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ब्राह्मण कम हैं,फिर उनको क्यों लुभाना चाहते हैं राहुल गांधी? 

इतनी कम संख्या होते हुए ब्राह्मण राजनीति में इतना महत्वपूर्ण क्यों हैं?

दिलीप सी मंडल
नजरिया
Updated:
बड़ा सवाल ये है कि ब्राह्मण इतने कम होकर भी राजनीति में बेहद अहम क्यों बने हुए हैं? 
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बड़ा सवाल ये है कि ब्राह्मण इतने कम होकर भी राजनीति में बेहद अहम क्यों बने हुए हैं? 
(फोटो: पीटीआई)

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ब्राह्मण बहुत बड़ा वोट बैंक नहीं है. 1931 की जनगणना के अनुसार भारत में ब्राह्मणों की संख्या 5.52 परसेंट थी. इसमें वे तमाम जातियां भी थीं, जिन्हें ब्राह्मण अपनी बिरादरी का नहीं मानते लेकिन जो खुद को ब्राह्मण मानती हैं. तब जिन जातियों ने खुद को ब्राहमण लिखवाया था, उनमें से कई जैसे जांगिड़ और गोस्वामी अब ओबीसी में हैं. त्यागी और भूमिहार अलग जाति की तरह व्यवहार करते हैं और ब्राह्मणों के साथ उनका विवाह संबंध नहीं चलता. जनगणना के नियमों के मुताबिक, जिन्होंने भी खुद को ब्राह्मण बताया, वे सभी इस 5.52 परसेंट के आंकड़े में शामिल है.

आज देश में ब्राह्मणों की कितनी संख्या है, इसका सिर्फ अनुमान लगाया जा सकता है. 1931 के बाद जाति जनगणना के आंकड़े नहीं आए हैं. ये मानकर चल सकते हैं कि ब्राह्मणों का शहरीकरण ज्यादा हुआ तो उनमें शिशु जन्म दर कम होगी और उनकी संख्या का अनुपात पहले से ज्यादा तो नहीं ही हुआ होगा. हालांकि ये भी एक अनुमान ही है. ब्राह्मणों में विदेश जाकर बस जाने वालों की संख्या भी अच्छी-खासी है.

राजस्थान में पूजा करते राहुल गांधी(फोटो: पीटीआई)
एक अंदाजा ये भी लगाया जा सकता है कि चूंकि भारत में पढ़े-लिखे लोग वोट कम डालते हैं, इसलिए ब्राह्मणों में वास्तविक मतदाताओं की संख्या भी अपेक्षाकृत कम होगी.

तो इतने से वोट के लिए राहुल गांधी बनियान उतारकर और जनेऊ दिखाकर क्यों घूम रहे हैं?

राहुल गांधी जब खुद को ब्राह्मण दिखाने की कोशिश कर रहे हैं तो उनके सामने ब्राह्मण वोटों का आंकड़ा नहीं है. सिर्फ संख्या की बात है तो 52 फीसदी से ज्यादा ओबीसी, 16.6 फीसदी दलित, 14.2 फीसदी मुसलमानों या 8.6 फीसदी आदिवासियों के मुकाबले ब्राह्मण काफी कम हैं.

मराठा, जाट, पटेल, यादव, कम्मा, रेड्डी, नायर, नाडार, वन्नियार, कुर्मी, मल्लाह जैसी कई जातियां खास इलाकों में ज्यादा बड़ी संख्या में हैं और मतदान के नतीजों को प्रभावित करने की बेहतर स्थिति में हैं. इसके बावजूद, राहुल गांधी ने अपनी ब्राह्मण पहचान को साबित करने के लिए जान लड़ी दी है.

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ब्राह्मणों को लुभाने की कोशिश सिर्फ कांग्रेस नहीं कर रही है. बीजेपी जब केंद्र में अपनी सरकार बनाती है तो कैबिनेट में ठीक एक तिहाई मंत्री सिर्फ ब्राह्मण बनाती है. वित्त, विदेश, रक्षा, मानव संसाधान, स्वास्थ्य, सड़क और जल परिवहन जैसे महत्वपूर्ण विभाग ब्राह्मण मंत्रियों को दिए जाते हैं. बीजेपी पार्टी को चला रहा आरएसएस, एक अपवाद (राजेंद्र सिंह) को छोड़कर हमेशा अपना मुखिया किसी न किसी ब्राह्मण को ही बनाता है. बीजेपी ने केंद्रीय ब्यूरोक्रेसी में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार से लेकर कैबिनेट सेक्रेटरी और प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव सभी एक ही जाति के बनाए हैं.

सवाल उठता है कि कि इतनी कम संख्या होते हुए भी ब्राह्मण राजनीति में इतना महत्वपूर्ण क्यों हैं?

(फोटो: ट्विटर)

मीडिया की टु स्टेप थ्योरी और ओपिनियन लीडर्स जैसे कम्युनिकेशन के एक लोकप्रिय सिद्धांत के जरिए आसानी से समझा जा सकता है कि कम संख्या के बावजूद ब्राह्मण राजनीति में इतने महत्वपूर्ण क्यों हैं. इस सिद्धांत का नाम टु स्टेप या मल्टी स्टेप थ्योरी है. इस थ्योरी के मुताबिक कोई भी संदेश या संवाद स्रोत जैसे टीवी, रेडियो या अखबार से सीधे सुनने वाले तक असरदार तरीके से नहीं पहुंचता.

