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कश्मीर में हर पार्टी की स्थिति यही है कि वह मोल-भाव के दलदल में फंसी हुई है. या तो वह निर्दलियों को पटाने में जुटी हुई है या फिर दूसरी पार्टियों के निर्वाचित सदस्यों को. या फिर, अपने ही वफादारों को अपने साथ बनाए रखने में लगी है, जिन्हें खुद उसी पार्टी ने जिताया है.
इतना ही नहीं कुछ पार्टियों के भीतर भी अलग-अलग गुटों ने ऐसी कोशिशें की हैं, जिससे पता चलता है कि घरेलू मोर्चों पर भी वे क्या सोचते हैं.
पूर्व मंत्री और कारोबारी अल्ताफ बुखारी के नेतृत्व वाली अपनी पार्टी पहली ऐसी पार्टी रही, जिसने नये सदस्यों को अपने साथ जोड़ा या फिर कम से कम चेयरपर्सन के चुनाव में साथ मतदान के लिए तैयार किया. इसे कुछ सफलताएं भी मिलीं और संभवत: घाटी के 10 में से तीन या चार जिलों में अपने पसंदीदा लोगों को खड़े करने में सफलता हासिल की.
बहरहाल, नेशनल कान्फ्रेन्स के नेता समेत कई पर्यवेक्षकों का मानना है कि राज्य सरकार की मशीनरी अपनी पार्टी की ‘मदद’ कर रही है. हो सकता है कि यह व्यक्तिगत वफादारी, दौलत की ताकत या निकट भविष्य में करवट लेने वाली सत्ता को लेकर चंद अधिकारियों के आंकलन का नतीजा हो.
मुख्य तौर से एनसी और पीडीपी जैसी पुरानी पार्टियां भी अपने सदस्यों को वफादर बनाए ऱखने के लिए और दूसरे पाले से लोगों को खुद से जोड़ने के ले वो सबकुछ कर रही हैं, जो वे कर सकती हैं. एक नेता ने तो खुले तौर पर धन खर्च करने का जिक्र तक कर डाला.
कुछ नवनिर्वाचित सदस्यों तक पुलिस और सेना के अधिकारी भी पहुंचे हैं. सेना के एक अफसर के मुताबिक वे महज चुने गये लोगों को बधाई देने और उनसे दोस्ती का हाथ बढ़ाने गये. लेकिन, माना जाता है कि कुछ पुलिस अधिकारियों ने कई नवनिर्वाचित सदस्यों को सलाह दी है कि उन्हें किनके साथ रहना चाहिए.
घर में सुरक्षित नहीं रहने का तर्क देते हुए कुछ सदस्यों को इस बात के लिए राजी किया गया है कि वे पुलवामा और शोपियां जिले के सुरक्षित जगहों पर जाने को तैयार हों.
श्रीनगर जिले में भी समान रूप से कोशिशें हुईं, जहां मुश्किल परिस्थिति में संघर्ष की स्थिति विकसित हुई है. नेशनल कान्फ्रेंस के अध्यक्ष फारूक अब्दुल्ला ने अपने कुछ लोगों को लुभाकर वापस बुलाया. उसके बाद अपनी पार्टी ने उनमें से कुछ को दोबारा अपने पास बुला लिया. वह खेल अब भी जारी है.
चूकि नेशनल कान्फ्रेंस पीपुल्स एलायंस फॉर गुपकार डिक्लेरेशन (पीएजीडी) का हिस्सा है, इसके कई सदस्यों ने उन निर्वाचन क्षेत्रों में निर्दलीय के तौर पर चुनाव लड़ा जहां गठबंधन में अन्य छह पार्टियों को सीटें दे दी गयीं. चूकि घाटी में नेशनल कान्फ्रेंस स्पष्ट रूप से सबसे लोकप्रिय पार्टी है इसलिए इससे जुड़े कई लोग निर्दलीय के तौर पर भी चुनाव जीत गये.
ऐसे ही सदस्य और अन्य निर्दलियों मनाने की कोशिशें मुख्य तौर पर दिख रही है. निर्दलीय के तौर पर वे आसानी से किसी भी पार्टी में जुड़ सकते हैं.
चूकि चेयरपर्सन गुप्त मदान से चुने जाने हैं इसलिए पार्टी टिकट पर जीते गये लोगो को भी क्रॉस वोटिंग के लिए लुभाया जा रहा है. और, कुछ लोगों को तो पूरी तरह से पाला बदलने के लिए भी तैयार किया जा रहा है. बताया जाता है कि नेशनल कान्फ्रेंस के एक विजेता ने इस भरोसे पर पाला बदला है कि उसके बहनोई को हिरासत से छोड़ दिया जाएगा.
जबकि निर्वाचित सदस्यों को व्यक्तिगत रूप से पार्टी छोड़ने के लिए निशाना बनाया जा रहा है, पीएजीडी के घटक दल इसके विरोध में खड़े हैं ताकि वे अपने सदस्यों का शिकार करने की जोरदार कोशिशों को रोक सकें.
