वैसे इस सरकार के लिए ऐसा कदम उठाना कोई अनोखी बात नहीं, न ही पिछले केंद्र सरकारों के लिए. राज्य सरकारें भी ऐसा करती रही हैं.
हालांकि इस कदम की आलोचना यहीं खत्म नहीं हो जानी चाहिए. जस्टिस अरुण मिश्रा की नियुक्ति का सबसे खराब पहलू यह है कि जैसे अपने रिकॉर्ड के चलते ही उन्हें ‘इनाम’ दिया गया है. मेरे ख्याल से उनका रिकॉर्ड न्याय प्रणाली की क्रूरता की सबसे बड़ी मिसाल है. तीन मामले बताएंगे कि मैं क्या कहने की कोशिश कर रहा हूं.
फरवरी 2019 में वन संरक्षण पर पीआईएल की सुनवाई के दौरान जस्टिस मिश्रा ने राज्यों को निर्देश दिया था कि वन क्षेत्रों से सभी आदिवासियों और वनवासियों को तुरंत बेदखल किया जाए, अगर वे यह ‘साबित’ नहीं कर पाते कि वे जिस जंगल में रहते हैं, उस पर उनका हक है. इससे देश के लाखों आदिवासी और वनवासी प्रभावित हुए थे. राज्य सरकारों ने उन्हें परेशान करना शुरू कर दिया था. उनके लिए जंगल की जमीन पर अपना दावा साबित करना मुश्किल था क्योंकि इसके लिए अलग-अलग तरह के सबूत मांगे जा रहे थे. तिस पर सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकारों को छह महीने के भीतर बेदखली करने का निर्देश दिया था.
आदिवासियों ने देश भर में इसके खिलाफ प्रदर्शन किए. विरोध इतना गहरा था कि केंद्र सरकार को, जिसने इस मामले में आदिवासी अधिकारों का बचाव करने से इनकार कर दिया था, अदालत में जाकर कहना पड़ा कि इस आदेश पर स्टे दिया जाए.
आंध्र और तेलंगाना सरकार की एक योजना थी. इस योजना के तहत आदिवासी क्षेत्रों के स्कूलों में सिर्फ आदिवासी टीचरों की ही नियुक्ति की जाती थी. इस नीति का मकसद यह सुनिश्चित करना था कि आदिवासी बच्चों को उनके सांस्कृतिक संदर्भ में, और उसी भाषा में शिक्षा मिले जो उनके लिए सुविधाजनक है. इस नीति को आंध्र प्रदेश हाई कोर्ट (जैसा कि वह तब थी) ने भी कई बार, इन्हीं शर्तों पर बहाल रखा था.
लेकिन जस्टिस मिश्रा को यह नागवार गुजरा और उन्होंने यह कहकर इसे रद्द कर दिया कि यह आदिवासियों के पक्ष में ‘100 प्रतिशत आरक्षण’ है.
सुप्रीम कोर्ट के इंद्र साहनी फैसले (जोकि सिर्फ ओबीसी से संबंधित था) के आधार पर जस्टिस मिश्रा ने कहा कि यह ‘100 प्रतिशत आरक्षण’ एकदम अमान्य है और इसे 50 प्रतिशत कर दिया. हां, सौभाग्य से उन लोगों को परेशान नहीं किया जिन्हें इस आरक्षण से फायदा मिल चुका था. फैसले में इस बात कोई चर्चा नहीं की गई कि यह नीति क्यों बनाई गई थी. हां, उसमें आदिवासियों की वही स्टीरियोटिपिकल व्याख्या थी और कहा गया था कि किस तरह वे लोग एक ‘आदिम संस्कृति’ का हिस्सा हैं.
तेलंगाना और आंध्र प्रदेश की सरकारों ने इस फैसले के खिलाफ पुनर्विचार याचिका (रिव्यू पेटीशन) दायर की है.
