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World Refugee Day 2023: क्या केंद्र सामुदायिक अधिकारों को मान्यता दे सकती है?

केंद्र सरकार ने रोहिंग्या शरणार्थियों को धमकाते हुए कहा था कि उन्हें सामूहिक रूप से निर्वासित किया जाएगा.

कॉलिन गोंजाल्विस & ओलिविया बैंग
नजरिया
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<div class="paragraphs"><p>हाल की नीतियों से शरणार्थियों के प्रति पूर्वाग्रहपूर्ण दृष्टिकोण का पता चलता है.</p></div>
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हाल की नीतियों से शरणार्थियों के प्रति पूर्वाग्रहपूर्ण दृष्टिकोण का पता चलता है.

(फोटो : विभुशिता सिंह/ द क्विंट)

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World Refugee Day 2023: 20 जून 2023 को अंतर्राष्ट्रीय शरणार्थी दिवस मनाया जाता है. इस संदर्भ में दुनिया की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक व्यवस्था शरणार्थियों के प्रति दंडात्मक नजरिया रखती है. बीते साल केंद्र सरकार ने रोहिंग्या शरणार्थियों को धमकाते हुए कहा था कि उन्हें सामूहिक रूप से निर्वासित किया जाएगा, जिससे सभी शरणार्थी समूह दहशत में आ गए थे.

चिन और रोहिंग्या शरणार्थियों को अगर म्यांमार या बांग्लादेश वापस भेजा गया तो निश्चित तौर पर उन्हें मौत नहीं तो काम से काम कारावास का सामना जरूर करना पड़ेगा. दूसरी तरफ सरकार न केवल अपरिहार्य निर्वासन को लेकर चिंतित दिखी, बल्कि संयुक्त राष्ट्र की तरफ से की गई निंदा पर भी बेरुखी दिखाई.

सरकार की समझ की कमी

पूर्व गृह राज्य मंत्री ने आलोचना के जवाब में कहा कि शरणार्थी विदेशी होते हैं. उनके पास कोई अधिकार नहीं है. आर्थिक प्रवासियों तक के लिए ठीक है, लेकिन उन शरणार्थियों के लिए नहीं जो संवैधानिक रूप से संरक्षित अधिकारों वाले विदेशी हैं.

अवैध प्रवासी आर्थिक अवसरों की तलाश करते हैं. शरणार्थियों की विशिष्ट विशेषता यह है कि वे उत्पीड़न से भागते हैं. शरणार्थी एक अलग श्रेणी है जिनके पास गैर-वापसी का सबसे महत्वपूर्ण अधिकार होता है. यदि उत्पीड़न से भागे हुए शरणार्थी अनैच्छिक रूप से अपने मूल देश लौट जाते हैं, तो वे निरपवाद रूप से पाते हैं कि उनका जीवन खतरे में है.

अंतर्राष्ट्रीय कानून किसी भी देश के शरणार्थी को पीछे धकेल कर उनके जीवन को खतरे में डालने से मना करता है. 1951 का संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी सम्मेलन इस पर रोक लगाता है. अपने लोकतंत्र पर गर्व करने वाले भारत ने इस कन्वेंशन पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया था.

इस पर पूर्व विदेश मंत्री ने तर्क दिया कि चूंकि भारत ने कन्वेंशन पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं, इसलिए शरणार्थियों को रहने देने की कोई बाध्यता नहीं है. यह भारत में शरणार्थियों के अधिकारों की समझ की कमी को दिखाता करता है.

सुप्रीम कोर्ट क्या कहती है?

इसमें कोई शक नहीं है कि शरणार्थी देश में बिना किसी वीजा के प्रवेश करते हैं. लेकिन क्या केवल अवैध दस्तावेज के साथ प्रवेश को आधार बनाकर इन्हें सीधे तौर पर देश से बाहर निकाला जा सकता है?

सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे कई मामलों में कहा है कि भले ही भारत ने शरणार्थी समझौते पर हस्ताक्षर नहीं किया है, फिर भी सरकार का व्यवहार को भारतीय संविधान की आवश्यकताओं के अनुरूप होना चाहिए. भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 - "जीवन का अधिकार", न केवल नागरिकों बल्कि, "भारतीय क्षेत्र के भीतर" रहने जाने वाले सभी लोगों की रक्षा करता है. इनमें वे शरणार्थी भी शामिल हैं जिनके पास इस तरह के महत्वपूर्ण संवैधानिक अधिकार प्राप्त हैं. अगर निर्वासित होने के बाद किसी शरणार्थी को नुकसान पहुंचाया जाता है या मार दिया जाता है, तो सरकार की इस तरह की कार्रवाई असंवैधानिक होगी.

जब पूर्व मंत्री किरेन रिजिजू ने 21,848 रोहिंग्याओं और यूएनएचसीआर (UNHCR) में पंजीकृत शरण चाहने वालों के जबरन निर्वासन की घोषणा की, तो सुप्रीम कोर्ट ने तुरंत हस्तक्षेप किया और निर्वासन पर रोक लगा दिया. ये शरणार्थी अब दशकों से भारत में हैं और इस बात की बहुत कम संभावना है कि उन्हें कभी निर्वासित किया जा सकता है, क्योंकि सीमा के पार उनकी जिंदगी को खतरा है.

