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याद में तेरी जहां को भूलता जाता हूं मैं,
भूलने वाले कभी तुझको भी याद आता हूं मैं.
आगा हश्र कश्मीरी एक बहुत बड़े नाटककार होने के साथ-साथ बहुत ही आला दर्जे के शायर भी थे. ऊपर जिस शेर जिक्र किया गया है, यह इन्हीं का मशहूर शेर है. आगा हश्र कश्मीरी का जन्म 3 अप्रैल, 1879 को बनारस में हुआ था. इनका असल नाम आगा मुहम्मद शाह था. इनकी शिक्षा-दीक्षा छठे दर्जे तक ही हो पाई थी और यह बड़े कमाल दर्जे की बात है कि इतनी कम तालीम के बावजूद भी इन्होंने ऐसी-ऐसी महान रचनाएं रचीं, जिस कारण इन्हें उर्दू का शेक्सपियर कहा गया.
जिस तरह आगा हश्र कश्मीरी के नाटक आज भी नाटक में रुचि रखने वाले लोगों के लिए किसी अनमोल खजाने से कम नहीं हैं, उसी तरह शायरी का शौक रखने वालों के लिए भी इनकी शायरी बहुत बेशकीमती है.
गोया तुम्हारी याद ही मेरा इलाज है
होता है पहरों ज़िक्र तुम्हारा तबीब से...
आगा ने अरबी, फारसी, उर्दू, हिंदी और अंग्रेजी भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया था. इन्हें बचपन से ही नाटक से लगाव था, जिसका पता इस बात से चलता है कि इन्होंने अंग्रेजी साहित्य के सबसे बड़े नाटककार शेक्सपियर के नाटकों का अनुवाद किया था. यूं तो छोटी-सी उम्र से ही ये नाटक और शायरी में दिलचस्पी लेने लगे थे, लेकिन जब ये 18 साल की उम्र को पहुंचे, तो इन्होंने ‘आफताब-ए-मुहब्बत’ नाम से अपना पहला नाटक लिखा. इस नाटक की खूब तारीफ हुई और इस तारीफ के साथ ही आगा भी मशहूर हो गए. इनका नाटक लिखने का अंदाज भी बड़ा निराला था. इनके नाटक को पढ़ें तो पता चलता है कि इन्होंने नाटक में शायरी का बखूबी इस्तेमाल किया है, जिससे इनके नाटक और भी ज्यादा रोचक और रोमांचक बन पड़े हैं. पेश हैं इनके नाटक ‘ख्वाब-ए-हस्ती’ की कुछ पंक्तियां.
ये वहीं तक साथ देंगे, जब तलक कुछ आस है,
जब तलक अहमक है तू, जिस वक्त ज़र पास है.
जब ख़िज़ां आई, न लेंगे नाम तेरा भूल से,
यूं जुदा हो जाएंगे जिस तरह पत्ते फूल से.
वैसे तो आगा हश्र कश्मीरी को खास तौर पर उर्दू साहित्यकार के रूप में जाना जाता है, लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है कि इन्हें सिर्फ उर्दू में ही शोहरत हासिल है. हकीकत यह है कि इन्हें उर्दू-हिंदी दोनों ही रंगमंचों पर मकबूलियत मिली और इसमें कोई शक नहीं है कि ये नाटक की दुनिया के ‘लीजेंड’ हैं. इनका बेहद चर्चित नाटक है ‘यहूदी की लड़की’. हिंदी सिनेमा की मशहूर फिल्म ‘यहूदी’ की पटकथा भी इसी नाटक पर आधारित है. इस नाटक के माध्यम से आगा ने यहूदियों पर रोमन अत्याचार एवं शोषण का बड़ा ही मार्मिक चित्र उकेरा है. यह प्रेम की जीत पर आधारित एक कालजयी नाटक है, जिसमें आगा ने रूढ़िवादी परंपराओं पर गहरी चोट की है. पेश है इनके इस नाटक से कुछ पंक्तियां.
वक़्त कांटा-सा खटकता है, निकलता ही नहीं.
