Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Voices Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019जीते जी अपने सगे-संबंधियों को निर्देश दे दें कि शव के साथ क्या किया जाए

जीते जी अपने सगे-संबंधियों को निर्देश दे दें कि शव के साथ क्या किया जाए

Pitru Paksha: इंसान जैसे मरने के बाद भी VIP बने रहना चाहता है. लाव लश्कर न हो तो जैसे वो मरने को तैयार ही नहीं होगा

चैतन्य नागर
आपकी आवाज
Published:
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Pitru Paksha 2022

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इन दिनों देश में पितृपक्ष चल रहा है और सनातन धर्म से जुड़े लोग अपने मृत पूर्वजों को याद कर रहे हैं. मृत परिजनों के लिए धार्मिक अनुष्ठान किये जा रहे हैं. ब्रह्मभोज करवाए जा रहे हैं. एक पूरा पखवाड़ा दिवंगत पूर्वजों के लिए समर्पित है. पितृ पक्ष से निपट कर, नदी में स्नान करने और सिर मुंडवाने के बाद ही लोग खुद को शुद्ध मानते हैं और फिर शारदीय उत्सव-त्योहारों के लिए तैयार हो जाते हैं. मृत पूर्वजों की पूजा करना और उन्हें किसी न किसी रूप में याद करने की प्रथा प्राचीन है और कई संस्कृतियों में लोग इसे मानते हैं. इसके दो कारण हैं: पहला तो यह मत कि मृत सम्बन्धी अभी भी उनका उपकार कर सकते हैं और इसलिए कर्मकांड के द्वारा उनसे संपर्क स्थापित किया जाए, और दूसरा है मृत्यु या मृत लोगों का भय, जिसके कारण उन्हें प्रसन्न करने की आवश्यकता महसूस होती है.  

मौत एक बहुआयामी मुद्दा है. धर्म के लिए भी और समाज के लिए भी. कितने लोग हैं, कितने जीव हैं धरती पर! कहा जाएंगे हम सभी मौत के मुंह में समा कर! क्या होगा हमारी मृत देहों का! कहाँ से आएगी इतनी जमीन, इतनी लकड़ियां, कौन से परिंदे आएंगे शवभोज के लिए! आम तौर पर शव या तो जलाया जाता है, या जमींदोज़ किया जाता है. हर मृत व्यक्ति के साथ या तो लकड़ियाँ जलती हैं, या थोड़ी जमीन कुर्बान होती है. पर्यावरण भी थोड़ा मरता है, और जमीन के अभाव से पहले से ही त्रस्त धरती के बाशिंदे खुद बेघर रहकर अपने हिस्से की जमीन मौत के हवाले करते हैं. यही रिवाज़ है, यही संस्कार, यही धर्म.

कुछ दिन हुए ‘डिस्कवरी’ पर एक कार्यक्रम आ रहा था पारसी समुदाय के बारे में. उनके यहां शव को ‘टावर ऑफ़ पीस’ पर रखने का रिवाज है. पारसी मानते हैं कि मृत्यु का इलाका बुरी ताकतों का होता है और किसी की मृत्यु इन ताकतों की अस्थायी जीत का संकेत है. ऐसे में उनका धर्म कहता है कि मृत देह को अकेले में छोड़ दिया जाना चाहिए, जहां गिद्ध और कौवे उसे खा लें. गिद्ध और कौवों को सृष्टि में इसीलिए बनाया गया है. बुरी ताकतें दूर ही रहें जीवित लोगों से यह सोच कर शव को अकेला छोड़ दिया जाता है. ‘डिस्कवरी’ का यह कार्यक्रम इसी रिवाज़ के बारे में और गिद्धों के गायब होने पर पारसी समुदाय की चिंताओं से सम्बंधित था.

साइरस मिस्त्री की मौत के बाद कुछ लोगों ने एक बार फिर पारसियों की धार्मिक रीतियों के बारे में फिर से बातें की.  1980 में देश में चार करोड़ गिद्ध थे जो अब घट कर सिर्फ 1900 रह गए हैं. डिस्कवरी चैनल पर दिखाया जा रहा था कि पारसी समुदाय के किसी सदस्य का शव ‘टावर ऑफ़ पीस’ की छत पर खुले में पड़ा था और उसके परिजन सूनी आंखों से आसमान की ओर ताक रहे थे, परिंदों के इंतज़ार में. तिब्बत में भी शव को परिंदों को खिला देने का रिवाज़ था पर वहां की प्रथा और विचित्र थी. वहां शव के छोटे छोटे टुकड़े किए जाते हैं और फिर चील, गिद्धों और कौवों को खिलाया जाता है. आकाश को शव सौंप देने की इस प्रथा को ‘स्काई बेरिअल’ भी कहते हैं.

