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रेप और ऐसी बर्बरता पर क्‍या कह गए गुलजार, अमृता प्रीतम और मंटो...

बंटवारे के वक्त महिलाओं के खिलाफ हिंसा पर साहित्य क्या कहता है?

रक्षंदा जलील
नजरिया
Updated:
कठुआ मामले के बाद महिलाओं के खिलाफ हिंसा को सांप्रदायिक संदर्भ में समझने की जरूरत है
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कठुआ मामले के बाद महिलाओं के खिलाफ हिंसा को सांप्रदायिक संदर्भ में समझने की जरूरत है
(फोटो: द क्‍विंट) 

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कठुआ में 8 साल की बच्ची के साथ जो बर्बरता हुई, वह सांप्रदायिकता और महिलाओं के खिलाफ हिंसा से जुड़ी त्रासदी की इंतेहा है. जब भी सांप्रदायिक हिंसा होती है, तब पुरुषों के मुकाबले महिलाओं के उसका शिकार होने की आशंका ज्यादा रहती है. ऐसे समय में महिलाओं के खिलाफ हिंसा ‘शैतानी शक्ल’ अख्तियार कर लेती है. ऐसा क्यों होता है? ऐसा पहली बार नहीं हुआ है और साहित्यकार लैंगिक और धार्मिक हिंसा के इस पहलू को सामने लाते रहे हैं.

कठुआ मामले के बाद महिलाओं के खिलाफ हिंसा को सांप्रदायिक संदर्भ में समझने की जरूरत है. हम साहित्य के माध्यम से इसे समझने की कोशिश करते हैं क्योंकि साहित्य समाज का आईना होता है. मैं उर्दू, हिंदी और अंग्रेजी साहित्य में दर्ज ऐसे किस्से-कहानियों और घटनाओं का जिक्र करना चाहूंगी, जिनसे मैं अच्छी तरह वाकिफ हूं.

इतिहास खुद को दोहरा रहा है

इस तरह के लेखन के बारे में सोचने पर सादत हसन मंटो, कृशन चंदर और राजिंदर सिंह बेदी का नाम तुरंत जेहन में आता है. मंटो की ‘खोल दो’, बेदी की ‘लाजवंती’ और कृशन चंदर का उपन्यास ‘गद्दार’ और संकलन ‘हम वहशी हैं’ में इस मुद्दे को छुआ गया है.

मंटो की ‘शरीफां’ को शायद गहराई से समझने की जरूरत है. इसमें दिखाया गया है कि सांप्रदायिकता की आग तेज होने पर अच्छा इंसान भी किस तरह से बर्बर बन जाता है. साथ ही, इसकी लीड कैरेक्टर की उम्र कठुआ मामले की पीड़ित से कुछ ही साल ज्यादा है. यह कहानी 70 साल पहले लिखी गई थी. इसका आज के हिंदुस्तान के लिए मौजूं होना हैरान तो करता ही है, लेकिन यह अफसोसनाक भी है.
मंटो की ‘शरीफां’ को शायद गहराई से समझने की जरूरत हैफोटो:iStock 

मंटो की इस कहानी में दिखाया गया है कि बदले और राजनीति के लिए बलात्कार जैसे अपराध को अंजाम दिया जाता है. मंटो और उस वक्त के दूसरे साहित्यकारों ने इसके लिए हालात को जिम्मेदार ठहराया है, लेकिन कठुआ मामले में हम हालात के पीछे नहीं छिप सकते.

बेदी की ‘लाजवंती’ और अमृता प्रीतम की ‘पिंजर’ में अपहरण का मुद्दा उठाया गया है. एक अनुमान के मुताबिक, 1947 में देश के बंटवारे के समय 1 लाख महिलाओं और लड़कियों का अपहरण हुआ था. इनमें से कई मामलों में पुलिस में शिकायत नहीं दर्ज कराई गई थी और कई मामलों में इस सच को स्वीकार नहीं किया गया.

‘बॉर्डर एंड बाउंड्रीज’ में रितु मेनन और कमला भसीन ने ऐसे मामलों का जिक्र किया है, जहां हमलावरों ने महिलाओं के जिस्म पर अपने धर्म के सिंबल गुदवाए थे

पीड़ित परिवारों को यह मानना कहीं आसान लगा कि उनकी बेटी, बहनों और पत्नियों को फसादियों ने मार दिया है. वे यह नहीं मानना चाहते थे कि उन्हें‘दुश्मन’ परिवारों ने धर्मांतरण के जरिये बंधक या ‘सेक्स स्लेव’ बनाकर रखा है. ऐसा इसलिए किया गया ताकि दूसरे समुदाय का नामोनिशान मिटाया जा सके. खासतौर पर ऐसे मामलों उन इलाकों में अधिक हुए, जहां दोनों समुदाय के लोग सदियों से साथ रहते आए थे.

