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सावन की रिमझिम फुहारों से धरती पर हरियाली छाने लगती है. इसके साथ ही थोड़े-थोड़े गैप के बाद लंबे अरसे तक चलने वाले त्योहारों का सिलसिला भी शुरू हो जाता है. उत्तर भारत के बड़े हिस्से में मनाए जाने वाले व्रत तीज को इसकी शुरुआत मान सकते हैं. तीज की कथा, व्रत की महिमा, चलन और तारीख से जुड़ी हर जानकारी हम यहां पेश कर रहे हैं.
तीज शब्द सामने आते ही सबसे पहला सवाल यही उठता है- कौन वाली तीज? दरअसल, उत्तर भारत में दो तीज प्रचलित है. ये दोनों केवल एक महीने के अंतर पर मनाई जाती है.
एक तीज सावन महीने में शुक्ल पक्ष की तृतीया को मनाई जाती है. इसे हरियाली तीज कहते हैं. साल 2019 में ये तीज 3 अगस्त को मनाई जाएगी.
चूंकि ये तृतीया तिथि को मनाया जाने वाला व्रत है, इसलिए इसे तीज कहते हैं. जैसे करवा चौथ चतुर्थी तिथि को और वसंत पंचमी पंचमी तिथि को मनाई जाती है.
अगर इस व्रत के फैलाव की बात करें, तो महिलाओं के बीच सावन वाली तीज की जगह भादो वाली तीज मनाने का चलन ज्यादा है. बिहार, झारखंड, यूपी के बड़े हिस्से, मध्य प्रदेश और कुछ अन्य जगहों पर भादो वाली तीज की खूब धूम देखी जाती है. दूसरी ओर दिल्ली और इसके आस-पास कुछ इलाकों में सावन वाली तीज मनाने का चलन है.
महिलाएं अपने अखंड सौभाग्य की कामना करती हुई ये व्रत रखती हैं. पति स्वस्थ और दीर्घायु हों, घर-परिवार धन-धान्य से पूर्ण हो, ऐसी प्रार्थना की जाती है.
तीज के दिन महिलाएं अन्न-जल का त्याग करते हुए पूरे विधि-विधान से शिव-पार्वती की पूजा करती हैं. हालांकि नए दौर की महिलाएं अपने पति के विशेष अनुरोध पर तीज के दिन उनके हाथों से कुछ खा-पी लेती हैं. इसका चलन अब बढ़ता दिख रहा है.
शिवजी को पति के रूप में पाने के लिए पार्वती ने पर्वत पर जाकर कठोर तपस्या की. इससे उनके माता-पिता चिंतित हो गए और नारद की सलाह से पार्वती का विवाह विष्णु के साथ कराने को तैयार हो गए. जब पार्वती को इस बात का पता चला, तो वे घने वन में जाकर तपस्या करने लगीं.
तपस्या कितनी कठिन थी, इस बारे में रामचरितमानस में विस्तार से वर्णन है. कहा गया है कि वैसे तो पार्वती बेहद सुकुमारी थीं. उनका शरीर तप करने लायक नहीं था, इसके बाद भी उन्होंने हजार बरस तक केवल कंद-मूल और फल खाते हुए बिताए. इसके बाद सौ साल तक केवल साग खाया. कुछ दिनों तक केवल जल और वायु का सेवन किया, फिर और कठोर उपवास किए.
पार्वती की तपस्या के बाद ये भविष्यवाणी हुई: ''पार्वती, तुम्हारा तप सफल हुआ. अब अपनी तपस्या छोड़ दो, शिव तुम्हें पति के रूप में मिलेंगे.''
ऐसी मान्यता है कि पार्वती ने तपस्या के दौरान भादो शुक्ल तृतीया को बालू से शिव की प्रतिमा बनाकर रातभर पूजन-कीर्तन किया. इसी दिन उन्हें मनोकामना पूरी होने का वरदान मिला था. बाद में पार्वती का विवाह शिव के साथ हुआ. इस तरह शिव के साथ पार्वती पूरे जगत के लिए पूजनीय हो गईं. इसलिए इस तृतीया तिथि को हरितालिका तीज मनाई जाती है.
देवि देवि उमे गौरि त्राहि मां करुणानिधे।
ममापराध: क्षन्तव्या भुक्तिमुक्तिप्रदा भव।।
इस मंत्र में देवी पार्वती से प्रार्थना की गई है, ''हे देवि उमा, हे करुणामयी माता, आप मेरे अपराधों को क्षमा कीजिए और हमें सुख-संपन्नता और मुक्ति दीजिए.''
शिव के चरणों में पार्वती की प्रीति अटली थी. तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में पार्वती की कठोर प्रतिज्ञा के बारे में लिखा है:
जन्म कोटि लगि रगर हमारी
बरउं संभु न त रहउं कुआरी
पार्वती कहती हैं, ''मेरा तो करोड़ों जन्मों तक यही हठ रहेगा कि या तो शिवजी को वरूंगी, नहीं तो कुमारी ही रहूंगी.''
पार्वती का शिव के लिए अटल प्रेम, त्याग-तपस्या ही उन्हें संसार के लिए पूजनीय बनाता है. धर्मग्रंथों में इस तरह का दूसरा उदाहरण खोजना मुश्किल है.
(इस आर्टिकल को तैयार करने में गीताप्रेस, गोरखपुर से छपे धर्मग्रंथों की सहायता ली गई है.)
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