मेंबर्स के लिए
lock close icon
Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Voices Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Opinion Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019 चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग को आजकल क्यों आ रही है माओ की याद? 

चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग को आजकल क्यों आ रही है माओ की याद? 

इतिहास गवाह है जब-जब नेता कमजोर होता है वो अतीत की ओर जाता है

आशुतोष
नजरिया
Updated:
शी जिनपिंग
i
शी जिनपिंग
(फोटोः The Quint)

advertisement

चलो एक सवाल पूछते हैं...चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग, अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप, रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में क्या कॉमन है? चारों नेता एक बात कहते हैं... कुछ पूरी शिद्दत से और कुछ सिर्फ राजनीतिक सत्ता को बनाये रखने के लिये. शी कहते हैं आओ चीन को महान बनाएं. ट्रंप कहते हैं आओ अमेरिका को महान बनाएं. पुतिन कहते हैं आओ रूस को महान बनाएं. मोदी कहते हैं भारत को महान बनाएं, विश्व गुरू बनाएं.

चारों नेताओं ने राष्ट्रवाद को जमकर बढ़ाया. पुतिन इनमें सबसे पुराने हैं. रूस ने उनके नेतृत्व में काफी तरक्की भी की है. ट्रंप को अमेरिका गंभीरता से नहीं लेता. विश्व गुरू बनाते-बनाते मोदी जी ने देश की अर्थव्यवस्था कमजोर कर दी. शी से भी चीन बहुत खुश नहीं दिखता. अर्थव्यवस्था ढलान पर है और भ्रष्टाचार उफान पर.

इतिहास गवाह है जब-जब नेता कमजोर होता है वो अतीत की ओर जाता है. मोदी जी का विकास नहीं चला तो देश में अल्पसंख्यक विरोधी माहौल बन गया. कभी राममंदिर का जिक्र होता है तो कभी गाय मांस का. कभी ताजमहल को गालियां दी जाती हैं, तो कभी कश्मीर और देशभक्ति के नाम पर शिक्षण संस्थाओं को निशाना बनाया जाता है. भारत से उलट चीन में सब मर्ज की एक ही दवा है. मुसीबत में हो तो चेयरमैन माओ की शरण में चले जाओ. शी जिनपिंग आजकल वही कर रहे हैं.

चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की कांग्रेस चल रही है जहां उनकी लोकप्रियता और शक्ति दोनों के संकेत मिलेंगे. कांग्रेस पार्टी की सबसे बड़ी संस्था है. लोकतंत्र है नहीं, इसलिये कांग्रेस ही सर्वोच्च नेता की साख और सम्मान का पैमाना बन जाता है. इस कांग्रेस में ये तय होगा की शी के विचारों को उनके नाम समेत देश के संविधान में शामिल किया जाये.

शी के पहले ये रुतबा सिर्फ माओ और देंग शियाओ फेंग को ही हासिल था. शी के पहले जियांग जेमिन और हू जिंताओ के विचार संविधान में रखे गये पर उनके नाम को जगह नहीं मिली. इस वजह से ये चर्चा चल पड़ी है कि शी माओ के रास्ते पर चल रहे है. और हो सकता है कि माओ की तरह उन्हें कम्युनिस्ट पार्टी का आजीवन चेयरमैन नियुक्त कर दिया जाये.

माओ के जमाने में थी तानाशाही

ये शी और चीन के लिये कमजोरी का संकेत है. इसका वैश्विक असर भी होगा. माओ के जमाने में भयंकर तानाशाही थी. किसी को माओ से अलग अपनी राय रखने का अधिकार नहीं था. माओ को जिस-जिस पर संदेह हुआ उस-उस का जीवन नर्क बन गया. देंग शियाओ फेंग जिन्होंने चीन को गरीबी से निकाला और महाशक्ति बनाने में सबसे बड़ी भूमिका निभाई, उन्हें भी सात साल कंसनट्रेशन कैंप में मामूली चीनी की तरह बेहद तकलीफदेह जिंदगी जीनी पड़ी. हालांकि उनकी गिनती चीन के चंद बड़े नेताओं में होती थी.

माओ ज़ेदोंग (फोटोः wikipedia)

माओ के उत्तराधिकारियों - शू लू और लिन बाओ - की रहस्यमय परिस्थितियों में मौत हुयी थी. करोड़ों लोग भुखमरी और तानाशाही के आतंक का शिकार हुये और जान से हाथ धो बैठे. देंग, जियांग जेमिन और हू जिंताओ के समय में माओ का सार्वजनिक अपमान तो नहीं किया गया जैसा कि सोवियत संघ में जोसफ स्टालिन की मौत के बाद ख्रुश्चेव ने किया था.

