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प्रणब मुखर्जी का भाषण खत्म हो गया. विवाद खत्म हो जाना चाहिये. जो सोच रहे थे कि प्रणब मुखर्जी को आरएसएस के फंक्शन में नहीं जाना चाहिये, उन्हें भी शांत हो जाना चाहिये और वो भी शांत हो जाएं जो सोच रहे थे कि प्रणब मुखर्जी ने कोई डील आरएसएस से कर ली है. वो पाला बदलने वाले हैं. वो अपनी बेटी के लिये कुछ मांगने गये हैं.
इस देश में ये बहस जोर पकड़नी चाहिये कि आखिर में आरएसएस नाम का एक प्राणी जो आज हमारी और आपकी जिंदगी को नियंत्रित करने की कोशिश कर रहा है उससे रिश्ता क्या होना चाहिये? क्या उससे कोई संपर्क न रखना किसी तरह का हल है या पूरी तरह से उसके सामने बिछ जाना दूसरा तरीका है? हकीकत में हिंदुस्तान का एक तबका आज तक इस बात से इत्तेफाक ही नहीं रख पाया है कि वो करे तो क्या करे? प्रणब मुखर्जी के विवाद ने वो मौका दिया है कि इस मसले पर खुलकर बात हो और एक रास्ता निकले!
प्रणब के आरएसएस के फंक्शन की खबर आते ही कांग्रेस बुरी तरह से घबरा गई. उसके पैरों तले जमीन खिसक गई. उसे समझ में नहीं आया कि वो कैसे इस खबर से निपटे. कैसे इस नए जीव का सामना करे. उसने मुखर्जी जी के यहां हरकारे भेजे, ये कहने के लिये कि वो जाने से मना कर दें.
ये वही कांग्रेस है जो आजतक नरसिम्हा राव को नहीं संभाल पाई, उन नरसिम्हा राव को जिन्होंने देश की दिशा को बदलने का काम किया. विकास की लंबी रेखा जो आज दिखाई देती है उसको खींचने का काम नरसिम्हा राव ने किया था. कारण, राव के जमाने में बाबरी मस्जिद को गिरने से कांग्रेस की सरकार नहीं रोक पाई थी. उसे डर लगता है कि अगर वो राव को अपनायेगी तो अल्पसंख्यक तबका उससे बिदक जाएगा. इस वजह से वो कभी भी देश की आर्थिक प्रगति का क्रेडिट नहीं ले पाई.
पर प्रणब के प्रकरण से ये लगता नहीं कि वो पूरी तरह से नये मिजाज में आ पाई है. उसे ये समझना होगा कि नया युग नये मूल्यों की प्रतिस्थापना करता है. और आरएसएस से लड़ने के लिये नये अस्त्रों को ईजाद करना पड़ेगा. अगर वो प्रणब मुखर्जी के जाने पर घबरा जायेगी तो फिर वो आरएसएस से कभी नहीं लड़ पायेगी.
कांग्रेस ने गुजरात चुनावों के बाद अपने को बदलने का प्रयास किया है पर अभी भी वो वामपंथी और समाजवादी प्रभाव से पूरी तरह से निकल नहीं पाई है. वामपंथ, दक्षिणपंथ के पूरे निषेध के पक्ष में रहता हैं. वो आरएसएस को इंगेज नहीं करना चाहता. ये समस्या उसकी विचारधारा और उसके व्यवहारिक प्रयोग की है.
वामपंथ अपने स्वभाव में एक्सक्लूसिव है. वो वर्गविहीन समाज की कल्पना तो करता है पर वर्ग शत्रु की पहचान कर उनके विध्वंस के पाठ का सिर्फ जाप नहीं करता बल्कि उसको अमली जामा भी पहनाता है. सोवियत रूस, चीन जैसे देशों में वर्ग शत्रु के नाम पर लाखों लोगों का कत्ल किया गया है. कंबोडिया जैसे देश में वामपंथ की आड़ में एकतिहाई आबादी का सिर कलम हुआ. भारत में जरूर वामपंथ ने लोकतांत्रिक धारा को अपनाया है. पर हिंसा को सैद्वांतिक स्तर पर वो रिजेक्ट नहीं करता. पश्चिम बंगाल में हिंसा आज भी राजनीतिक लड़ाई का एक अहम हथियार है. ये वामपंथ की देन है. ये सोच कांग्रेस को ठिठकने के लिये मजबूर करती है.
प्रणब मुखर्जी ने आरएसएस के गढ़ में जाकर ये साबित किया है कि लोकतंत्र में शत्रु पक्ष को भी इंगेज करना पड़ता है. उनके सामने विचार की चुनौती रखना पड़ती है. और विचारों की लड़ाई में उन्हें उलझाना पड़ता है. वामपंथी सोच के दिन गये. अब वो विचारधारा पीछे छूट गई है. वर्ग शत्रु कह कर निषेध की राजनीति नहीं चलेगी.
