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देश भर में होली के कई रंग हैं. यूपी में ब्रज की रास-रंग वाली और बरसाने की लट्ठमार होली से लेकर पश्चिम बंगाल और पूर्वोत्तर में वैष्णव होली दोल तक. लेकिन होली के इन रंगों में सबसे अलग रंग है उत्तराखंड की कुमाऊंनी होली का.
बिहार, यूपी से लेकर पंजाब हरियाणा तक जहां होली में लोक गीतों और हुड़दंग का जोर होता है वहीं कुमाऊं की होली की पहचान है संगीत की राग-रागिनियों से. बैठकी, खड़ी और महिलाओं की स्वांग वाली होलियां, कुमाऊं की होली के रंग को खास बना देती हैं.
कुमाऊंनी होली इस मायने में भी अलग है कि इसकी शुरुआत बसंत पंचमी के दिन से ही हो जाती है. इस दिन से घर की बैठकों या छतों में बैठकी होली का आयोजन शुरू हो जाता है. गांवों में बैठकी होली की महफिल जमने लगती है, जिनमें होल्यार (होली गाने वाले) हारमोनियम, तबला और हुड़के की थाप पर होली के गाने शुरू कर देते हैं
ये होलियां दादरा और ठुमरी जैसे शास्त्रीय रागों पर गाई जाती हैं. इन बैठकी होलियों में गायन के दौरान राग धमार से आह्वान होता है. राग श्याम कल्याण से शुरुआत होती है और फिर अलग-अलग रागों में होलियां गाई जाती हैं . संगीत की शुद्धता, शास्त्रीयता और श्रृंगार के जरिये अद्भुत समां बंधता है. बैठकी होली में गायन का समापन राग भैरव से होता है.
यह भी दिलचस्प है कि कुमाऊं में गाई जाने वाली ये होलियां ब्रज की भाषा में होती हैं. हालांकि इनके गाने का तरीका अलग होता है. न तो यह पूरी तरह सामूहिक गायन है और न शास्त्रीय होली तरह एकल. बैठकी होली की इन महफिलों में बैठा कोई भी शख्स बंदिश शुरू कर सकता है. इसे ‘भाग लगाना’ कहते हैं. यानी बैठकी होली में वह श्रोता भी है और होल्यार (होली गाने वाला) भी. दरअसल कुमाऊं में होली गायन साल भर चलता है.पौष महीने से लेकर कहीं-कहीं अगले साल की रामनवमी तक यह होली गायन होता है.
जाड़े में पौष (पूस) के महीने से शुरू होने वाली बैठकी होली में बसंत पंचमी तक आध्यात्मिक और भक्ति संगीत से होली बैठकी की महफिल सजती है और शिवरात्रि आते-आते इसमें श्रृंगार रस शामिल होने लगता है. बहरहाल, बैठकी होली में भक्ति, वैराग्य, कृष्ण गोपियों की छेड़छाड़, प्रेमी-प्रेमिका की तकरार और देवर-भाभी की हंसी-ठिठोली सब शामिल हैं.
बैठकी होली का दौर फागुन एकादशी तक चलता है और फिर इस दिन मंदिर में चीर बंधन के साथ ही शुरू हो जाती है खड़ी होली. खड़ी होली में होल्यार गांव-गांव जाकर एक बड़े गोले में घूम-घूम कर होली गाते हैं.
कुमाऊं की होली का एक और खास रंग है. और वह महिलाओं की होली. महिलाओं की बैठकी होली अलग होती है. महिलाएं लाल बॉर्डर वाली सफेद साड़ी पहन कर बैठकी होली की इन महफिलों में गाने और होली खेलने आती हैं. आलू के गुटके (चाट), पकौड़ों, गुझियों और चाय के साथ होली की यह महफिल घंटों चलती हैं. जिनमें शास्त्रीय रागों पर आधारित होली से लेकर होली से जुड़े लोक गीत होते हैं. महिलाओं की होली में बैठकी और खड़ी होली का मिलाजुला रंग दिखता है. शास्त्रीय रागों पर आधारित होली गीतों के अलावा ठेठ लोकगीत भी खूब गाए जाते हैं. देवर भाभी के बीच मजाक से जुड़ा एक गीत देखिये –
शास्त्रीय राग पर आधारित पर इस गीत में धार्मिक प्रभाव है-
महिलाओं की स्वांग परंपरा के होली गायन में पुरुषों के जीविका की खोज में पहाड़ से पलायन से पैदा शून्य को भरने की कोशिश दिखती है. इस गायन में अक्सर महिलाएं पुरुषों का भेष धर कर होली गाती हैं और उनमें पुरुषों पर कटाक्ष भी किया जाता है. इन गीतों में विरह,प्रेम,रोमांस और पीड़ा सब कुछ होता है. पुरुष-स्त्री के बीच शालीन प्रेम की अभिव्यक्ति करते गीत शास्त्रीयता और लोक परंपरा में बंध जाते हैं.
बैठकी होली की महफिल में नजीर जैसे मशहूर उर्दू शायर के कलाम भी गाया जाता है
और आशीर्वाद के साथ आखिर में गाई जाती है यह ठुमरी
कुमाऊं की बैठकी होली के गायन में आपको आजादी के आंदोलन से लेकर उत्तराखंड आंदोलन के प्रसंग मिल जाएंगे. उत्तराखंड के सामाजिक आंदोलनों में होली गीतों ने अहम भूमिका निभाई है. चारू चंद्र पांडे, गिर्दा,गोर्दा और गुमानी जैसे साहित्यकारों ने कई होली गीतों की रचना कर इस परंपरा को समृद्ध किया है. पहाड़ के बड़े जन कवि रहे गिरिश गिर्दा ने बैठकी होली के गीतों का सामाजिक संदर्भ और इस पर उर्दू के प्रभाव का गहरा अध्ययन किया है. वह कहते हैं- यहां की होली में अवध से लेकर दरभंगा तक की छाप है. जो राजकुमारियां यहां ब्याह कर आईं वे अपने यहां की छाप लेकर आईं.
होली गायन की वे परंपराएं भले ही वहां खत्म हो गईं लेकन कुमाऊं ने इसे जिंदा रखा.इतना ही नहीं पहाड़ की होली में सर्वधर्म समभाव के अक्स भी दिखते हैं. पौड़ी में होली गायन बड़े याकूब के नेतृत्व में होता था तो 1935 में श्रीनगर (उत्तराखंड) में इसमें ईसाइयों के भी शामिल होने के उदाहरण मिलते हैं.
(उत्तराखंड के युवा संस्कृतिकर्मी हेम पंत से बातचीत पर आधारित)
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