इंसान की मृत देह का क्या किया जाये? मशहूर इतिहासकार गोपाल कृष्ण गांधी ने महात्मा गांधी की शव यात्रा के बारे में लिखा है कि यह एक विडम्बना ही थी कि गांधी जी के शव को तोप रखने वाले वाहन में रखा गया था. जीवन भर अहिंसा की पूजा करने वाले गांधी जी के शव को एक विध्वंसक शस्त्र ढोने वाले वाहन में रखा गया था! गांधी जी के सचिव प्यारेलाल ने लिखा है कि गांधी जी अपने शव को रसायन में लपेट कर सुरक्षित रखने के विरोधी थे और उन्होंने सख्त हिदायत दी थी कि जहां उनकी मृत्यु हो, वहीं उनका अंतिम संस्कार कर दिया जाना चाहिए. पर प्यारेलाल के दस्तावेजों में यह उल्लेख भी मिलता है कि उनके दाह संस्कार में

“पंद्रह मन चन्दन की लकड़ियाँ, चार मन घी, दो मन धूप, एक मन नारियल के छिलके और पंद्रह सेर कपूर का उपयोग हुआ”.

जो इंसान एक फकीर की तरह रहा, और अपना जीवन बस थोड़े से सामान के साथ बिताया, उसके दाह संस्कार में इतना कुछ खर्च किया गया! यदि गाँधी इस बारे में पूरी स्पष्टता से निर्देश देते तो शायद यह सब थोड़े संयम के साथ होता, जैसा वे शायद खुद भी चाहते. सुकरात से उनके मित्रों ने पूछा था उनके शव के साथ क्या किया जाना चाहिए.

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सुकरात ने कहा: “पहले मुझे पकड़ तो लेना, और सुनिश्चित कर लेना कि जिसे पकड़ा है वह मैं ही हूँ; फिर जो चाहे कर लेना!” एंड्रू रोबिनसन ने सत्यजित रे की जीवनी ‘द इनर ऑय’  में एक दिलचस्प बात लिखी है. कविगुरु रविन्द्रनाथ टैगोर की मृत्यु के बाद सत्यजित रे टैगोर के घर पहुँच गए थे और वहां नन्दलाल बोस को सफ़ेद फूलों से गुरुदेव के शव को सजाते हुए देखा. यहाँ तक तो ठीक था, पर जब शवयात्रा शुरू हुई, तो जिसके लिए मुमकिन हुआ उन लोगों ने कविगुरु की दाढ़ी का कम से कम एक बाल नोचने की कोशिश की, अपनी स्मृति के लिए!  

इस देश में आम तौर पर शव के अंतिम क्रिया कर्म दो तरीके से किए जाते हैं. एक तो जला कर और दूसरा दफ़न करके. जलाने में लकड़ी का उपयोग कुछ लोगों को आपत्तिजनक लगता है. उनका कहना है कि मृत देह से ज्यादा कीमती है वृक्ष और उसकी लकड़ियाँ. जितनी लकड़ियाँ किसी मृत देह को जलाने के काम आती हैं, उतनी से किसी गरीब घर का कई दिनों का ईंधन निकल आएगा. बिजली से चलने वाले शवदाह गृह में अभी भी परंपरागत हिन्दू जाना नहीं चाहते. जब तक शव पूरी तरह भस्म न हो जाए, परिवार के लोग वहीँ आस पास रहना चाहते हैं और उनकी भावनाओं को समझा भी जा सकता है.

फिर प्रश्न उठता है अस्थियों का और उनके विसर्जन के लिए आस पास किसी नदी की उपस्थिति का. पर्यावरण की फिक्र करने वालों के लिए नदियों का प्रदूषण एक बड़ा प्रश्न है. हिन्दू रीतियों में साधु-सन्यासियों, छोटे बच्चों और विधवाओं के शव को अग्नि के सुपुर्द करने का रिवाज़ नहीं. उन्हें जल समाधि दी जाती है. सही तकनीक न अपनाई जाए तो शव सतह पर आ जाता है और फिर पशु पक्षी शव का बहुत ही बुरा हाल करते हैं.

ज़मीन के अभाव, तरह तरह के प्रदूषण और शव की दुर्दशा को देखते हुए बेहतर होगा कि सही सोच वाले लोग, भले ही उनकी संख्या काफी कम ही क्यों न हो, जीते जी अपने सगे-सम्बन्धियों को निर्देश दे दें कि उनके शव के साथ क्या किया जाए. मौत के बाद चलने वाला कारोबार धरती का, कीमती संसाधनों का और परिजनों के धन और ऊर्जा का कम से कम नुकसान करे तो बेहतर होगा. वैज्ञानिक अन्वेषण के लिए देहदान का विकल्प भी कई लोग अपनाते हैं और यह भी सही समझ आता है.

समस्या यह है कि मृत्यु को इतना बड़ा एक टैबू या वर्जित विषय माना गया है कि हम कभी घर परिवार में इस बारे में खुल कर बात ही नहीं करते. परिणामस्वरूप इस मामले में सदियों से चली आ रही परम्परा ही अपना काम करती हैं, और नये सिरे से सोचने की संभावना बहुत कम रह जाती है. इसमें समाज के राजनैतिक और धार्मिक नेताओं की भी बड़ी भूमिका है. वे मरने के बाद भी वी आई पी बने रहना चाहते हैं. हजारों लोगों की मौजूदगी, सैकड़ों गाड़ियां और लाव लश्कर न हो तो जैसे वे मरने को तैयार ही नहीं होंगे! देर सवेर इन सभी बातों के बारे में सोचना होगा. ज़िन्दगी तो लड़खड़ा कर थम जाती है, पर मौत का कारोबार ऐसे नहीं थमता. मरने के बाद भी दूर तलक जाता है.

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