आरएसएस की एक बात के लिए दाद देनी पड़ेगी कि वो निषेध और इंगेज दोनो रणनीति का बखूबी इस्तेमाल करते हैं. आरएसएस को क्या पड़ी थी प्रणब मुखर्जी को अपने कार्यक्रम में बुलाने की? कुछ तो कारण रहा होगा. कुछ तो सोचा होगा यूं हवा में लिया हुआ कदम तो नहीं होगा. उन्होंने प्रणब मुखर्जी को ये जानते हुए बुलाया कि उनकी विचारधारा आरएसएस की विचारधारा से उलटी है. न ही वो इतने नादान है कि ये मान लिया होगा कि प्रणब मुखर्जी उनके कार्यक्रम में आकर उनकी जुबान बोलना शुरू कर देंगे. वो असहिष्णु नहीं हैं. भागवत ये सोच रहे हैं कि आरएसएस पर दूसरे विचारों के प्रति जो असहिष्णुता आरोप है वो कैसे खत्म किया जाये?
बहस ये नहीं हुई कि प्रणब मुखर्जी को आरएसएस के कार्यक्रम में क्या बोलना चाहिये, बहस ये हुई कि वो जा क्यों रहे हैं ? मनोवैज्ञानिक लड़ाई आरएसएस ने जीती और विपक्ष अपने में उलझ कर रह गया, पर प्रणब मुखर्जी ने अंत में साबित कर दिया कि वो क्यों उस्तादों के उस्ताद हैं.
कार्यक्रम आरएसएस का था और मोहन भागवत सौहार्द की बात करते दिखे. वो ये समझाने में लगे रहे कि संघ वैसा नहीं है जैसा उसके बारे में प्रचारित किया जाता है. वो सबको साथ लेकर चलने की बात करता है. सबका आदर करता है. वो परम वैभवशाली भारत के निर्माण में सबकी भागीदारी की अपेक्षा रखता है.
2014 के बाद से इस देश में नफरत का जहर बोया गया है. अल्पसंख्यक तबके को निशाना बना कर उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बनाने का षडयंत्र रचा गया है. आज अल्पसंख्यक के मन में डर बैठ गया है, वो अपने को बेबस महसूस कर रहा है. उसकी आवाज खत्म की जा रही है. चारों तरफ असहिष्णुता का वातावरण है. उदारवादी विचारों का गला घोटाला जा रहा है. स्त्री हो या पुरूष, विरोधी विचार के लोगों को खुलेआम धमकियां दी जी रही हैं, बलात्कार और कत्ल की बात की जा रही है.
ऐसे में प्रणब मुखर्जी ने आरएसएस के मंच से कहा कि ये असहिष्णुता देश के संस्कार से मेल नहीं खाता. हिंसा से देश को बचाने की जरूरत है फिर चाहे हिंसा मौखिक हो या शारीरिक. जो समझदार हैं वो समझ गए कि वो कह रहे थे कि राष्ट्रवाद के नाम पर देश को बांटने की कोशिश मत करो. जिस राष्ट्रवाद की आरएसएस वकालत करता है वो गलत है और देश को गलत रास्ते पर ले जा रहा है.
2014 से मोदी सरकार और आरएसएस जवाहर लाल नेहरू की विरासत को खत्म करने में लगा है. इस देश में जो कुछ भी गलत है उसके लिये वो नेहरू को जिम्मेदार बताते हैं. नेहरू की तस्वीर को नई पीढ़ी के समाने पूरी तरह से खंडित करने का षडयंत्र जोर शोर से चल रहा है.
उन्होंने डिस्कवरी ऑफ इंडिया का उद्धरण देते हुये नेहरू की बात कही कि देश तो सभ्यताओं का संगम है. वो उन गांधी को ले आये, जिनको आरएएस के अंदर ज्यादा इज्जत नहीं दी जाती. और तो और वो अशोक महान की तारीफ कर बैठे और उनसे सीखने का बात कही. हम ये बता दें कि आरएसएस की नजर में अशोक की वजह से देश कमजोर हुआ. वो अहिंसा के चक्रव्यूह में फंसा. वो हिंदू धर्म को छोड़कर बौद्ध धर्म की शरण में चला गया, जिसके कारण हिंदू धर्म का पूरा अस्तित्व ही खतरे मे पड़ गया. हिंदुत्व सम्राट अशोक को दरअसल हिंदू धर्म का विनाशक मानती है. प्रणब मुखर्जी ने आरएसएस की दुखती रग पर हाथ रखा, वो तड़प कर रह गये होंगे.
प्रणब मुखर्जी ने विचारधारा की लड़ाई को विचारधारा के स्तर पर लड़ने का उदाहरण रखा. इस मायने में उनकी यात्रा सफल रही. आरएसएस से लड़ना है तो निषेध से काम नहीं चलेगा. संघ को इंगेज करना पड़ेगा. वैचारिक चुनौती उनके सामने लानी होगी. उन्हें विचारों में उलझाना होगा. ये लड़ाई लंबी होगी पर लड़ना होगा. ये संदेश है प्रणब मुखर्जी की यात्रा का.
(लेखक आम आदमी पार्टी के प्रवक्ता हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)
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Published: 08 Jun 2018,09:01 AM IST