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जहां मन में भय न हो कोई, और ऊंचा हो भाल
जहां ज्ञान हो मुक्त,
जहां संकीर्ण दीवारों में न बंटी हो दुनिया
जहां सत्य की गहराई से निकलते हों शब्द सभी,
जहां दोषरहित सृजन की चाह में,
अनथक उठती हों सभी भुजाएं,
जहां रूढ़ियों के रेगिस्तान में खो न गई हो,
तर्क-बुद्धि-विवेक की स्वच्छ धारा
जहां लगातार खुले विचारों और कर्मों से
मिलती हो मन को सही दिशा...
ओ परमपिता, स्वतंत्रता के उसी स्वर्ग में जागे ये देश हमारा !
('गीतांजलि' में शामिल गुरुदेव रबींद्रनाथ टैगोर की मशहूर कविता "Where The Mind Is Without Fear" का हिंदी अनुवाद)
गुरुदेव रबींद्र नाथ टैगोर को याद करते हुए ये कविता बार-बार मन में कौंध जाती है. हिंसा और नफरत की चुनौती से जूझती दुनिया को इंसानियत का संदेश देने वाली ये कविता उनके काव्य संग्रह "गीतांजलि" में शामिल है, जिसे 1913 में साहित्य के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. टैगोर की इस कविता में उनके प्रखर विचारों और गहरे मानवतावादी जीवन दर्शन की झलक मिलती है.
7 मई 1861 को जन्मे रबींद्रनाथ टैगोर का निधन 7 अगस्त 1941 को हुआ था. करीब 80 साल की अपनी जीवन यात्रा के दौरान उन्होंने कवि, गीतकार, लेखक, उपन्यासकार, चित्रकार, संगीतकार और एक महान चिंतक-दार्शनिक-शिक्षाविद के तौर पर दुनिया को लगातार समृद्ध किया. उनका चिंतन बताता है कि वो सही मायने में एक विश्व नागरिक थे.
गुरुदेव के गुरुकुल "शांति निकेतन" से निकली कई महान विभूतियों में एक, नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री प्रोफेसर अमर्त्य सेन ने लिखा है:
अमर्त्य सेन बताते हैं कि वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देना टैगोर के लिए इतना महत्वपूर्ण था कि इसके लिए वो महात्मा गांधी का विरोध करने से भी नहीं हिचकते थे:
"गांधी और उनके नेतृत्व की टैगोर खुलकर तारीफ करते थे. उन्होंने ही गांधीजी को बार-बार 'महात्मा' कहकर इस संबोधन को लोकप्रिय बनाया. लेकिन तार्किकता के मुद्दे पर जहां जरूरी लगा उन्होंने गांधी जी से अपनी असहमति भी खुलकर जाहिर की. मिसाल के तौर पर गांधीजी ने जब 1934 में बिहार में आए भयानक भूकंप को 'हमारे पापों, खासतौर पर अस्पृश्यता के पाप के कारण भगवान की तरफ से दी गई सजा' बताया तो टैगोर ने इसका खुलकर विरोध किया.’’
उन्होंने कहा, "प्राकृतिक घटना के बारे में इस तरह का अवैज्ञानिक नजरिया बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है. इसलिए और भी ज्यादा क्योंकि देश का बड़ा तबका ऐसी बातों को फौरन स्वीकार कर लेता है."
हमें हमारा राष्ट्रगान "जन गण मन" देने वाले टैगोर एक प्रखर देशप्रेमी थे. ब्रिटिश सरकार से मिली सर की उपाधि उन्होंने जालियांवाला बाग कांड के विरोध में लौटा दी थी. भारत पर थोपे गए अंग्रेजी साम्राज्यवाद की उन्होंने लगातार कड़ी आलोचना की. टैगोर मानते थे कि अंग्रेज ब्रिटेन में जिन नागरिक अधिकारों के चैंपियन होने का दावा करते हैं, भारत में उन्हीं को बड़ी क्रूरता से कुचल देते हैं.
लेकिन देशप्रेम की भावना से ओतप्रोत होने के भावजूद गुरुदेव ने अंध-राष्ट्रवाद में छिपे खतरों को बरसों पहले भांप लिया था. गुरुदेव ने लिखा था:
टैगोर को ये मंजूर नहीं था कि राष्ट्रवाद की भावना पूरी मानवता की एकजुटता के रास्ते में अड़चन बने. उन्होंने कहा था, “मैं हीरे के दाम में कांच नहीं खरीदूंगा. जब तक जिंदा हूं, मानवता के ऊपर राष्ट्रभक्ति की जीत नहीं होने दूंगा.”