गठबंधन में होने के कारण पीडीपी को हर हाल में फायदा हुआ है. द ग्रेपवाइन के अनुसार सज्जाद लोन भी अपनी पीपुल्स कॉन्फ्रेन्स (पीसी) को गठबंधन के साथ वफादार बनाए रखना चाहते हैं. हालांकि पार्टी का एक मजबूत धड़ा ऐसा नहीं चाहता.
सीपीआईए भी गठबंधन के साथ वफादार बनी रहेगी, लेकिन उसकी उम्मीद है कि कुलगाम जिले से चुने गये उसके पांच सदस्यों में किसी एक को चेयरपर्सन चुना जाए. सीपीआई(एम) की टिकट पर चुनी गयी वह जिले की इकलौती महिला है.
जो हालात हैं पीएजीडी को कुलगाम और अनंतनाग जिलों में हावी रहना चाहिए, जबकि दक्षिण कश्मीर के अन्य दो जिलों पुलवामा और शोपियां में अपनी पार्टी के प्रयासों को सफलता मिल सकती है. कभी प्रदेश की सांस्कृतिक दुनिया की रोशनी रहे व्यक्ति शोपियां में इसके सूत्रधार हैं.
पीएजीडी को पीसी के प्रभाव वाले बोरो, कुपवाड़ा (13 में से 5 पीसी और 4 एनसी के सदस्य हैं) और गांदरबल (14 में से 6 एनसी और 4 पीडीपी के सदस्य हैं) में सफल होना चाहिए लेकिन बारामुला, बांदीपोरा, बडगाम और श्रीनगर में पर्दे के पीछे जबरदस्त रस्साकशी जारी है.
जिला स्तरीय चुनावों की मैं पुरजोर वकालत करता रहा हूं. इससे विकास को ऊर्जा मिल सकती है और जमीनी स्तर पर एक जुड़ाव बनता है जहां से आम लोगों तक आसानी से पहुंच बनती है. और, अब भी इसका दायरा इतना बड़ा है कि यहां विशाल और अत्यंत ताकतवर नौकरशाही अपनी पैठ बना सकती है.
इस पर अच्छे तरीके से काम करने के लिए लोगों में न सिर्फ चुनावी प्रक्रिया पर यकीन होना चाहिए बल्कि चेयरपर्सन के चुनाव में खुलेपन, हरेक परिषद के स्वतंत्र कामकाज और इलाके की जरूरत के मुताबिक इसके जवाबदेह रहने को लेकर भी विश्वास होना जरूरी है.
इसके बजाए कश्मीर में बड़े पैमाने पर लोगों में बदलाव और जोर-जबरदस्ती की बात हो रही है. जोर-जबरदस्ती से खास तौर पर बुरा असर होता है. राजनीतिक फायदे के लिए गिरफ्तारी, हिरासत और मोलभाव के बाद नागरिकों की रिहाई अत्यंत घिनौना है. इससे लोकतंत्र, कानून का शासन और आतंकवाद के खिलाफ संघर्ष की तौहीन होती है.
वास्तव में राजनीतिक प्रक्रिया में सुरक्षा बलों की किसी भी किस्म की भागीदारी परेशान करने वाली बात है. यह बात ध्यान देने की है कि सीमा पर यही काम नियमित रूप से होता रहता है.
स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों के जरिए जो सकारात्मक असर पैदा हो सकता है उस पर ऐसी गतिविधियों से पानी फिर सकता है.
कश्मीर जैसी जगह पर चुनावों को प्रभावित करने के लिए लोभ-लालच दिए गये हो सकते हैं. मगर, सत्ता प्रतिष्ठान को स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के बेहद सकारात्मक अमूर्त प्रभावों को खोने नहीं देना चाहिए.
जब 2002 में विधानसभा चुनाव हुए थे तब प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने सख्त आदेश दिया था कि मतदान केंद्र के एक किलोमीटर के दायरे में किसी भी जवान को तैनात नहीं रहना है.
जब जेएम लिंग्दोह के नेतृत्व में चुनाव आयोग की ओर से बेहद स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव हुए थे और यूपी एवं बिहार के ऊर्दू शिक्षकों को मतदान अधिकारी बनाए गये थे तब इन निर्देशों का सख्ती से पालन किया गया था.
जैसा कि मैंने अपनी किताब ‘द जेनरेशन ऑफ रेज इन कश्मीर’ में विस्तार से बताया है कि 2005-06 आते-आते अपने-अपने घरों के भीतर भी कई किशोर पाकिस्तान के खिलाफ भारतीय क्रिकेट टीम के साथ खुद को जोड़ते दिखे.
उस प्रक्रिया ने यह बात साफ कर दी कि राजनीतिक और सामाजिक तरीकों से मन और दिल को जीतना सबसे बेहतर है.
लेखक ने ‘The Story of Kashmir’ और ‘The Generation of Rage in Kashmir’ पुस्तकें लिखी हैं. उनसे ट्विटर पर @david_devadas पर संपर्क किया जा सकता है. आलेख में दिए गए विचार उनके निजी विचार हैं और क्विंट का उससे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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