इस संदेश को पहले समाज के प्रभावशाली लोग, जिन्हें ओपिनियन लीडर्स कहा जाता है, वे पकड़ते हैं, उस पर अपनी राय बनाते हैं, उसमें अपने विचार जोड़ते-घटाते हैं और वे जब इसे नीचे तक ले जाते हैं, तब जाकर वह संवाद असर पैदा करता है.जिन लोगों का समाज में आदर और असर होता है, उनकी बात सुन कर बाकी लोग अपनी राय बनाते हैं.

इस थ्योरी को सबसे पहले 1944 में प्रकाशित किया गया था. अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के दौरान ये पाया गया कि आम जनता सीधे रेडियो या समाचार पत्र से सूचनाएं लेकर अपनी राय कम बनाती है. उनकी राय बनाने में उन लोगों यानी ओपिनियन लीडर्स का ज्यादा योगदान होता है, जो रेडियो या अखबारों की सूचनाओं को अपने ढंग से समझते हैं और उसमें अपनी राय जोड़कर बाकी लोगों तक पहुंचाते हैं.

जर्मन दार्शनिक जरगन हैबरमास अपनी पब्लिक स्फियर की थ्योरी में विमर्श की उन जगहों को लोकतंत्र में जरूरी मानते हैं, जहां लोग आपस में चर्चा करके सार्वजनिक मुद्दों पर राय बनाते हैं और किसी निष्कर्ष पर पहुंचते है. पब्लिक स्फियर में ओपिनियन लीडर्स मत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं.

ब्राह्मण हैं भारत के ओपिनियन लीडर्स

शिक्षा तक सबसे पहले पहुंच होने की वजह से ब्राह्मणों की लोक संवाद के क्षेत्र में अच्छी दखल है. कई पीढ़ियों से पढ़ने-लिखने के कारण उनका एक खास तरह का सामाजिक स्तर बन गया है, जिसकी वजह से आदर के पात्र हैं और उनका असर समाज पर है. वे महत्वपूर्ण पदों पर भी हैं. खासकर शिक्षक बनने के क्षेत्र में उनका पारंपरिक दखल रहा है, क्योंकि परंपरागत रूप से पढ़ाने का पेशा ब्राहमणों के पास रहा है.

गांव-कस्बों में शिक्षक की काफी इज्जत होती है और उनकी बात सुनी जाती है. देश दुनिया में क्या चल रहा है, इसे डिकोड करके अक्सर शिक्षक ही आम लोगों तक पहुंचाता है. इसके अलावा भारतीय खासकर हिंदू समाज व्यवस्था में ब्राह्मण शिखर पर हैं औऱ इस वजह से आदर के पात्र हैं. यहीं नहीं, ब्राह्मण एक आम हिंदू और भगवान के बीच मध्यस्थ भी होता है. इस वजह से भी उसकी बात महत्वपूर्ण होती है.

(फोटो: prokerala.com)  

लोक विमर्श में और जनता की राय बनाने में ब्राह्मण इसलिए महत्वपूर्ण नहीं है कि उसकी बहुत ज्यादा संख्या है. उसकी ताकत ये है कि वह समाज का ओपिनियन लीडर है. लोग उनकी बातों को गौर से सुनते हैं. वह समाज में आदर का पात्र है. चूंकि बच्चों का नाम रखने से लेकर, शादी करने, और बच्चा पैदा होने से लेकर आदमी के मरने तक में वह मार्गदर्शक है, तो स्वभाव वश लोग राजनीतिक-सामाजिक मामलों में भी उनकी राय मान लेते हैं.

इसके अलावा मीडिया और जनसंचार के साधनों पर भी ब्राह्मणों की अच्छी खासी संख्या है. योगेंद्र यादव, अनिल चमड़िया और जितेंद्र यादव ने 2006 में दिल्ली मे मीडिया संस्थानों के फैसला लेने वाले पदों का सर्वे करके बताया था कि इन पदों पर ब्राह्मणों की संख्या 49% है.

लोकतंत्र में लोगों की राय बनाने में मीडिया की भूमिका से कोई इनकार नहीं कर सकता. एजेंडा सेट करने में मीडिया की भूमिका पर दुनिया भर में कई रिसर्च हो चुके हैं. भारतीय मीडिया में मौजूद ब्राह्मण जिस राजनीतिक दल या नेता के पक्ष में खड़े हो जाएं (हालांकि यह पूरी तरह कभी नहीं होता), उस दल या नेता के पक्ष में जनमत के झुकने की संभावना ज्यादा होती है.

तो राहुल गांधी जब खुद को ब्राह्मण बता रहे हैं, तो उनकी नजर ब्राह्मण वोट से ज्यादा इन ओपिनियन लीडर्स पर है.

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Published: 30 Nov 2018,08:42 AM IST

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