2013 के भूमि अधिग्रहण कानून की एक सुव्यवस्थित व्याख्या को जस्टिस मिश्रा ने खारिज कर दिया था. यह व्याख्या तीन जजों की एक बेंच ने की थी. यह कानून उन लोगों को वरीयता देता है जिनकी जमीन अधिग्रहण प्रक्रिया के रुके होने की स्थिति में अधर में लटकी है. जस्टिस मिश्रा ने अकेले ही पिछले फैसले को खारिज कर दिया था. हालांकि जिस बेंच में वह थे, वह दो सदस्यीय थी. कायदे से इस बेंच को पुराने फैसले को मंजूर करना था, लेकिन जस्टिस मिश्रा ने इससे इनकार कर दिया और कानून की उस व्याख्या को गलत बताया (जिसका कोई कारण नहीं था, सिर्फ वह इससे असहमत थे). इसके बाद वह कई दूसरी बड़ी बेंच में भी रहे, और लगातार कानून को पलटते रहे.
जस्टिस मिश्रा की नई व्याख्या सरकार और भूमि अधिग्रहण करने वालों के पक्ष में थी. इसमें सरकार को इस बात की छूट मिल रही थी कि वह जब चाहे, जमीन गंवाने वालों को मुआवजा दे, और जमीन को कानूनी तौर से ‘हथियाने’ के बाद जब चाहे, उसे अपने कब्जे में ले.
इस कानून में यह सुनिश्चित किया गया है कि जमीन गंवाने वालों को अनिश्चित समय तक परेशानी न झेलनी पड़े. यह इसका सबसे अच्छा और फायदेमंद पहलू है. लेकिन इस व्याख्या को सिर्फ बदल दिया गया ताकि सरकार को हर कीमत पर फायदा पहुंचाया जा सके- चाहे उसकी कीमत आम लोगों की तकलीफ ही क्यों न हो.
इन तीन मामलों में एक बात समान है. जस्टिस मिश्रा के फैसलों में सामूहिक रूप से प्रभावित होने वाले लोगों के लिए कोई सहानुभूति नजर नहीं आती. उनके हाथों में कानून एक धारदार हथियार है और वह हथियार सरकार और विशेषाधिकार प्राप्त लोगों की रक्षा करता है. आदिवासियों, दलितों, बहुजन, छोटे किसानों जैसे आम लोगों को आसानी से अनदेखा किया जा सकता है, और कानून तर्क के ढोंग से ताकतवर लोगों पर कृपा बरसाई जा सकती है. आम लोगों पर उनकी न्यायिक व्याख्या का क्या असर होगा, जस्टिस मिश्रा को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. चूंकि उनके फैसलों में आम लोगों के लिए कोई जगह नहीं है.
इतने बुरे रिकॉर्ड वाले शख्स को एनएचआरसी का अध्यक्ष बनाना, एक तरह की ब्लैक कॉमेडी ही है. एक ऐसी संस्था जिसकी विश्वसनीयता हमेशा से जांच का विषय रही है (उसकी संरचना की वजह से, और निष्क्रियता की वजह से भी), उसकी कमान एक ऐसे व्यक्ति को सौंपी गई है (भले ही तीन साल के लिए हो) जिसका रिकॉर्ड न्यायिक क्रूरता से भरा पड़ा है. इस तरह आयोग पर जो बचा-खुचा भरोसा था, उसे भी करारा झटका लगा है.
हम यही उम्मीद कर सकते हैं कि जस्टिस मिश्रा एनएचआरसी में अपने पिछले इतिहास को न दोहराएं.
(आलोक प्रसन्ना कुमार बेंगलुरु स्थित विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी में सीनियर रेज़िडेंट फेलो हैं. वह कैंपेन फॉर ज्यूडिशियल एकाउंटेबिलिटी एंड रिफॉर्म्स की एग्जीक्यूटिव कमिटी के सदस्य भी हैं. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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Published: 04 Jun 2021,12:02 PM IST