दिन अजब छाती का पत्थर है कि ढलता ही नहीं..
गर्दिश-ए-तक़दीर से उल्टा, असर तक़दीर का.
वो भी अब मिलता नहीं, जो था मेरी तक़दीर का..
आगा हश्र कश्मीरी ने में 20 से ज्यादा नाटक रचे और सभी कामयाबी के दर्जे को पहुंचे. इन्होंने पहले से चलती आ रही नाटक-परंपरा की भाषा-शैली को बदलकर आधुनिक रूप दिया और यह बदलाव हुआ नाटक में चुलबुली भाषा और शे’र-ओ-शायरी के रूप में, जो कि उस वक्त के हिसाब से न सिर्फ एक बहुत बड़ा बदलाव था, बल्कि एक बहुत बड़ी चुनौती भी था, लेकिन आगा हर मोड़ पर कामयाब हुए.
आगा हश्र कश्मीरी ने न सिर्फ नाटक लिखे, बल्कि कई नाटकों का अनुवाद भी किया, जिनमें इनके चहेते शेक्सपियर का नाम खास तौर पर काबिल-ए-जिक्र है. इन्होंने शेक्सपियर के नाटकों का ‘सफेद खून’, ‘शहीद-ए-नाज’, ‘सैद-ए-हवस’ और ‘ख्वाब-ए-हस्ती’ नाम से अनुवाद किया. इनकी अपनी रचनाओं में ‘असीर-ए-हिर्स’, ‘बीवी’, ‘खूबसूरत बला’, ‘दुश्मन-ए-ईमान’ और ‘रुस्तम-ओ-सोहराब’ इत्यादि शामिल हैं. इसके अलावा इन्होंने ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ की कथाओं पर आधारित कई नाटक लिखे, जो बहुत लोकप्रिय हुए. ये शेक्सपियर से इतने ज्यादा प्रभावित थे कि जब इन्होंने 1912 में अपनी ड्रामा कंपनी शुरू की तो उसका नाम इन्होंने ‘इंडियन शेक्सपियर थिएटरिकल कंपनी’ रखा.
आगा हश्र कश्मीरी का ताल्लुक उस दौर से था, जिस दौर में अल्लामा इकबाल जैसे बहुत बड़े शायर अपनी नज़्म और शायरी की वजह से बहुत ऊंचे मुकाम पर पहुंच गए थे, लेकिन जब आगा किसी महफिल का हिस्सा होते थे तो ऐसा कहा जाता है कि इनके सामने अल्लामा इकबाल जैसे बड़े शायर भी अपना कलाम पढ़ना मुनासिब नहीं समझते थे और ऐसा सिर्फ इसलिए होता था, क्योंकि अल्लामा इकबाल जैसे बड़े नामी शायर आगा का बड़ा एहतराम किया करते थे और इनके एक ऐसे ही मुरीद थे मंटो!
आगा हश्र कश्मीरी के दो और शेर
सब कुछ ख़ुदा से मांग लिया तुझको मांगकर,
उठते नहीं हैं हाथ मिरे इस दुआ के बाद.
गो हवा-ए-गुलिस्तां ने मिरे दिल की लाज रख ली,
वो नक़ाब ख़ुद उठाते तो कुछ और बात होती.
28 अप्रैल, 1935 को ‘भारत का शेक्सपियर’ कहे जाने वाले आगा हश्र कश्मीरी इस फ़ानी दुनिया से रुखसत हो गए. इन्हें थिएटर की दुनिया को शोहरत बख्शने के कारण एक महान नाटककार के रूप में हमेशा याद किया जाएगा.
एम.ए. समीर कई वर्षों से अनेक प्रतिष्ठित प्रकाशन संस्थानों से लेखक, संपादक, कवि एवं समीक्षक के रूप में जुड़े हैं. देश की विभिन्न पत्रिकाओं में इनके लेख प्रकाशित होते रहते हैं. 30 से अधिक पुस्तकें लिखने के साथ-साथ अनेक पुस्तकें संपादित व संशोधित कर चुके हैं... और यह काम अभी भी जारी है.
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