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चुनावी राजनीति में क्रिमिनल बैकग्राउंड वाले नेताओं को रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट के नए निर्देश आए हैं. पार्टियों को अब अपने कैंडिडेट्स के क्रिमिनल बैकग्राउंड के बारे में अपनी वेबसाइट, अखबारों, फेसबुक और ट्विटर जैसे सोशल मीडिया पर बताना होगा. उन्हें ये भी बताना होगा कि ऐसे दागी उम्मीदवारों को क्यों टिकट दिया गया. साथ ही यह भी कि सीट में मौजूद साफ-सुथरी छवि के लोगों को टिकट क्यों नहीं दिया गया. आपराधिक छवि के कैंडिडेट चुनने के 72 घंटों के भीतर उन्हें चुनाव आयोग को ये जानकारी देनी होगी.
2018 में भी सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे ही निर्देश जारी किए थे. अगर फिल्मों की भाषा में बात करें तो इसे 2018 के निर्देशों का रीमेक कहा जा सकता है. तो क्या यह उम्मीद लगाई जानी चाहिए कि इस बार फिल्म हिट हो जाएगी. सुप्रीम कोर्ट के इस निर्देश के बाद चुनाव में क्रिमिनल बैकग्राउंड वाले कैंडिडेट्स का उतरना बंद हो जाएगा और भारत में राजनीति का शुद्धिकरण हो जाएगा. अगर कोई ऐसा सोचता है तो यह बड़ी भोली उम्मीद होगी.
देश की राजनीति में अपराधीकरण कोई नई बीमारी नहीं है. देश में जितना पुराना इलेक्शन का इतिहास है उतना ही पुराना बैकग्राउंड इस मर्ज का भी है.
लोकसभा हो या विधानसभा चुनाव, पर्चा दाखिल करते समय कैंडिडेट के हलफनामे में अपने खिलाफ पेंडिंग आपराधिक मामलों का जिक्र करना होता है. मीडिया में इन मामलों का जिक्र होता है और सिविल सोसाइटी से जुड़े संगठन के जरिये ये मामले लोगों के सामने आ जाते हैं. चुनाव अभियान के दौरान ऐसे मामले छाए रहते हैं. कुछ हद तक ये मामले पार्टियों और कैंडिडेट्स को शर्मसार करते होंगे लेकिन शायद ही इसकी वजह से कोई कैंडिडेट हारा होगा. इसलिए कैंडिडेट के आपराधिक मामलों को वेबसाइट, अखबारों या सोशल मीडिया पर डालने से पार्टी या कैंडिडेट पर कोई फर्क पड़ेगा, इसमें शक है.
दिल्ली में आम आदमी पार्टी का मामला इसका सबूत है. एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक आम आदमी पार्टी के 70 कैंडिडेट्स में से 42 के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं.
इस बारे में साफ कानून है कि क्रिमिनल केस में दोषी साबित होने वाले सांसद या विधायक नहीं रहेंगे और चुनाव भी नहीं लड़ पाएंगे. लेकिन चुनाव लड़ने वालों के खिलाफ मामला दर्ज करने के लिए आरोपों की गंभीरता का पैमाना क्या होगा. इसके अभाव में प्रतिद्वंद्वी दल एक दूसरे दलों के कैंडिडेट पर आसानी से केस कर सकते हैं. इसका इस्तेमाल सत्ता में बैठी पार्टी के नेता प्रतिद्वंद्वियों को दबाने में कर सकते हैं. इसलिए जब तक केस दर्ज कराने के लिए आरोपों की गंभीरता का पैमाना तय नहीं होगा तब तक आपराधिक बैकग्राउंड वाले नेताओं को रोकना मुश्किल होगा.
जब आपराधिक छवि वाले कैंडिडेट्स पर सवाल उठाए जाएंगे तो पार्टियों का रटा-रटाया जवाब होगा. मामला अदालत में है. कानून अपना काम करेगा. लेकिन इसकी क्या गारंटी है कि कानून अपना काम करेगा और तय वक्त में आपराधिक छवि वाले नेताओं के खिलाफ कार्रवाई होगी ही . आखिर में राजनीतिक दल यह दलील देंगे कि डेमोक्रेसी में वोटर ही सबसे बड़ा जज है. कई सर्वे साबित कर चुके हैं कि लोग ऐसे कैंडिडेट को चुनते हैं जो उनका काम करा सकें, चाहे वे आपराधिक बैकग्राउंड के नेता क्यों न हों. लोग वैसे साफ-सुथरी छवि वाले कैंडिडेंट को नहीं चुनते हैं जो उनका काम नहीं करा पाते हैं.
आखिर कोर्ट कब तक कार्यपालिका या राजनीतिक दलों को यह निर्देश देता रहेगा कि राजनीति में अपराधीकरण को रोकने के लिए क्या करना चाहिए. दल बदल कानून बना, कोर्ट की सख्ती भी हुई लेकिन क्या कर्नाटक और गोवा में नेताओं को पाला बदलने से रोका जा सका. तो बेहतर ये है कि कार्यपालिका ही राजनीति के अपराधिकरण को रोकने का उपाय निकाले, लेकिन जाहिर है इसके लिए इच्छाशक्ति और ईमानदारी चाहिए.
क्रिमिनल बैकग्राउंड वाले नेताओं को लेकर सुप्रीम कोर्ट के नए निर्देश में काफी दारोमदार चुनाव आयोग पर डाला गया है. क्या चुनाव आयोग अपनी जिम्मेदारी मुस्तैदी से निभाएगा?
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Published: 15 Feb 2020,02:48 PM IST