बंटवारे के वक्त महिलाओं के खिलाफ हिंसा पर साहित्य क्या कहता है?

‘बॉर्डर एंड बाउंड्रीज’ में रितु मेनन और कमला भसीन ने ऐसे मामलों का जिक्र किया है, जहां हमलावरों ने महिलाओं के जिस्म पर अपने धर्म के सिंबल गुदवाए थे. ऐसे मामलों की भी कमी नहीं थी, जहां महिलाओं के जिस्म पर ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ या ‘जय हिंद’ लिखा गया था. इन मामलों में महिलाओं के शरीर का इस्तेमाल युद्ध की ट्रॉफी के तौर पर किया गया था.

मेनन और भसीन ने शेखपुरा, पंजाब की एक डॉक्टर का जिक्र किया है, जिसने सरकारी जांच दल को ऐसी घटनाओं के बारे में बताया था. डॉक्टर ने सरकारी टीम को बताया कि रिफ्यूजी कैंप में ऐसी 6 महिलाओं को लाया गया था, जिनके स्तन कटे हुए थे. उन्होंने बताया कि इन सभी महिलाओं की बाद में मौत हो गई थी.

भीष्म साहनी के बंटवारे पर लिखे गए उपन्यास ‘तमस’ में महिलाओं के कुएं में कूदने का एक दृश्य है क्योंकि उन्हें हमलावर की हिंसा और क्रूरता और इज्जत जाने के बाद शर्म से जीना मंजूर नहीं था.

गुलजार के उपन्यास ‘दो’ में सांप्रदायिक संदर्भ में लैंगिक हिंसा को बड़े ही संवेदनशील ढंग से सामने रखा गया है. उर्वशी बुटालिया, कमला भसीन और रितु मेनन जैसे रिसर्चर्स ने लिखा है कि बंटवारे के दौरान महिलाओं पर जो गुजरी, उसके असर को कुछ दशकों तक किस तरह से छिपाया गया. उन्होंने बताया है कि कई महिलाओं को ऐसी यादों के साथ जिंदगी जीने पर मजबूर होना पड़ा.

यह हिंसा आज भी जारी है. जब भी कहीं दंगा होता है, महिलाओं पर सबसे ज्यादा जुल्म ढाए जाते हैं. गुजरात हो या कश्मीर, असम हो या उत्तर प्रदेश बदला देने के लिए महिलाओं को दंगे के दौरान निशाना बनाया गया है.
बंटवारे के वक्त महिलाओं के खिलाफ हिंसा पर साहित्य क्या कहता है?

आज इन विषयों पर जो साहित्यिक लेखन हो रहा है, उसमें बंटवारे के समय की कहानियों और उपन्यासों जैसी आग नहीं है. हालांकि, इसके कुछ अपवाद भी हैं. इसमें असगर वजाहत की ‘शाह आलम कैंप की रूहें’ या गुलजार की ‘सर्च’ जैसी कहानी शामिल है. गुलजार ने इसमें लिखा है कि कश्मीर में सुरक्षाबल के हाथों आंतरिक सुरक्षा के नाम पर किस तरह महिलाओं का उत्पीड़न हो रहा है.

1947 में बंटवारे के वक्त अचानक शुरू हुई हिंसा ने कइयों को हैरान कर दिया था, लेकिन उसके बाद महिलाओं के खिलाफ जो हिंसा हुई, वह सुनियोजित रही है. इतिहास और साहित्य में हमारे लिए कई सबक छिपे हैं. अगर हम उन पर ध्यान नहीं देते, अगर हमारे अंदर आक्रोश पैदा नहीं होता, अगर हम कहते हैं कि ‘इस मुद्दे का राजनीतिकरण नहीं होना चाहिए’ या ‘रेप तो रेप है, इसमें धर्म को क्यों लाया जा रहा है?’ तो इसका मतलब यह है कि हम सच से नजरें चुरा रहे हैं और हमारी इस गलती की कीमत ना जाने कितने बिलकिस बानो और भंवरी देवियों को चुकानी पड़ेगी.

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Published: 23 Apr 2018,02:32 PM IST

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