गुरुदेव ने ‘नेशनलिज्म इन इंडिया’ नाम से लिखे निबंध में अपने इस विचार को और साफ किया है:
“राष्ट्रवाद का राजनीतिक और आर्थिक संगठनात्मक आधार महज ये है कि उत्पादन बढ़ाकर और मानवीय श्रम की बचत करके कैसे अधिक से अधिक अमीर हुआ जाए.”
यानी टैगोर की राय में फर्जी राष्ट्रवाद की असली प्रेरणा देशप्रेम नहीं, बल्कि मुनाफे का लालच है. उनकी राय में ये सिर्फ श्रम के शोषण और मुनाफा बढ़ाने के लिए रची गई एक अवधारणा है, जो संपूर्ण मानवता की भलाई के रास्ते में रोड़ा है:
टैगोर की इस सोच पर पहले विश्व युद्ध में मची तबाही का काफी असर पड़ा था. उन्होंने विश्व युद्ध के बाद जापान में दिए एक व्याख्यान में कहा था:
"दुनिया पर इस समय जो राजनीतिक सभ्यता हावी है, वो खुद को दूसरों से अलग मानने की सोच पर टिकी है. इसमें दूसरों से हमेशा दूरी बनाए रखने या उन्हें नष्ट कर देने की भावना रहती है. इसकी प्रवृत्ति परभक्षी और नरभक्षी है. ये दूसरों के संसाधनों को हड़पकर जिंदा रहती है और उनके पूरे भविष्य को निगल जाने की कोशिश करती है. ये दूसरी नस्लों के प्रभावशाली होने की आशंका से डरी रहती है और अपनी सरहदों से बाहर किसी भी तरह की महानता को जन्म लेने से पहले ही खत्म कर देना चाहती है."
कोलकाता से प्रकाशित होने वाले जर्नल मॉडर्न रिव्यू में प्रकाशित एक लेख में टैगोर ने "राष्ट्रवाद की बेड़ियों को तोड़कर पूरी मानवता की एकता का लक्ष्य हासिल करने" का वैश्विक सपना पेश किया था.
पूरी मानवता को एक-सूत्र में पिरोने का ये ख्वाब देखने वाले गुरुदेव के लिए सांप्रदायिक नफरत और धार्मिक कुरीतियों को बर्दाश्त करना संभव नहीं था. 1890 में प्रकाशित नाटक "विसर्जन" में टैगोर ने धर्म के नाम पर हिंसा का विरोध करते हुए लिखा था:
देवी कहीं नहीं है,
जो है वह मनुष्यता है,
जो है वह सत्य और सुंदर है,
जो है वह मनुष्य और मनुष्यता है,
मनुष्य और मनुष्य के बीच,
अहिंसा और प्रेम का मानव बंधन है,
घृणा और हिंसा के धर्मस्थल की पाषाण प्रतिमा में देवी नहीं है.
अमर्त्यसेन के मुताबिक गुरुदेव मानते थे कि उनकी निजी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि "हिंदू, मुस्लिम और ब्रिटिश- इन तीन संस्कृतियों के मेल से बनी है." दो धर्मों के लोगों के बीच सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं से गुरुदेव बेहद दुखी होते थे. सांप्रदायिक राजनीति के बारे में उन्होंने दशकों पहले जो लिखा था, वो आज भी प्रासंगिक है, "कुछ स्वार्थी समूह अपनी महत्वाकांक्षा और बाहरी उकसावे से प्रेरित होकर सांप्रदायिक सोच को बढ़ावा देते हैं और उसका इस्तेमाल विनाशकारी राजनीतिक उद्देश्यों के लिए करते हैं."
गलत सोच के खतरों से आगाह करने वाली गुरुदेव की ये आवाज दशकों से इंसानियत के दरवाजे पर दस्तक दे रही है. क्या हम अपने दिलो-दिमाग के दरवाजे-खिड़कियां खोलने को तैयार हैं?
और अंत में मानवता के महाकवि की एक सुंदर कविता की कुछ पंक्तियां, जिनका अनुवाद एक और महान कवि दिनकर ने किया है:
आदमी कोई भूख मिटाने वाला खाद्य नहीं है,
कोई नहीं है तेरा या मेरा
अत्यंत यत्नपूर्वक, बहुत चुपचाप
सुख में, दुख में,
निशीथ में, दिवस में,
जीवन में, मरण में,
शत ऋतु आवर्तन में,
शतदल-कमल विकसित होता है !
तुम उसे सुतीक्ष्ण वासना की छुरी से
काटकर ले लेना चाहते हो ?
उसका मधुर सौरभ लो
उसका सौंदर्य-विकास निहारो,
उसका मकरंद पियो,
प्रेम करो, प्रेम से शक्ति लो -
उसकी ओर मत ताको,
मानव की आत्मा, आकांक्षा का धन नहीं है...
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