साल 1994 के खुदीराम चकमा मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि "हर किसी को दूसरे देशों में उत्पीड़न से शरण लेने और खुशी से जिंदगी गुजारने का अधिकार है".
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राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) मामले के बाद, जहां पूर्वी पाकिस्तान से भागे 65,000 चकमा शरणार्थियों को ऑल अरुणाचल प्रदेश स्टूडेंट्स यूनियन (AAPSU) द्वारा जबरन वापस धकेलने की मांग की गई थी, सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, "राज्य हर इंसान के जीवन और स्वतंत्रता की रक्षा करने के लिए बाध्य है, चाहे वह नागरिक हो या कोई भी और यह चकमाओं को धमकाने के लिए AAPSU को अनुमति नहीं दे सकता है. कोई भी राज्य सरकार इस तरह की धमकियों को बर्दाश्त नहीं कर सकती है.”

भारत में शरणार्थियों की क्या हालत?

अगला सवाल यह उठता है कि अगर शरणार्थी यहां रहने के लिए हैं तो रोजगार, भोजन, शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल और आवास के मामले में उनके पास क्या अधिकार हैं? दशकों से भारत ने शरणार्थियों के आर्थिक अधिकारों की उपेक्षा की है.

कुछ साल पहले, दिल्ली और हरियाणा की मलिन बस्तियों में रोहिंग्या शरणार्थियों के मानवाधिकार कानून नेटवर्क द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण में पाया गया कि सभी रोहिंग्या बच्चे स्कूल से बाहर हैं. उनका कहना था कि अधिकारियों ने उन्हें कहा कि चूंकि वे विदेशी हैं, इसलिए उन्हें नामांकित होने का कोई अधिकार नहीं है.

'इलाज से वंचित, पीने के लिए साफ पानी नहीं'

ऐसा ही विरोध तब भी हुआ जब उन्होंने सार्वजनिक वितरण प्रणाली से अनाज की मांग की. इसी तरह उन्हें सरकारी अस्पतालों में इलाज से वंचित कर दिया गया. आवास के लिए उन्हें झुग्गियों में रहने के लिए मजबूर किया गया. वहीं पीने का साफ पानी उन्हें उपलब्ध नहीं कराई गई.

प्रवासियों के आर्थिक अधिकारों पर जोर देने के लिए सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की गई. जिसमें भारत के सॉलिसिटर जनरल ने इस पर जोर देते हुए कहा कि शरणार्थियों को भी भारत के नागरिकों के समान आर्थिक अधिकार प्राप्त हैं. यह एक साहसिक कदम था, लेकिन वादा कभी पूरा नहीं किया गया.

भारत सरकार का शरणार्थियों के प्रति कैसा रवैया? 

पिछले कुछ वर्षों में शरणार्थियों के प्रति भारत का रवैया लगातार कठोर होता गया. ऐसा नहीं है कि यह संख्या बहुत बड़ी है या फिर देश पर अत्यधिक आर्थिक बोझ डालती है. इस जन्मजात शत्रुता के लिए दो वजह हैं- भारत सरकार मुस्लिम विरोधी नीतियों से प्रभावित है और इसने निर्णय लेने की प्रक्रिया को भी काफी हद तक प्रभावित किया है. यदि शरणार्थी काला या मुसलमान है, तो निष्पक्ष विचार की बहुत कम संभावना होती है.

रोहिंग्या जैसे अफ्रीका के शरणार्थियों के लिए भारत में कठिन समय है और आखिर में नस्लीय हमलों और अपशब्दों का सामना करने के बाद वे चले जाते हैं. वे भारत के बारे में जो नजरिया रखते हैं, उसका अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है.

रोहिंग्या लोगों के निर्वासन को मूल रूप से इस आधार पर उचित ठहराने की कोशिश की गई थी कि उनमें से कई अपराध में लिप्त हैं. कश्मीर में रोहिंग्या लोगों पर एक टीवी डिबेट में केंद्र सरकार के प्रतिनिधि ने कहा कि राज्य की सुरक्षा सर्वोपरि है. हालांकि, करीब से जांच करने पर पता चला कि राज्य में रोहिंग्याओं के खिलाफ बहुत कम आपराधिक मामले दर्ज हैं. इसके बाद DGP ने एक आधिकारिक बयान दिया जिसमें कहा कि कश्मीर में कोई रोहिंग्या आतंकवादी नहीं मिला है.

आर्थिक प्रवासियों के प्रवेश के संबंध में भारत सरकार की हालिया नीतियों को मुसलमानों के खिलाफ और हिंदुओं के पक्ष में झुकता देखा गया, जिसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है. भारत को देखकर दुख होता है, जिसने दशकों पहले मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा को बनाने में अग्रणी भूमिका निभाई थी, वह जातिवाद के नशे में चूर हो गया है.

भारत के लिए यह महसूस करना महत्वपूर्ण है कि झुग्गियों में बेसहारा परिस्थितियों में रहने वाले कल के शरणार्थी, आज अगर सम्मान के साथ व्यवहार किए जाते हैं, तो एक दिन भारत के प्रधान मंत्री बन सकते हैं.

(कॉलिन गोंसाल्विस भारत के सर्वोच्च न्यायालय के एक नामित वरिष्ठ अधिवक्ता और मानवाधिकार कानून नेटवर्क (HRLN) के संस्थापक हैं. ओलिविया बैंग HRLN में एक वकील हैं. यह एक ओपिनियन है और ऊपर व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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