चीन में माओ को किताबों में ही सीमित कर दिया गया. वो प्रेरणा के स्रोत नहीं थे. आर्थिक विकास ही एकमात्र गुरूमंत्र था. 1992 में जब देंग को लगा कि पार्टी का कंजरवेटिव तबका आर्थिक सुधार को सपोर्ट नहीं कर रहा है तो उन्होंने दक्षिण चीन की सांकेतिक महत्व की यात्रा की और वहीं से गरजे - "जो आर्थिक सुधार के खिलाफ है वो पद छोड़ दे." चीन को संकेत मिल गया. पार्टी को सर्वोच्च नेता के गुस्से का एहसास हो गया. चीन विकास के रास्ते पर सरपट भागने लगा.

ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

चीन को विकास की राह पर लाए थे देंग

मैं देंग को माओ से भी बड़ा नेता मानता हूं. ये सच है कि माओ ने चीन को सामंतवाद से बाहर निकाला. साम्यवादी क्रांति के जनक बने पर उनकी ऊलजलूल सनकी नीतियों ने चीन की जनता का जीवन बर्बाद कर दिया.

भय, दहशत, खौफ और दरिद्रता में जीता चीनी. देंग ने चीन की आंतरिक शक्ति को जगाने का काम किया. आम चीनी की रचनात्मक ऊर्जा के विस्फोट के लिये वातावरण बनाया. माओ की तरह अपने "पर्सनालिटी कल्ट" को नहीं बढ़ाया.

देंग अपने आप को स्वर्ग से उतरा देवदूत नहीं मानते थे जैसा कि माओ सोचते थे. उन्होंने लोगों से कहा कि उन्हे सिर्फ चीनी जनता का पुत्र समझा जाये. वो कहते थे कि चीनी अर्थ व्यवस्था में सुधार का काम इतना जटिल और मुश्किल भरा था कि कोई एक शख्स या कोई एक गुट इस काम को अंजाम नहीं दे सकता था. उनका रोल बस इतना था कि उन्होंने विकास को एक समग्र पैकेज की तरह लोगों के सामने रखा.

भारतीय परंपरा की तरह वो अपने आप को "हेतु" मानते थे. उनके बाद जिंयाग जेमिन चीन के सर्वोच्च नेता बने और जिंताओ भी. दोनों दस-दस साल अपने पद पर बने रहे और स्वेच्छा से पद त्याग दिया. ये व्यवस्था भी देंग बना कर गये थे. वरना साम्यवादी मुल्कों में नेता की मृत्यु के बाद ही नया नेता पद ग्रहण करता है या फिर तख्ता पलट होता है. अब चीन से खबर ये है कि शी जिनपिंग इस देंगवादी परंपरा की जगह माओवादी परंपरा के रास्ते पर चलना चाहते हैं.

देंग शियाओ पिंग (फोटोः wikipedia)

माओ के सताए हुए हैं शी

दिलचस्प बात है कि शी खुद माओ के सताये हुये हैं. उनके पिता कम्युनिस्ट पार्टी के बड़े नेता थे पर उनको बड़े बुरे दिन देखने पड़े थे. माओ की नजर में वो संदिग्ध हो गये. उनकी बहन उनसे बिछड़ गई और शी की मां को पार्टी के दबाव में उनके पिता की अवमानना करनी पड़ी. ऐसा कम्युनिस्ट पार्टी में अकसर होता था जब घर के ही लोग पार्टी के दबाव में अपनों को छोड़ देते थे और सजा दिलवाते थे. इसके बावजूद शी के शासन में माओ को काफी मान दिया जा रहा है.

चेयरमैन माओ की मौत के बाद उनके शासन की कमियां खामियां जनता के सामने आईं थीं. जैसे कि "सांस्कृतिक क्रांति" के समय जो देशभर में उथलपुथल मची थी उसके ब्योरे आसानी से उपलब्ध थे. इतिहास की विवेचना के लिये. शी के समय में पिछले पांच सालों में माओ की आलोचना के लिये स्वतंत्र स्पेस सिकुड़ा है. इतिहासकारों के लिये माओ की आलोचना आसान नहीं रह गई है.

एबीसी न्यूज के मुताबिक सांस्कृतिक क्रांति पर चीन में एकाध म्यूजियम बने थे, अब वो बंद करवा दिये गये हैं. कुछ ऐसी वेबसाइट्स थीं, जिनमें सांस्कृतिक क्रांति के पीड़ितों के संस्मरण थे, उन्हे बंद कर दिया गया है. इतिहासकार फ्रैंक दिकोत्तर कहते हैं कि संग्रहालयों में सिमटी माओ के समय की जानकारियां, अब इतिहासकारों की पंहुच से दूर कर दी गई हैं. माओ की ये आराधना क्यों, ये सवाल महत्वपूर्ण है.

चीन ने विकसित किया नया मॉडल

एक कारण तो ये हो सकता है कि वो वाकई में माओ के प्रशंसक हो. पर ऐसा लगता नहीं है. जीवन का दो-तिहाई वक्त उन्होंने नये चीन में गुजारा है. ये वो चीन था जब चीन ने साम्यवाद का साथ छोड़ा. पूंजीवाद के रास्ते पर बढ़ा. और लगातार तरक्की करता गया. हालांकि, आर्थिक सुधार की तरह राजनीतिक बदलाव नहीं आये. पूंजीवाद तो आया पर लोकतंत्र नहीं आया. बहु दलील व्यवस्था नहीं आयी. चुनाव नहीं आये. वाणी की स्वतंत्रता नहीं आयी. तो कह सकते हैं कि चीन ने एक नया मॉडल विकसित किया. जहां राजनीति तो साम्यवादी थी पर अर्थव्यवस्था पूंजीवादी. ये मॉडल कामयाब रहा. अगर पुराना मॉडल होता तो हो सकता है आज भी चीन बेहद गरीब होता. ऐसे में नये चीन में पैदा हुये शी नये चीन की पहचान हैं पर रास्ता वो पुराने चीन का अपना रहे हैं क्यों?

चीन की अर्थव्यवस्था 1978 से लगातार सरपट भागने के बाद अब शिथिल पड़ने लगी है. 10 फीसदी की विकास दर पर दौड़ने वाली चीनी अर्थव्यवस्था पिछले क्वार्टर में 6.7फीसदी पर अटक गई. लोगों की तनख्वाह तो बढ़ी पर नई नौकरियां उसी अनुपात में नहीं बढ़ रहीं.

"लेबर कॉस्ट" मंहगा होने से चीनी सामान महंगे होने लगे हैं, जिससे उनके सामानों की मांग कम होने लगी है. अमीर गरीब की खाई बढ़ने से सामाजिक असंतोष भी फूटने लगा है.

अतीत की यात्रा और राष्ट्रवाद

लोकतंत्र में जनता चुनावों में अपनी भड़ास निकाल लेती है पर तानाशाही, एकदलीय व्यवस्था में ये असंतोष कभी-कभी सत्ताधारियों के लिये खतरनाक और जानलेवा भी हो जाता है. ऐसे में दो ही रास्ते बचते हैं. अतीत की यात्रा और राष्ट्रवाद.

ये अनायास नहीं है कि वो सैनिकों के बीच फौजी लिबास में घूमते दिखायी देते हैं. हालांकि भारत में भी मोदी जी सेना के कपड़ों में दिवाली मनाते दिखे. यहां भी अर्थव्यवस्था की हालत पतली हो रखी है. चीन में हर शासक को सेना को अपने साथ मिलाकर रखना पड़ता है. देंग ने सारे पद छोड़ने के बाद भी मिलिट्री कमीशन का पद नहीं छोड़ा था. आर्थिक मंदी में सेना का साथ खासा अहम हो जाता है. साउथ चाइना सी यानी दक्षिण चीन के समुद्री इलाके में चीन की सामरिक पेशबंदी, पिछले हफ्ते सात पड़ोसी देशों को शी जिनपिंग की चेतावनी कि वो किसी भी देश या संगठन को चीन के किसी भी भौगोलिक हिस्से से छेड़छाड़ करने नहीं देंगे. भारत के साथ डोकलाम विवाद बिल्कुल ताजा है और चीनी अखबारों में भारत और मोदी जी के लिये जिन शब्दों और धमकियों का प्रयोग हुआ वो नया और हैरान करने वाला है.

ऐसे में आने वाले दिनों में शी जीनपिंग माओ की तरह लोगों की भावनाओं को भड़काते दिखे तो ताज्जुब नहीं करियेगा. हो सकता है वो अमेरिका को चेतावनी देते दिखें. भारत को और धमकियां दें. चीनी सैनिकों का हस्तक्षेप भारतीय सीमा में और बढ़े. पाकिस्तान से दोस्ती और पुख्ता हो.

चेयरमैन शी जिनपिंग का ये वक्तव्य काफी कुछ संदेश दे रहा है कि चीन नये दौर में प्रवेश कर रहा है जहां उसे विश्व के केंद्र में खुद को देखना चाहिये. यानी अमेरिका के दिन लदे और भारत को अपनी सीमा में रहना चाहिये. मंदी के दौर में शी जिनपिंग की भाषा चीन में नया गौरव भाव बढ़ायेगी जैसा चेयरमैन माओ अक्सर करते थे. भारत में भी तो बहुत कुछ ऐसा ही हो रहा है.

(लेखक आम आदमी पार्टी के प्रवक्‍ता हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

अनलॉक करने के लिए मेंबर बनें
  • साइट पर सभी पेड कंटेंट का एक्सेस
  • क्विंट पर बिना ऐड के सबकुछ पढ़ें
  • स्पेशल प्रोजेक्ट का सबसे पहला प्रीव्यू
आगे बढ़ें

Published: 23 Oct 2017,12:59 PM IST

ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT